Published By:धर्म पुराण डेस्क

कर्मों से ही कालसर्प दोष और योग का होता है निर्माण

वासना वालों के लिए यह जीवन अतृप्ति का मंदिर है, कामना और निराशा की अंधेरी गुफा है, भोगी के लिए दहकती हुई आग है, कमजोर और डरपोक के लिए पाप की गठरी है, ज्ञानियों के लिए बदलते हुए मूल्यों का बंडल है, विरक्तों के लिए रिक्तता (खालीपन) की भाँति नीरस है, शिव के भक्तों के लिए शिवत्व की ओर ले जाने वाला पथ है तथा योगी के लिए चित्त शुद्धि का उपाय है।

जीवन की अपने आप में कोई सार्थकता नहीं है। वह तो कोरा कागज है। हमारी लिखावट ही उसे सुंदर या असुन्दर बनाती है अर्थात् हमारे कर्म-अकर्म सद्विचार या दुष्ट विचारों से ही जीवन का निर्माण होता है हमारी दृष्टि, सोचने का ढंग तथा जीने की शैली ही जीवन के अर्थ को निर्धारित करती है। 

मनुष्य चाहे तो जीवन गीत भी हो सकता है, जहाँ पश्चिमी विचारकों की दृष्टि में जीवन अर्थहीन है, तो वहीं भारतीय मनीषियों की दृष्टि में जीवन सकल सिद्धियों - अभिसिद्धियों का द्वार है।

भारतीय मनीषियों के अनुसार मानव जीवन दुर्लभ है- देवताओं के लिए भी दुर्लभ; क्योंकि अग्नि देवता केवल अग्नि प्रदान कर सकते हैं जल नहीं आदि अतः कुविचार और मिथ्या दृष्टिकोण जहाँ अर्थ को भी व्यर्थ बना देता है, वहाँ ऊँची सोच तथा सम्यक् दृष्टिकोण व्यर्थता में भी सार्थकता को तलाश लेता है।

कर्महीन और सुविधावादी होना हमारे दुःखों का कारण है, हमारे कर्मों से जीवन विष भी हो सकता है और अमृत भी। हम अपने कर्मों से ही कालसर्प दोष और योग का निर्माण करते हैं। 

दुर्भावना दुर्भाग्य की प्रथम सीढ़ी है। छल-कपट व बेईमानी से जोड़ी गई संपदा के कारण ही हमारे बच्चे कालसर्प में जन्म लेते हैं और जीवन भर राहु-केतु और अन्य ग्रहों की अनिष्टता पाते हैं।

अशोक गुप्ता


 

धर्म जगत

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