 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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"हिंसा" वहाँ से आरंभ होती है, जहाँ दूसरों को पराया समझ कर अपने संकीर्ण स्वार्थ की सिद्धि के लिए अनीतिपूर्वक दूसरों को कष्ट पहुँचाया जाए, जिससे निर्दोषों को उत्पीड़न सहना पड़े जिसके साथ अनीति का आधार जुड़ा हुआ हो।
"हिंसा" "शारीरिक" आघात तक सीमित नहीं है, उसका "मानसिक" आघात भी एक पक्ष है। "अपमान", "तिरस्कार", "दुर्व्यवहार" भी "हिंसा" का ही एक रूप है, जिससे "मन" को, "सम्मान" को आघात लगे उसे भी "हिंसा" ही कहा जाएगा।
किसी को गलत परामर्श देकर कुमार्ग पर चलने के लिए सहमत करने से तत्काल न सही, परिणाम सामने आने पर तो कष्ट उठाना ही पड़ता है। इस प्रकार का जिसने कुचक्र रचा उसे भी "हिंसक" ही कहा जाएगा।
"हिंसा" का तात्पर्य है "अन्यायपूर्वक उत्पीड़न"। मात्र शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुंचाना "हिंसा" नहीं है। कुकर्मियों और कुमार्गगामियों को जब समझाने बुझाने से सही राह पर लाना संभव नहीं रहता, जब दुरात्माओं का अहंकार, दुराग्रह और आतंक चिर सीमा तक पहुँच जाता है तो वे दया, क्षमा को कर्ता की "दुर्बलता" मानते हैं और इस प्रकार के सौम्य व्यवहार को अपनी जीत मानकर अनीति पर और भी अधिक वेग के साथ उतरते हैं।
ऐसी दशा में "प्रताड़ना" के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रह जाता। "शठ" को "शठता" की भाषा ही समझ में आती है। उन्हें सुधारने के लिए जो "विवेकपूर्ण हिंसा" प्रयुक्त की जाती है उसे "अहिंसा" ही कहना चाहिए ।
पं.श्रीराम शर्मा आचार्य
 
 
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