सनातन धर्म के प्रमुख ग्रंथ...दिनेश मालवीय

सनातन धर्म के प्रमुख ग्रंथ...दिनेश मालवीय

 

सनातन धर्म बहुत व्यापक और प्राचीन है. इसका न कोई आदि है और न अंत. सनातन धर्म  इसके ग्रंथो की संख्या अपार है. किसी और धर्म के इतने ग्रंथ संसार में कहीं भी उपलब्ध नहीं हैं. अज्ञानी विदेशी धर्मान्धों ने बड़ी संख्या में ग्रंथो को नष्ट कर दिया. कुछ ग्रंथ प्रकृति के प्रकोप के शिकार हो गये. साल-सम्हाल के अभाव में अनेक ग्रंथों को दीमक चट कर गयीं. इसके बावजूद बड़ी संख्या में ग्रंथ आज भी सनातनियों के घरों में मौजूद हैं. इस आलेख में सनातन धर्म के मुख्य ग्रंथों का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है. सनातन धर्म के आधार ग्रंथों में वेद, वेदांग, उपवेद, इतिहास और पुराण, स्मृति, दर्शन, निबंध और आगम ग्रंथ शामिल हैं.

 

वेद

 

वेद अनादि हैं. इनका किसी ने निर्माण नहीं किया है. इसलिए इन्हें अपौरुषेय कहा जाता है. वेद शाश्वत ईश्वरीय ज्ञान का अक्षय भण्डार हैं. सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर ने वेदों को ब्रह्मा के ह्रदय में प्रकट किया. चारों वेदों का ज्ञान चार ऋषियों के ह्रदय में प्रकट हुआ. ऋग्वेद का ज्ञान अग्नि ऋषि के ह्रदय में,यजुर्वेद का ज्ञान वायु ऋषि,सामवेद का ज्ञान आदित्य ऋषि और अथर्ववेद का ज्ञान अंगिरा ऋषि के ह्रदय में प्रकट हुआ.  एक-दूसरे से सुनकर वैदिक मंत्रों का ज्ञान होता है. इसी कारण वेदमंत्रों को श्रुति कहा गया है. ध्यान और तपस्या से प्राप्त चेतना की परम अवस्था अथवा समाधि में जिस ऋषि के ह्रदय में जिस मंत्र का अर्थ-दर्शन या प्रकाशन होता है, उस ऋषि को उस मंत्र का ऋषि कहा जाता है. इसीलिए इन ऋषियों को मंत्रदृष्टा कहा जाता है.

 

वेद चार हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्व वेद. वास्तव में वेद एक ही है, लेकिन महर्षि वेदव्यास ने विषयवार अध्ययन की सुविधा के लिए ये इनके चार भाग कर दिये. वेद के छह भाग हैं- मंत्रसंहिता, ब्राहमण ग्रंथ, आरण्यक, सूत्रग्रंथ, प्रतिशाख्य और अनुक्रमणी.

 

ऋग्वेद- इसे विश्व का सबसे पहला ग्रंथ होने का गौरव प्राप्त है. यूनेस्को ने इसे संसार का पहला ग्रंथ माना है. यह वेदों का ज्ञान भाग है. इसमें श्रष्टि में पाए जाने वाले उन तत्वों का विवेजन है, जिनसे श्रृष्टि का निर्माण हुआ है. यह तत्वज्ञान विषयक है. इसमें कुल 10 हज़ार 552 मंत्र हैं. ऋग्वेद में विशेष रूप से अनेक औषधियों का विवरण है, इसलिए आयुर्वेद को इसका उपवेद कहा जाता है. ऋग्वेद में मुख्य रूप से एक ईश्वर की उपासना, आश्रम मर्यादा, दान, धन-समृद्धि, परोपकार, राजनीति, कृषि, व्यापार, वीरता, न्याय, श्रद्धा, रोगमुक्ति, दीर्घायु के उपाय, संगठन आदि विषयों का वर्णन हैं.

 

यजुर्वेद- इस कर्मप्रधान वेद में 1175 मंत्र हैं, जिनमें  पुरुषार्थ और कर्म का विवेचन है. यजुर्वेद में यह बताया गया है, कि श्रृष्टि रचना के तत्व किस तरह कार्य करके इसकी रचना करते हैं. यह भी बताया गया है, कि मनुष्य को कैसे कर्म करना चाहिए. इसमें कर्मकाण्डों कि प्रधानता है. विविध लोककल्याणकारी यज्ञों का भी इसमें वर्णन है. इसका उपवेद धनुर्वेद है. इसका अर्थ सिर्फ धनुर्वेद तक सीमित नहीं है. इसमें विविध प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की विद्या शामिल है. धनुर्वेद में वाण का विवरण है, जो तेज गति वाला और भयंकर आवाज करते हुए शत्रु की सेना का विनाश करता है. इसे आज की भाषा में बम, मिसाइल आदि के रूप में समझा जा सकता है.

 

सामवेद- सामवेद में विभिन्न कलाओं का वर्णन है. इसमें ईश्वर की आराधना और भक्ति की प्रधानता है. इसी कारण भक्तों और योगियों का यह प्रिय ग्रंथ है. भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, कि वेदों में मैं सामवेद हूँ. सामवेद का उपवेद गान्धर्व वेद है, जो छंद और स्वर तथा गायन के लिए प्रसिद्ध है. इसके मंत्रों की संख्या 1875 है, जिनमें से अधिकतर ईश्वर की भक्ति से ओतप्रोत हैं.

 

अथर्ववेद- यह अर्थ, धन, वैभव आदि की विवेचना करता है. इसे वेद का विज्ञान काण्ड कहा जाता है. इसमें शरीर विज्ञानं,आत्मविज्ञान, ब्रहम विज्ञान, समाज विज्ञान, औषध विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान, भू-विज्ञान का विशद वर्णन है. इस वेद में कुल 5 हज़ार 987 मंत्र हैं. इसमें अनेक अद्भुत औषधियों के नाम तथा विविध रोगों के निवारण में इनके उपयोग के बारे में भी बताया गया है.

 

ब्राह्मण ग्रंथ- सनातन धर्म में ब्राह्मण ग्रंथ बहुत महत्वपूर्ण हैं. इनमें बतलाया गया है कि वेदमंत्रों का यज्ञ में कैसे उपयोग हो. ऋग्वेद के ब्राह्मण ग्रंथों में ऐतरेय ब्राह्मण और शांखायन ब्राह्मण शामिल हैं. कृष्ण यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रंथों में तैत्तरीय ब्राह्मण और तैत्तरीय संहिता का मध्यवर्ती ब्राह्मण शामिल हैं. शुक्लयजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रंथों में शतपथ ब्राह्मण है. सामवेद के ब्राह्मण ग्रंथों में तांड्य (पंचविश) ब्राह्मण,षडविंश ब्राह्मण, संविधान ब्राह्मण, वंशब्राह्मण, संहितोपनिषद ब्राह्मण, जैनिनीय ब्राह्मण और जैमिनीय उपनिषद-ब्राह्मण शामिल हैं. अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रंथ गोपथब्राह्मण है.

 

आरण्यक ग्रंथ- ये वेदों का गद्य वाला खंड है. इनमें दर्शन और ज्ञान की बातें हैं. इनका अध्ययन अरण्य यानी वनों में किया जाता था,इसीलिए इनका नाम आरण्यक ग्रंथ पड़ा. इनका मुख्य विषय यज्ञ अनुष्ठान न होकर अनुष्ठानों की आध्यात्मिक मीमांसा है. ब्राह्मण ग्रंथों की तुलना में इनका आध्यात्मिक महत्त्व अधिक है. प्रमुख आरण्यक ग्रंथ हैं- ऐतरेय आरण्यक, शांखायन आरण्यक, तैतिरीय आरण्यक, बृहदारण्यक और तावलकर आरण्यक.

 

उपनिषद- वेदों को सहज और सरल रूप से समझने तथा समझाने के लिए प्राचीन ऋषियों ने उपनिषदों की रचना की. इनमें वेदों का निचोड़ है. इन्हें वेदांत भी कहा जाता है. गीता और ब्रह्मसूत्र के आधार भी उपनिषद ही हैं. ये अध्यात्म का महासागर हैं.  उपनिषदों में ईश्वर और उसकी श्रृष्टि कि सुंदरता का ऐसा अद्भुत और अलौकिक वर्णन है, जिसे आत्मसात करके पूरा विश्व ईश्वर की दिव्य कृति दिखने लगता है. उपनिषदों को भारत ही नहीं बल्कि विश्व के महानतम विचारकों और ऋषितुल्य विभूतियों ने मानव के चिंतन की सर्वोच्च अवस्था कि अभिव्यक्ति माना है.

 

महान दार्शनिक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा है,कि उपनिषद मनुष्य के चिन्तन की पराकाष्टा हैं. इसके आगे कोई चिन्तन संभव ही नहीं है. शाहजहाँ के पुत्र दाराशिकोह,अलबरूनी,शोपेनहोवर,इमर्सन, मेक्समूलर,प्रोफ़ेसर ह्यूम, प्रोफ़ेसर जी. आर्क, एनीबेसेंट, बेवर आदि विदेशी विद्वानों ने उपनिषदों को चिन्तन और दर्शन का सर्वोच्च शिखर माना है.  दाराशिकोह ने उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद किया. उपनिषदों कि कुल संख्या 108 है. ऋग्वेद के 10 उपनिषद हैं, शुक्ल यजुर्वेद के 19, कृष्ण यजुर्वेद के 32, सामवेद के 16 और अथर्ववेद के 31 उपनिषद हैं. उपनिषदों का मुख्य उद्देश्य मानव को आत्मतत्व और ब्रह्मज्ञान से अवगत कराना है,जो उसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्त कर मोक्ष प्राप्त करने में सहायक है.

 

इतिहास- इतिहास-पुराणों में ही वेदों के अर्थ की पूरी विवेचना की गयी है. इसलिए इन पर विचार किये बिना वेदों को सही-सही समझा जाना कठिन है. इसी कारण इतिहास-पुराणों को वेद का उपांग कहा जाता है. महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित “रामायण” और वेदव्यास द्वारा रचित “महाभारत” मुख्य इतिहास ग्रंथ हैं. हरिवंश पुराण महाभारत का ही परिशिष्ट है, इसलिए इसे भी इतिहास माना जाता है. अध्यात्म रामायण और  योगवाशिष्ट को भी इतिहास ग्रंथों की श्रेणी में रखा गया है.

 

पुराणों की संख्या 18 है. पुराणों में वेदों के सभी विषयों का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है.  इनमें ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण,विश्नुपुरण, शिवपुराण-वायुपुराण, श्रीबद्भागवतपुराण, नारदीयपुराण, मार्कंडेयपुराण, अग्निपुराण, भविष्यपुराण, ब्रहमवैवर्तपुराण, लिंगपुराण, वराहपुराण, स्कन्दपुराण, वामनपुराण, कूर्मपुराण, मत्स्यपुराण, गरुणपुराण, और ब्रह्माण्डपुराण शामिल हैं. 

 

दर्शन- सनातन धर्म में 6 दर्शन हैं, जिनमें श्रृष्टि तथा जीव के जन्म और मृत्यु के कार तथा गति पर विचार किया गया है. ये इन दर्शनों में वैशेषिक, सांख्य, योग, न्याय, पूर्वमीमांसा और उत्तर मीमांसा शामिल हैं.  इनके रचयिता क्रमशः महर्षि कणाद, महर्षि गौतम, महर्षि कपिल, महर्षि पतंजलि, महर्षि जैमिनी और महर्षि वेदव्यास हैं. महर्षि कणाद अपना पेट भरने के लिए खेतों से अन्नकण बीन कर खाते थे, इसलिए इनका नाम कणाद पड़ा. इनका मुख्य विषय ‘परमाणु वाद’ है. उन्होंने सिद्ध किया, कि विभिन्न वस्तुएं परमाणुओं के संयोग से बनीं हैं. परमाणुओं की अपनी अलग-अलग विशेषताएं होती हैं, जिन्हें ‘विशेष’ कहा जाता है. इसीलिए उनके दर्शन को ‘वैशेषिक दर्शन’ कहा गया. इस ग्रंथ के कुल दस अध्यायों में 369 सूत्र हैं.

 

महर्षि गौतम के न्याय दर्शन के अनुसार जिसके द्वारा किसी प्रतिपाद्य विषय की सिद्धि की जा सके, अर्थ किसी निश्चित सिद्धांत पर पहुँचा जा सके, उसे ‘न्याय’ कहते हैं. इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय ’प्रमाण’ है. इसके सूत्रों की संख्या 538 है. कपिल मुनि के सांख्य दर्शन को सबसे प्राचीन माना जाता है. उनका महत्त्व इसी बात से स्पष्ट हो जाता है, कि गीता में भगवान् कृष्ण ने कहा है कि ‘सिद्धों में मैं कपिल हूँ’.सांख्य शब्द का अर्थ है ज्ञान. लिहाजा यह दर्शन ज्ञान-प्रधान है. इस दर्शन में श्रृष्टि की रचना प्रक्रिया का वैज्ञानिक वेवेचन है. सांख्य दर्शन में 25 तत्वों का सम्यक ज्ञान कराया गया है. इन तत्वों के सम्यक ज्ञान से मनुष्य दुखों से छुटकारा पा जाता है. इसमें पुरुष और प्रकृति कि दो सत्ताएं मानी गयीं हैं.

 

महर्षि पतंजलि का योगदर्शन मनुष्य को अपने वास्तविक चेतन रूप से अवगत कराता है. यह बताता है, कि मनुष्य की आत्मा चेतन है,लेकिन अज्ञानवश मानव ने अपने को जड़ शरीर मान लिया है,जो जड़ प्रकृति से निर्मित है. यही उसके दुखों,रोगों तथा शोक आदि का कारण है. इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए उन्होंने जिस विधि का प्रतिपादन किया है उसे ‘योग’ कहते हैं. योग मार्ग सिर्फ ईश्वर प्राप्ति का नहीं, बल्कि जीवन को अनुशासित करने का मार्ग है. योग साधना के आठ अंग बताये गये हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि. इनमें प्रथम तीन बाहरी और अंतिम तेन आंतरिक साधन हैं. इसमें कुल 195 सूत्र हैं.

 

महर्षि जैमिनी के मीमांसा दर्शन का मुख्य विषय धर्म है. यह अन्य पांच दर्शनों से आकार में सबसे बड़ा है, जिसमें  2 हज़ार 731 सूत्र हैं. इसके अनुसार धर्म ही मनुष्य को मनुष्यता देता है और इसीसे वह पशुत्व से ऊपर उठता है. धर्म का मुख्य आधार कर्म है. कर्म दो प्रकार के होते हैं- इहलौकिक और पारलौकिक. इहलौकिक कर्म से जीवन सुखमय बनता है और पारलौकिक कर्म से मनुष्य को स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है.  

 

स्मृति- हिन्दू धर्म तथा हिन्दू समाज का संचालन मुख्य रूप से स्मृतियों के आधार पर ही होता है. स्मृतियों में अर्थ,धर्म,काम और मोक्ष,इन चारों पुरुषार्थों का विवेचन है. इनमें वर्ण-व्यवस्था, अर्थ-व्यवस्था, वर्णाश्रम-व्यवस्था, विशेष अवसरों के कर्म, प्रायश्चित, शासन-विधान,दंड-व्यवस्था आदि का वरदान है. वर्तमान में लगभग सौ स्मृतियाँ उपलब्ध हैं. इनमें से प्रमुख रूप से मनु, याज्ञवल्क्य, अत्रि, विष्णु, हरीत, अंगिरस, यम, आपस्तंब, संवरत, कात्याय, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शंख, लिखित, दक्ष, गौतम, शातातप, वशिष्ट और प्रजापति शामिल हैं.

 

निबंध ग्रंथ- ये भी एक प्रकार के स्मृति-ग्रंथ हैं,जिनकी रचना मध्यकाल में हुयी. लेकिन ये स्वतंत्र ग्रंथ नहीं हैं. स्मृतियों और पुराणों में धर्माचरण के जो निर्देश हैं,उन्हीं का इनमे विस्तृत संकलन है. उपरोक्त ग्रंथों में जो बातें स्पष्ट नहीं हैं, निबंधकारों ने उन्हें विस्तार से प्रमाण देकर स्पष्ट किया है.

 

आगम ग्रंथ- वेदों से लेकर निबंध ग्रंथों तक की परंपरा को ‘निगम’ और इसीके समान जो दूसरी अनादि परंपरा है उसे ‘आगम’ कहा जाता है. आगम के दो भाग हैं- दक्षिणागम और वामागम. सनातन धर्म में दोनों को प्रमाण माना जाता है. आगम-शास्त्र का विषय उपासना है. वैष्णवागम में देवता के स्वरूप, गुण, कर्म, उनके मंत्रों का उच्चार, ध्यान, पूजन विधि का विवेचन है. शैवागम में भगवान् शंकर के मुख से 28 तंत्र प्रकट हुए हैं. उपतंत्रों को मिलकर इनकी संख्या 208 होती है. इनमें 64 प्रमुख हैं. शाक्तागम में सात्विक ग्रंथों को तंत्र या आगम, राजस को यामल तथा तामस को डामर कहा जाता है. असुरों की परम्परा का मुख्य शास्त्र वामागम है. शाक्तागम में 64 ग्रंथ मुख्य माने गये हैं.  इसके अलावा और भी असंख्य ग्रंथ हैं, जिनका अपने-सपने संदर्भ में सीमित महत्त्व है.