मृत्यु को कैसे एक्सेप्ट करें ? हाउ टू एक्सेप्ट डेथ ? अतुल विनोद

इस दुनिया में एक समय में अनेक लोग मृत्यु के दरवाजे पर खड़े होते हैं। लेकिन मृत्यु को स्वीकार करना बहुत कठिन होता है। जिसकी सबसे ज्यादा स्वीकार्यता होनी चाहिए वही सबसे ज्यादा अस्वीकार होती है। रोज किसी न किसी को मरना होता है, और ऐसे लाखों लोग होते हैं जो मृत्यु की दहलीज पर पहुंचे हुए हैं।जिनकी मृत्यु करीब नहीं भी दिखाई दे रही है वह भी कभी भी कैसे भी मर सकते हैं। 

डेथ एक नेचुरल प्रोसेस है और इसे जिसने स्वीकार कर लिया जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई जीत ली। जैसे मनुष्य का स्थूल शरीर एक अवस्था से दूसरी अवस्था की तरफ बढ़ता है वैसे ही मनुष्य का सूक्ष्म शरीर भी एक शरीर से दूसरे शरीर को धारण करता है। लेकिन ना तो स्थूल शरीर की यात्रा अमर है नहीं सूक्ष्म शरीर की यात्रा अमर है। अमर है तो आत्मा की यात्रा, जीवात्मा की यात्रा अमर नहीं है, जीवात्मा की यात्रा परिवर्तनशील है। और एक दिन जीवात्मा को संपूर्ण रूप से नष्ट हो जाना होता है। जिस दिन जीवात्मा संपूर्ण रूप से विघटित हो जाता है उस दिन वह आत्म स्वरूप में स्थित हो जाता है। इसी को मुक्ति कहते हैं। पूरा विश्व ब्रह्म से ओतप्रोत है।अंदर भी वही है बाहर भी। जैसे समुद्र में डूबा हुआ घड़ा।

जल घड़े के अंदर भी है बाहर भी है। हमारे शरीर के अंदर भी ब्रम्ह है बाहर भी है। अंतर जल की अवस्था का है कहीं ब्रह्म रूपी तत्व वायु रूप में है कहीं जल रूप में है कहीं ठोस रूप में। बहुत अच्छी-अच्छी बातें भारतीय धर्म दर्शन में कही हैं। अकेला ही आता है अकेला ही जाएगा, खाली हाथ आता है खाली हाथ जाएगा।आप धन संपत्ति नहीं है, आप शरीर भी नहीं आप सुख दुख भी नहीं है, देह मरती है। जीवात्मा स्वरूप बदलता है।

शरीर मिलता है तो मिलते से ही धीरे-धीरे रिसने लगता है और मृत्यु की तरफ आगे बढ़ता है। इसलिए मृत्यु एक नेचुरल प्रोसेस है। इसलिए हमेशा डेथ को साथ लेकर चलना चाहिए। उससे डरने का कोई सब्जेक्ट नहीं है कोई विषय ही नहीं है। जब मृत्यु का भय खत्म हो जाता है तो फिर वो महोत्सव बन जाती है।  जैसे हम ट्रेन की यात्रा करते हैं। उस यात्रा का आनंद लेते हैं और उस ट्रेन को छोड़कर बाहर हो जाते हैं। उसी प्रकार से जीवात्मा इस देह रूपी ट्रेन में प्रवेश करती है यात्रा करती है और बाहर चली जाती है।  बचे रह जाते हैं तो उस यात्रा के अनुभव। हम हर दिन मरते हैं। हर प्राणी को प्रतिदिन मृत्यु प्राप्त होती है।

यह यात्रा ईश्वर की देन है इस यात्रा को आनंद से पूरा करना ही मनुष्य का धर्म है। इस यात्रा का अर्थ है ईश्वर प्राप्ति। उस तक पहुंचने के लिए  वही इसके जरिए हमें कुछ सिखाना चाहता है। वह अनुभव ही महत्वपूर्ण है जो इस यात्रा से मिलने वाला है। यात्रा में उपद्रव खड़े करना, यात्रा के दौरान चोरी करना, बेईमानी करना, अन्य यात्रियों से झगड़े करना, उस यात्रा को कठिन बना देगा और वह यात्रा कष्टदाई हो जाएगी। उसका अनुभव भी कष्टदायी होगा और आगे भी उसका फल भुगतना पड़ेगा। इसलिए इस शरीर के लिए इस शरीर के जरिए बेईमानी चोरी लालच झगड़े झांसे उत्पात करना अंत में बुरे अनुभव देकर जाएगा और फिर मृत्यु के समय कष्ट होगा,  क्योंकि मृत्यु के बाद उसे भुगतने की बारी आती है।