परमात्मा अनंत है इसलिए उस तक पहुंचने के साधन भी अनंत हैं

 

परमात्म ज्ञानी बताते हैं कि परमात्मा के तीन गुण हैं सत, चित, आनंद| 

सत- यानी सत्ता, अस्तित्व|

चित- यानी चेतना| 

आनंद- यानी ब्लिस, जॉय, परमानेंट हैप्पीनेस|


जिस स्वरूप की वजह से यह जन्म मरण होता है, जिसके निकल जाने से यह शरीर मृत हो जाता है, जिसके कारण इस शरीर का मूल्य है, उस स्वरूप को जान लेने से पर्मात्मिक सत, चित, आनंद प्रकट हो जाते हैं|

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योग क्या है? इसी “स्वरूप” को जानने का साधन| परमात्मा अनंत है इसलिए उस तक पहुंचने के साधन भी अनंत हैं| सूरज से निकलने वाली अनंत किरणें धरती तक पहुंचती है, अनंत किरणें में से किसी भी किरण को पकड़ लिया जाए तो सूरज तक पहुंचा जा सकता है|

प्राप्त क्यों नहीं होता:

जो अंतःकरण में विराजमान है वह मिलता क्यों नहीं? वास्तविक स्वरूप का ज्ञान क्यों नहीं होता? जो हर एक के हृदय में है फिर भी वह दिखता क्यों नहीं? अपनी आंखों से हम पूरी दुनिया को देखते हैं लेकिन खुद को नहीं देख पाते|

हम विज्ञान को जानते हैं, हम इंजीनियरिंग को जानते हैं, हम फिल्मों को देखते हैं हम टूरिस्ट प्लेस को देखते हैं, हम हिल स्टेशन को देखते हैं लेकिन अपने अंदर को क्यों नहीं देखते? जिंदगी भर हम बाहर की यात्रा करते हैं लेकिन अंदर की यात्रा क्यों नहीं करते?

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पूरी दुनिया को देख लिया लेकिन जो हमारे हृदय में बैठा हुआ परमेश्वर है, जो सबसे बड़ा हिल स्टेशन है, जो सबसे बड़ा टूरिस्ट प्लेस है, जो सबसे बड़ी फिल्म है, जो सबसे बड़ा दृश्य है, जो सबसे बड़ा हिमालय है उसे देखने की दृष्टि कहां से लाएं? सद्गुरु हमें अपने अंदर देखने की दृष्टि प्रदान करता है| सद्गुरु वह है जो एक पल में हमारे अंदर की उस शक्ति जागृत कर दे जिसके पास अंदर उस पर को देखने की दृष्टि है| 

हमारी दृष्टि जब हमारे अंदर विराजमान परमेश्वर की तरफ हो जाती है, तब वह परिलक्षित हो जाता है| दुनिया कहती है कि वह अंतःकरण में विराजमान है लेकिन अंतःकरण में कैसे पहुंचा जाए? 

यह हमारे अंदर मौजूद क्रिया शक्ति ही कर सकती है| उस क्रिया शक्ति को कुंडलिनी, आत्म शक्ति, देवात्म शक्ति, परमात्म शक्ति, कहते हैं| इस क्रिया शक्ति को जो जागृत कर दे वही सद्गुरु है|

परमात्मा सर्वरूप है:

जिस रूप में उसे चाहो उसी रूप में वो सामने आ जाता है| परमात्मा को हम चाहना तो शुरू करें| परमात्मा को देखने की कोशिश तो करें| बाहर की दौड़ बंद तो करें| बाहर की इच्छाओं को कम तो करें| जितनी दृढ़ इच्छा हमारी बाहर की चीजों को पाने की है उतनी ही यदि परमात्मा को पाने की हो जाए तो हम अंतर्मुखी हो जाएंगे| तब हमे हमारी अंतर शक्ति के जागरण का मार्ग भी मिल जाएगा| 

जब हमारे पास अंतर यात्रा की शक्ति होती है, तब हम उसे बाहर के कामों में खर्च कर रहे होते हैं| जब वह शक्ति क्षीण हो जाती है तब हमें अंदर की यात्रा की याद आती है लेकिन तब तक हम थक चुके होते हैं| जवानी ही वो समय है जब अंतर की यात्रा होनी चाहिए|

यह बात अपने मन से निकाल दें कि परमात्मा से मिलना मुश्किल है, यह विचार हमारी यात्रा में बाधा है, जो सबसे करीब है उससे मिलना भी उतना ही आसान है| लगन लगने से सब आसान हो जाता है| 

परमात्मा की तरफ निगाह तो हो उसकी तरह दृष्टि तो फेरें जो स्वरुप अच्छा लगे उसे निहारें  स्वरुप अच्छा न लगे तो अशरीरी रूप में उसका ध्यान करें|

पहले कल्पना का भगवान दिखता है लेकिन एक दिन वो यथार्थ हो जाता है| 
 
अतुल विनोद