संन्यासी के प्रति समाज का कर्तव्य, सन्यासियों के पथभ्रष्ट होने में समाज कितना ज़िम्मेदार.. दिनेश मालवीय

संन्यासी के प्रति समाज का कर्तव्य, सन्यासियों के पथभ्रष्ट होने में समाज कितना ज़िम्मेदार.. दिनेश मालवीय

 

सनातन हिन्दू धर्म में सन्यासी या संत को सबसे ऊँचा स्थान दिया गया है. संन्यास लेने वाला व्यक्ति अपने जीवन को सिर्फ ईश्वर की प्रप्ति के लिए समर्पित करता है. उसके द्वारा किये गये सद्कर्मों और तपस्या से प्राप्त शक्तियों से समाज को भी परोक्ष लाभ मिल जाता है, लेकिन उसका मूल उद्देश्य ईश्वर प्राप्ति ही होता है. वैसे तो सन्यासी सभी कर्मों से मुक्त होते हैं, लेकिन अनेक संन्यासी कर्म को स्वरूप से नहीं त्यागते. वे निष्काम भाव से ऐसे कर्म करते रहते हैं, जिनसे समाज का कल्याण हो. लोग सदमार्ग पर चलने की ओर प्रेरित हों. इसके बदले समाज भी उनकी सेवा करता है और उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखता है. लेकिन सन्यासी-संत को सुख-सुविधाएं देने में समाज के लोग विवेक से काम नहीं लेते. वे इस बात को भूल जाते है, कि संन्यासी संसार की सुविधाओं को त्यागकर वैराग्य के पथ पर आया है. उसे सुविधा इस तरह दी जानी चाहिए, कि सन्यासी फिर से सुविधाभोगी बनने की ओर प्रवृत्त नहीं हो. भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमदभगवतगीता में कहा है, कि हज़ारों लोग मुझे प्राप्त करने के मार्ग पर चलते हैं, लेकिन कोई विरला ही मुझ तक पहुँच पाता है. मार्ग में वह माया के जाल में उलझ जाता है. इस बात का ध्यान रखते हुए ही, समाज को सन्यासी को सुविधाएं देनी चाहिए. पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए, कि माया के जाल से बचने के लिए संन्यासी के प्रयास सफल हों.  

 

हाल ही में “डेरा सच्चा सौदा” के बाबा राम रहीम को अदालत ने हत्या का दोषी का आरोपी ठहरा कर आजीवन कारावास की सज़ा दी है.  ऐसा कैसे हुआ, कि कोई संत हत्यारा हो गया? इस बाबा के अनेक घृणित कारनामे प्रकाश में आ चुके हैं. उसके ही नहीं, अनेक कथित संतों के कुकर्म सामने आने पर वे कलंकित हो गये हैं. अनेक तो जेल में हैं. राम रहीम जिस तरह का शाही जीवन जीता था, यह किसीसे छिपा नहीं रहा. उसने तो अपने जीवन पर एक फिल्म तक बना डाली  थी, जिसमें उसने स्वयं ही अभिनय किया था और खुद को भगवान् के रूप में पेश किया था. इस फिल्म में वह ऐसी फूहड़ हरकतें करता हुआ दिखा था, जो किसी भी तरह संत के लिए उचित नहीं हैं. लेकिन लगता है, कि हमेशा से ऐसा नहीं रहा होगा. डेरा सच्चा सौदा जब बना होगा, तब उसने वास्तव में समाज को सही राह दिखाई होगी. अन्यथा लोग उसकी ओर आकर्षित क्यों होते? उन्हें कुछ तो ऐसा प्राप्त हुआ होगा, जिसकी उनके मन में लालसा थी. लेकिन जैसे-जैसे उसके अनुयाइयों ने सुख-सुविधाएं देना शुरू किया होगा, वैसे-वैसे वह रास्ते से भटकता चला गया. उसका आश्रम पंच सितारा होटल जैसा बन गया. सैंकड़ों सेवक-सेविकाएँ  हो गये. वह किसी राजा-नवाब की तरह ऐयाशी का जीवन जीने लगा. इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था. संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हुआ, जिसे प्रभुता पाकर मद नहीं हुआ हो.

 

ऐसा अनेक सन्यासियों के साथ होता रहा है. यह बात सही है, कि आश्रमों में भक्तों और अनुयाइयों का आना-जान रहता है. कई भक्त तो परिवार के साथ आकर कुछ दिन ठहरते हैं. इसे देखते हुए आश्रमों में इस प्रकार की न्यूनतम सुविधाएं मिलना लाजिमी है, जिससे वहाँ ठहरने वालों को बहुत ज्यादा असुविधा नहीं हो. लेकिन सुविधाओं के के नाम पर आश्रमों में ऐशो आराम की सामग्री जुटाया जाना अनुचित है. थोड़ा कष्ट उठाकर ही अध्यात्म लाभ मिलता है. आश्रम में घर जैसी सुविधा मिलने पर कोई क्या सत्संग और साधना कर सकता है?

 

महिलाओं की मर्यादा  

 

भारतीय धर्म-दर्शन में सभी संबंधों को लेकर मर्यादाएं निश्चित की गयी हैं. सन्यासियों के संदर्भ में भी महिलाओं के लिए अनेक ऐसे नियम निर्धारित किये गये हैं, जिनसे उनकी और संतों दोनों की मर्यादा बनी रही. ऋषि-मुनियों को मानवीय प्रकृति और वृत्तियों की बहुत गहरी समझ थी. उन्हें पता था, कि मनुष्य पिछली अनेक योनियों के संस्कार लेकर जन्म लेता है. इन संस्कारों के बीज जब तक पूरी तरह दग्ध नहीं हो जाते, तब तक अध्यात्म की काफी ऊँचाई अक पहुंचे व्यक्ति के भी गिरने की पूरी संभावना होती है. जिस तरह बीज जल जाता है, तो उसे कितना भी अनुकूल वातावरण मिले या कितनी भी सिंचाई की जाये, उसके पनपने की कोई संभावना नहीं होती, उसी तरह जब बहुत दीर्घ और कठोर साधना से किसी योगी या सन्यासी के संस्कारों के बीज पूरी तरह जल जाते हैं, तो उसके गिरने की संभावना ख़त्म हो जाती है.

 

लेकिन ऐसा हज़ारों में कोई एक ही होता है. ऊपर से भगवा वस्त्र पहनकर और मालाएं गले में लटकाए तो लाखों लोग घूम रहे हैं, लेकिन दग्ध संस्कारों वाले महात्मा बहुत दुर्लभ होते हैं. इसलिए, हिन्दू संस्कृति में महिलाओं को साधु-सन्यासियों से दूरी रखने की मर्यादा निश्चित की गयी है. आज भी हमारी पिछली पीढ़ी की स्त्रियाँ सन्यासी के पैर छूकर प्रणाम नहीं करतीं. वे इस प्रकार प्रणाम करती हैं, कि उनका हाथ सन्यासी के शरीर को स्पर्श नहीं करे. इसके लिए वे साड़ी का पल्ला हाथ में लपेट लेती हैं.

 

आज की अनेक आधुनिक महिलाएं इसका गलत अर्थ लगाकर इस मर्यादा को नहीं मानतीं. साधु-संतों की तो बात ही छोड़िये, वे कथावाचकों और प्रवचनकारों तक से इस तरह व्यावहार करती हैं, जो उचित नहीं है. ऐसा करने वाली महिलाओं का मन साफ़ होता है. उनके मन में कोई अपवित्र भाव नहीं होता. लेकिन  ये लोग महात्मा तो होते नहीं हैं. अधिकतर तो वाचिकज्ञानी ही होते हैं. उनके मन की कमजोरियां भी सामान्य मनुष्य से कोई कम नहीं होतीं. ऐसा होने पर व्यभिचार के शर्मनाक प्रसंग सामने आने शरू हो जाते है. इसलिए, समाज को सन्यासियों के प्रति अपने कर्तव्यों को ठीक से समझकर व्यवहार करना चाहिए, जिससे सन्यासी-संत के भटकाव की संभावना कम हो. सेवा को सेवा तक ही सीमित रखा जाना चाहिए.