अतीत के घटनाक्रम को वर्तमान संदर्भो से जोड़ना नासमझी या शरारत.. दिनेश मालवीय

अतीत के घटनाक्रम को वर्तमान संदर्भो से जोड़ना नासमझी या शरारत.. दिनेश मालवीय

 

मानवता का ज्ञात-अज्ञात इतिहास हज़ारों साल पुराना है. इसमें लाखों घटनाएँ घटीं. सभी घटनाओं की समय-समय पर उनकी तरह-तरह से व्याख्याएं हुयीं. ज्ञान पहले तो मौखिक ही था. लेखन तो बहुत बाद में  शुरू हुआ. जानकारों का मानना है, कि वेदों लेखन प्रारंभ होने से पहले वे  हज़ारों साल तक मौखिक रूप से ही एक-दूसरे तक संप्रेषित होते रहे. इसीलिए वेदों को श्रुति कहा जाता है.

 

जब लेखन की शुरूवात हुयी,तो हज़ारों पुस्तकें और ग्रंथ लिखे गये. ये सभी उस माय की देश-काल और परिस्थितियों पर आधारित थे. उनमें समय-समय पर तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन-परिवर्धन-संशोधन होते रहे. वर्तमान की आवश्यकताओं के अनुसार ग्रंथों में अनेक नयी बातें जोड़ी गयीं और अनेक बातों को उनसे हटाया गया. इसके अलावा, मूल ग्रंथों में नासमझ या शरारती तत्वों द्वारा कई उलटफेर किये गए. उनमें बहुत-सी ऐसी बातें जोड़ कर उन्हें मूल लेखक के सिर मढ़ दिया गया, जो उसका कहीं से भी उद्देश्य नहीं था.
 

 

अनेक बार इस विषय में कुछ लिखने का विचार आया, लेकिन विषय बहुत गंभीर होने के कारण लिखना टलता रहा. परन्तु आज फेसबुक पर ‘मनुस्मृति’ के बारे में एक पोस्ट देखकर ऐसा लगा, कि इस सम्बन्ध में कुछ चर्चा का मन हुआ. इस पोस्ट में ‘मनुस्मृति’ के हवाले से कुछ ऐसे श्लोक सेलेक्टिव तरीके से उद्धृत किये गये, जिनमें स्त्री और कथित शूद्रों के प्रति अपमानजनक बातें कही गयी हैं. पोस्ट करने वाले का इरादा समझना बहुत कठिन नहीं है. पहली बात यह मन में आयी कि, क्या ‘मनुस्मृति’ सिर्फ स्त्रियों और कथित शूद्रों को अपमानित करने के लिए लिखी गयी? या यही इस ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय है? क्या ‘मनुस्मृति’ में इसके अलावा और कुछ बातें नहीं लिखी गयी हैं ?

 

 

इस ग्रंथ को पढ़कर सात्विक और सुखद जीवन के अनेक सूत्र मिलते हैं. क्या इसी ग्रंथ में यह नहीं लिखा गया है कि, “जिस घर में स्त्री की पूजा (सम्मान) होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं? क्या इसी ग्रंथ में यह नहीं लिखा गया है कि, “जन्म से सभी शूद्र होते हैं, संस्कारों से कोई ब्राह्मण बन जाता है”?  क्या इसी ग्रंथ में यह नहीं लिखा है कि, ‘ जिस घर के आँगन में कन्या की पायल की रुनझुन नहीं होती वह शमशान के समान है”? और भी अनेक बातें ऎसी हैं, जो मनुष्य को एक अच्छा जीवन जीने में मददगार हो सकती हैं. यह बात सहज ही विचार में आती है कि इतनी अच्छी बातें लिखने वाला ग्रंथकार स्त्रियों और कथित शूद्रों के बारे में अपमानजनक या अन्यायपूर्ण बातें कैसे लिख सकता है ?

 

 

इसके दो कारण समझ में आते हैं. पहला यह कि मूल ग्रंथ में ये बातें लिखी ही नहीं गयी हों. शरारती तत्वों ने बाद में सनातन धर्म को बदनाम करने और इसे मानने वालों को अपने धर्म से विमुख करने के लिए इन बातों को जोड़ दिया हो. आखिर इस सहिष्णु और उदारवादी धर्म के शत्रु कभी किसी भी काल में कम तो नहीं रहे. दूसरा कारण, मनु ने जीवन जीने की सुचारु व्यवस्था के लिए एक संहिता निर्धारित की. यह उस समय,यानी हज़ारों साल पहले की परिस्थितियों के अनुसार थीं. इस तरह की व्यवस्थाएँ हर धर्म में हैं. उनमें समय के अनुरूप बदलाव होते रहते हैं. सदियों पहले जो नियम और विधियाँ निर्धारित की गयी थीं, उनमें से आज बहुत सारी अप्रासंगिक हो गयी हैं. इसलिए इनकी व्याख्या या विश्लेषण आज के संदर्भ में करना किसी भी तरह उचित नहीं है.

 

 

अब पोस्ट डालने वाले की मानसिकता पर आते हैं. पहली बात तो, इस पोस्ट को डालने में कोई सदाशयता नहीं दिखाई देती. आज जब समाज में पुरानी अप्रसांगिक बातों को भूलकर नयी शुरूआत करने की ज़रुरत महसूस की जा रही है, तब हजारों साल पुरानी किताबों में चुनिन्दा अंशों को संदर्भ से बाहर प्रस्तुत करना नासमझी कम, शारारतपूर्ण अधिक लगता है. फिर यह भी समझा जाना चाहिए, कि इन बातों पर आज का हिन्दू समाज कितना अमल कर रहा है? हिन्दू संस्कृति में ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम’ मानने की सोच ही नहीं है. हमारे ही देश में कहा गया है कि, ‘पुराण मिथ्येव न साधु सर्वं’, यानी जो कुछ भी पुराना है, वह सब अच्छा नहीं है.

 

 

इसके अतिरिक्त एक बात और मन में आना स्वाभाविक है. आखिर इस तरह की पोस्ट्स सिर्फ हिन्दू ग्रंथों और हिन्दू संस्कृति को लेकर ही क्यों डाली जाती हैं? किसी ने भी अगर थोड़ा भी व्यापक अध्ययन किया हो, तो उसे स्पष्ट हो जाएगा कि, स्त्री को लेकर सभी धर्मों में बहुत सी आपत्तिजनक बातें देखने को मिलती हैं. अन्य किसी भी धर्म के बारे में इस तरह की पोस्ट कभी  पढ़ने को नहीं मिलती. कोई भी धर्म इस तरह की सोच से  अछूता नहीं है. हर जगह किसी न किसी आधार पर कुछ भेदभाव और विसंगतियां मौजूद हैं.

 

 

यह बात सही है, कि मध्यकाल में कथित शूद्रों के साथ कुछ लोगों ने गलत व्यवहार किया. इसके कारण और संदर्भ क्या थे, यह शोध का विषय है. लेकिन इसे कौन गलत नहीं मानता? गलत काम करने वालों ने अपने गलत व्यवहार को सही ठहराने के लिए उन्होंने प्राचीन ग्रंथों की बातों को अपने हिसाब से बहुत तोड़ा-मरोड़ा भी. इसलिए मूल दर्शन को समझने की ज़रुरत है. हिन्दुओं का मूल दर्शन तो यह कहता है, कि मनुष्य ही नहीं जीव-चराचर में एक ही चेतना व्याप्त है. जन्म से कोई बड़ा या छोटा नहीं होता. व्यक्ति अपने आचरण और कर्मों से बड़ा होता है.

 

 

क्या इसी हिन्दू समाज ने रैदास, कबीर और अनेक कथित निचली जाति के सदाचारी लोगों को संत का दर्जा देकर उन्हें पूरा सम्मान नहीं दिया? क्या मेवाड़ की महारानी मीराबाई ने रैदास को अपना गुरु नहीं बनाया? प्राचीनकाल में भी सदन कसाई और अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जिनके अच्छे आचरण के कारण समाज ने उन्हें पूरा सम्मान दिया. ऐसे भी अनेक उदाहरण मिलते हैं, कि उच्च कुल में जन्मे व्यक्ति को भी उसके दुराचरण के कारण कभी सम्मान नहीं मिला. रावण और हिरण्यकश्यप आदि के उदाहरण हमारे सामने हैं.

 

 

कुल मिलाकर यह विचार करने की बात है, कि कुछ लोग आज उन बातों को बार-बार क्यों प्रमुखता से उजागर कर रहे हैं, जिन्हें याद नहीं रखा जा चाहिए? नयी पीढ़ी के मन में विष के बीज क्यों बोये जा रहा है? किसी समय में यदि कुछ लोगों ने गलत किया है, तो उसके लिए पूरे समाज और संस्कृति को जिम्मेदार क्यों ठहराया जाए? इसके पीछे छिपा एजेंडा साफ़ नज़र आता है. वर्तमान में भी अनेक ऐसे लोग हैं, जो अपने धर्मग्रंथ की गलत व्याख्या कर पूरी दुनिया में आतंक के पर्याय बने हुए हैं. ग्रंथों में बहुत कुछ लिखा है, लेकिन पढ़ने वाला उसका क्या अर्थ लगाता है, इस पर उसका आचरण बहुत कुछ निर्भर करता है.

 

 

हो सकता है, कि ‘मनुस्मृति’ की वर्तमान में उपलब्ध प्रति में बहुत-सी ऎसी बातें हों, जो आज के संदर्भ में उपयुक्त नहीं हैं. मूल ग्रंथ तो किसी के पास शायद ही उपलब्ध हो. इसके अलावा इस ग्रंथ को आधार मानकर कितने हिन्दू अपना जीवन जी रहे हैं? ऐसे लोगों की संख्या बहुत नहीं है. ऐसी स्थति में इस प्रकार की पोस्ट सोशल मीडिया पर डालने वाला पूरे समाज का शत्रु है, समाज की शान्ति का शत्रु है, सद्भाव का शत्रु है, बल्कि मैं तो कहूँगा कि सम्पूर्ण मानव समाज का शत्रु है. उसे ग्रंथों में लिखी अच्छी बातों पर भी पोस्ट डालना चाहिए. पढ़ने वालों को इसके पीछे नीयत को समझकर उसका तिरस्कार करना चाहिए. यही आज का युग-धर्म और आवश्यकता है.