द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य से अंगूठा लेना उचित था या अनुचित, फैलाए गए अनेक भ्रम.. दिनेश मालवीय

द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य से अंगूठा लेना उचित था या अनुचित, फैलाए गए अनेक भ्रम.. दिनेश मालवीय

 

हमारे शास्त्रों में अनेक ऐसे प्रसंग मिलते हैं, जिन्हें लेकर हमारी संस्कृति के विरोधियों ने बहुत भ्रम फैलाए हैं. उन्होंने हर उस व्यक्ति के बारे में अनर्गल बातें प्रचारित की हैं, जिन्हें हमारी संस्कृति ने महापुरुष या आदर्श माना है. इसी तरह ऐसे अनेक लोगों को महिमामंडित कर महान बताने की कोशिश की गयी, जिन्हें हमारे पूर्वजों ने महापुरुष नहीं माना. महाभारत तो कथाओं, उप-कथाओं, रूपकों और अद्भुत प्रसंगों की खदान है. इस महाकाव्य में “द्रोणाचार्य-एकलव्य” प्रसंग आता है. इसे लेकर बहुत सी इस तरह की बातें कही जाती रही हैं, जिससे यह कहा जा सके, कि हन्दू धर्म में निचली जातियों को शिक्षा आदि के अधिकार नहीं थे. गुरुजन नीची जाति के लोगों के साथ भेदभाव करते थे. अधिकतर लोग, विशेषकर युवा वर्ग, मूल ग्रंथों को नहीं पढ़ता. इनके विषय में लिखी गयी किसी पुस्तक या लेख के आधार पर वह अपनी राय बनाकर उसे ही जीवनभर सच मानता रहता है. वह इसलिए जो तथ्य हैं, उन्हें सामने लाना ज़रूरी है.  

 

यह प्रचारित किया गया है, कि गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को नीची जाति का होने के कारण शिक्षा देने से मना कर दिया. उसने कुरुवंश के राजकुमारों को दी जाने वाली शिक्षा को छिपकर देखा और द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसके सामने अभ्यास कर धनुर्विद्या में महारत हासिल की. द्रोणाचार्य को जब यह बात पता चली, तो उन्होंने गुरुदाक्षिणा  में उसका अंगूठा माँग लिया,ताकि वह वाण नहीं चला सके. दुष्प्रचार करने वालों द्वारा अंगूठा माँगने वाली बात तो बहुत जोर-शोर से बतायी जाती है, लेकिन यह बात छिपायी जाती है, कि द्रोणाचार्य ने उससे अंगूठा लेकर, उसकी लगन को देखते हुए, उसे बिना अंगूठे के उतनी ही योग्यता के साथ वाण कैसे चलाया जाता है, यह भी सिखाया था.   

 

हम “द्रोणाचार्य-एकलव्य” प्रसंग से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगे, ताकि स्थिति स्पष्ट हो सके. इस विषय में महाभारत के एक पाठ बहुत अलग तरह का विवरण मिलता है. इसीको ध्यान में रखकर इस प्रसंग की व्याख्या की गयी है. इसके अनुसार, एकलव्य किसी कथित नीची जाति का नहीं था. वह प्रयाग के पास ही स्थित श्रंगवेरपुर नामक विशाल राज्य का युवराज था. इस पर निषादराज हिरण्यधनु का राज्य था. एकलव्य उसीका पुत्र था. एक मान्यता के अनुसार एकलव्य श्रीकृष्ण के चाचा का पुत्र था, जिसे उन्होंने निषाद जाति के राजा को सौंप दिया था. उस समय श्रंगवेरपुर तत्कालीन अनेक बड़े राज्यों के समान शक्तिशाली था. निषाद नाम का समुदाय आज भी भारत में है. एकलव्य न तो भील था और न आदिवासी. महाभारत के रचयिता वेद व्यास भी एक निषाद माँ के पुत्र थे. निषाद जाति को आज भी बहुत पवित्र माना जाता है, क्योंकि निषादराज को भगवान् श्रीराम ने वनवास के दौरान गले लगाया था. केवट ने उनके चरण धोये थे. उसे गुरु वसिष्ठ ने भी गले लगाया था.

 

एकलव्य की धनुर्विद्या में लगन और दक्षता को देखते हुए उसके पिता उसे शिक्षा के द्रोणाचार्य के पास ले जाते हैं. एकलव्य ने उनसे धनुर्विद्या सिखाने की प्रार्थना की. लेकिन द्रोणाचार्य के सामने धर्मसंकट आ गया. उन्होंने भीष्म पितामह को वचन दिया था, कि वह केवल कौरव कुल के राजकुमारों को शिक्षा देंगे. वह हस्तिनापुर राज्य से इसके लिए अनुबंधित थे. लिहाजा, उन्होंने एकलव्य को शिक्षा देने में असमर्थता व्यक्त की. इस इनकार का कारण सिर्फ इतना था, कि द्रोणाचार्य वचन के बंधन में बंधे थे. उन्हें हस्तिनापुर राज्य से इसी बात का वेतन मिलता था, कि वह कुरु राजकुमारों को शिक्षा देंगे. वह अनुबंधित थे. ऐसे में वह किसी और को कैसे शिक्षा दे सकते थे ?

 

द्रोणाचार्य के इनकार करने के बाद एकलव्य का पिता तो वापस चला गया, लेकिन एकलव्य को द्रोणाचार्य के सेवक के रूप में उन्हीं के पास छोड़ गया. वह गुरुसेवा में लग गया. द्रोणाचार्य ने उसके लिए पास ही एक झोपड़ी बनवा दी. उसका काम इतना ही था, कि जब कुरुकुल के राजकुमार वाण चलायें, तो वह उन्हें उठाकर वापस उन्हें दे दे. एकलव्य लगनशील तो था ही, उसने गुरु द्वारा राजकुमारों को दी जाने वाली हर सीख को छिपकर सुना और ख़ाली समय में वन में जाकर अभ्यास करने लगा. एक दिन द्रोणाचार्य को यह बात पता चल गयी. उसे दुर्योधन ने अचूक निशाना लगाते हुए देखकर उसकी शिकायत गुरु द्रोणाचार्य से की. द्रोणाचार्य ने एकलव्य से चले जाने को कहा. लेकिन वह अपने महल वापस न जाकर एक आदिवासी बस्ती में ठहर गया.उसका परिचय पाकर आदिवासियों के सरदार ने उसे गुप्त रूप से धनुर्विद्या का अभ्यास करने की अनुमति दे दी. शायद इसी कारण उसे भील जनजाति का मान लिया गया.

 

इस मत के अनुसार द्रोणाचार्य और एकलव्य में संवाद भी हुआ. द्रोणाचार्य ने पूछा, किसके शिष्य हो? उसने कहा, गुरु द्रोणाचार्य का. गुरु ने कहा, मैंने तो तुम्हें कभी शिक्षा नहीं दी. वह बोला, लेकिन मैंने आपको गुरु माना है. द्रोणाचार्य ने पूछा, किसके पुत्र हो? उसने कहा, निषादराज का. द्रोणाचार्य ने पूछा, क्या वही निषादराज, जो जरासंध के सेनापति है. उसने कहा जी हाँ. द्रोणाचार्य ने पूछा, इतनी योग्यता लेकर तुम कहाँ जाओगे? उसने कहा, मैं अपने पिता के साथ जरासंध की सेना का नेतृत्व करूँगा. द्रोणाचार्य ने पूछा, क्या तुम जानते हो, कि जरासंध मानवता का शत्रु है? वह नर पिशाच ह? एकलव्य ने कहा जी हाँ मुझे पता है.इस सारे विवरण का विश्लेषण करने पर द्रोणाचार्य का एकलव्य को शिक्षा नहीं देने और गुरुदक्षिणा में उसका अंगूठा लिया जाना किसी लिहाज से गलत नहीं था.

 

इस तरह गुरु का निर्णय सही था. जब वह हस्तिनापुर राज्य के साथ अनुबंधित थे, कि वह सिर्फ कुरुकुल के राजकुमारों को शिक्षा देंगे, तो फिर वह एकलव्य को शिक्षा कैसे दे सकते थे? इसके अलावा, चोरी से सीखी हुयी विद्या को धर्मविरुद्ध माना जाता है. उसे मान्यता नहीं दी गयी है. कर्ण ने परशुरामजी से अपना अस्ली परिचय छिपाकर विद्या प्राप्त की थी. परशुरामजी को यह बात पता चलने कर उसे शाप दिया, कि जब उसे इस विद्या की सबसे ज्यादा ज़रूरत होगी, तब वह इसे भूल जाएगा. ऐसा ही हुआ भी. अर्जुन से युद्ध के समय वह गुरु के द्वारा सिखाये गए मंत्रों को भूल गया और दिव्यास्त्र प्रकट नहीं करा सका.  एकलव्य के साथ संवाद से द्रोणाचार्य को यह स्पष्ट हो गया, कि वह जरासंध जैसे आततायी के हित में इस विद्या का उपयोग करेगा. उसकी शिक्षा मानवता के हित में नहीं होगी.   इस लिहाज से भी द्रोणाचार्य का निर्णय उचित था. लेकिन एक वास्तविक गुरु होने के नाते उन्होंने एकलव्य की लगन देखते हुए, उसे बिना अंगूठे के वाण चलाना भी सिखा दिया. यह बात स्पष्ट हो गयी होगी, कि जिन लोगों द्वारा एकलव्य को पीड़ित-शोषित बताकर दुरु द्रोणाचार्य को अन्यायी बताया जाता रहा है, उनका अपना एक एजेण्डा है. आप अपने बच्चों को इस प्रसंग के सभी पहलुओं की जानकारी देकर, उन्हें सही बात बताएं, ताकि यह दुष्प्रचार अगली पीढ़ियों तक नहीं जा पाए.