आत्मादयो गगनगैं बलिभिर्बलक्तराः।
दुर्बलैर्दुर्बलाः ज्ञेया विपरीत शनैः फलम्॥
अर्थात कुण्डली में शनि की स्थिति अधिक विचारणीय है। इसका अशुभ होकर किसी भाव में उपस्थित होना उस भाव एवं राशि सम्बन्धित अंग में दुःख अर्थात् रोग उत्पन्न करेगा।
गोचर में भी शनि एक राशि में सर्वाधिक समय तक रहता है जिससे उस अंग-विशेष की कार्यशीलता में परिवर्तन आना रोग को न्योता देना है। कुछ विशेष योगों में शनि भिन्न-भिन्न रोग देता है।
आइये जानकारी सर्वाधिक पीड़ादायक वात रोग ..
1. छठा भाव रोग भाव है। जब इस भाव या भावेश से शनि का सम्बन्ध बनता है तो वात रोग होता है।
2. लग्नस्थ बृहस्पति पर सप्तमस्थ शनि की दृष्टि वात रोग कारक है।
3. त्रिकोण भावों में या सप्तम में मंगल हो व शनि सप्तम में हो तो गठिया होता है ।
4. शनि क्षीण चंद्र से द्वादश भाव में युति करे तो आर्थराइटिस होता है।
5. छठे भाव में शनि पैरों में कष्ट देता है।
6. शनि की राहु मंगल से युति एवं सूर्य छठे भाव में हो तो पैरों से विकल होता है।
7. छठे या आठवें भाव में शनि, सूर्य चंद्र से युति करे तो हाथों में वात विकार के कारण दर्द होता है।
8. शनि लग्ग्रस्थ शुक्र पर दृष्टि करे तो नितम्ब में कष्ट होता है।
9. द्वादश स्थान में मंगल शनि की युति वात रोग कारक है।
10. षष्ठेश व अष्टमेश की लग्न में शनि से युति वात रोग कारक है।
11. चंद्र एवं शनि की युति हो एवं शुभ ग्रहों की दृष्टि नहीं हो तो जातक को पैरों में कष्ट होता है।
बागाराम
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