स्वामी विवेकानंद ने दो श्लोकों में बता दिया था पूरा हिन्दू जीवन-दर्शन.. दिनेश मालवीय

स्वामी विवेकानंद ने दो श्लोकों में बता दिया था पूरा हिन्दू जीवन-दर्शन.. दिनेश मालवीय

 

हिन्दू धर्म और संस्कृति इतनी व्यापक और गहन है, कि इसकी थाह पाना आसन नहीं है. हिन्दू धर्म के जितने शास्त्र हैं, उतने शास्त्र किसी और धर्म के नहीं हैं. यूनेस्को ने “ऋग्वेद” को संसार का पहला ग्रंथ मना है. इतने वृहद् साहित्य के बावजूद इसकी विशेषता यह है,कि इसके एक-दो सूत्रों में ही सारा हिन्दू जीवन-धर्म-दर्शन बहुत सटीकता से व्यक्त हो जाता है. स्वामी विवेकानद ने अमेरिका के शिकागो में आयोजित “विश्व धर्म संसद” में वैसे तो पांच व्याख्यान दिये, लेकिन उन्होंने पहले ही दिन अपने संक्षिप्त परिचय व्याख्यान में दो श्लोक ऐसे उद्धृत किये, जिनमें पूरा हिन्दू दर्शन सबके सामने स्पष्ट हो गया. पहला श्लोक था-

 

रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।

‘ जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।’

 

दूसरा श्लोक था-

 

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।

 

– ‘ जो कोई मेरी ओर आता हैं – चाहे किसी प्रकार से हो – मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।’

 

ये तो केवल उदाहरण के लिए उल्लेखित किये गये हैं. हिन्दू जीवन-दर्शन के अनेक प्रमुख सूत्र ऐसे हैं, जिन्हें समझकर पूरा पूरी हिन्दू-दृष्टि समझ आ सकती  है. पहली बात तो यह है, कि हिन्दू जीवन-दृष्टि में धर्म, संस्कृति और जीवन तीनों का समावेश है. ये तीनों आपस में इस तरह गहराई से जुड़ी हैं, कि इनमें से एक को भी हटा दिया जाए, तो दूसरा नहीं रह सकता. जीवन के इन तीनों सबसे प्रमुख तत्वों का ऐसा समन्वय कहीं और नहीं मिलता. इस दर्शन की एक और बड़ी विशेषता यह है कि, इसमें समन्वय को बहुत महत्त्व दिया गया है. सभी विचारधाराओं और धर्मों को उनके अपने संदर्भ में सही माना गया है. स्पष्ट कहा गया है, कि एक ही सत्य को विद्वान अनेक तरह से व्यक्त करते हैं. इसी कारण हिन्दू संस्कृति में सहिष्णुता बहुत है. हालाकि इसकी अधिकता के कारण इसे बहुत नुकसान भी झेलना पड़ा, क्योंकि बर्बर और क्रूर लोग इसे कमजोरी मान बैठे.

 

वैसे तो हिन्दू-दर्शन में एक ही ईश्वर को माना गया है. उसे परब्रह्म कहा गया ही, जिसकी न कोई सीमा है, न कोई रूप है, न कोई नाम है, न कोई आदि है और न अंत है. लेकिन हमारे ऋषियों को मनुष्य के स्वभाव का बहुत गहरा ज्ञान था. वे जानते थे, कि निराकार के भाव को साधारण बुद्धि-समझ वाले लोग एकदम से ग्रहण नहीं कर सकते. इसलिए प्रतीक उपासना की अनुमति देकर उनके आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया गया. यानी साकार उपासना को भी सही माना गया. जिसकी जैसी रुचि हो, वह उसके अनुसार अपने इष्ट का चयन कर आराधना कर सकता है. सारी आराधनायें, उस एक परमतत्व की ही आराधना है. हिन्दू जीवन-दर्शन में सभीको अपनी-अपनी साधना पद्यति चुनकर उसके पालन का अधिकार दिया गया है. कोई भी चीज अनिवार्य नहीं है. यहाँ तक कि,नास्तिकता  को भी एक दर्शन मानकर उसे सम्मान दिया गया है.  चैतन्य को ही महान, नित्य, सरस और प्राप्त करने योग्य माना गया है. यानी परम चेतना का अनुभव जीवन का परम लक्ष्य है.

 

हिन्दू जीवन-दर्शन में लौकिक जीवन का उचित आंकलन तो किया गया है, लेकिन उसकी उपेक्षा या अवहेलना नहीं की गयी है. धर्म को जीवन से जोड़ा गया है. इसमें पलायन की शिक्षा नहीं दी गयी है. कर्म को प्रधान माना गया है , लेकिन कर्म को धर्मयुक्त होना चाहिए. सामाजिक और समष्टि जीवन को बहुत महत्त्व दिया गया है. सभी त्योहारों को बहुत उत्साह  से मनाया जाता है, जिसके कारण हमारी  संस्कृति को “उत्सवधर्मी” कहा गया है. संगीत, काव्य, साहित्य, नृत्य, चित्रकला सहित चौसठ कलाएं हैं, जिन्हें जीवन को परिपूर्णता में जीने के लिए सहायक माना गया है. इस प्रकार इसमें लोक और परलोक का श्रेष्ठ समन्वय है. जड़ और चेतन का भी समन्वय किया गया है.

 

हिन्दू जीवन-दर्शन में मनुष्य से अपेक्षा की जाती है, कि वह अपनी चेतना और सोच का स्तर हमेशा ऊंचा करता रहे. चेतना को कभी नीचे नहीं जाने दे. यही अध्यात्म में आगे बढ़ने का बहुत महत्वपूर्ण मार्ग है. यही कारण है, कि भारत के लोग भौतिक उपलब्धियों की तुलना में आध्यात्मिक उपलब्धि को अधिक महत्त्व देते हैं. यहाँ की राजनीति और दंडनीति मनुष्य के स्वभाव और वृत्तियों को ध्यान में रखकर विकसित हुयी है. यहाँ के राजा धर्म से प्रेरित और मार्गदर्शित होते रहे. पुनर्जन्म हिन्दू धर्म-दर्शन का बहुत प्रमुख आधार है. इसके अनुसार मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार इस जीवन में कर्मों को भोगता है और कर्मों के आधार पर ही उसका विभिन्न योनियों में जन्म होता रहता है. यह क्रम मोक्ष मिलने तक निरंतर रहता है. यह अवधारणा जैन और बौद्ध धर्मों में भी है.  

 

आज पूरी दुनिया में बहुत व्यापक बदलाव हो चुके हैं. जैसी भौतिक प्रगति हुयी है, उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती. भारत भी भातिक प्रगति में किसीसे पीछे नहीं है. लेकिन इसके बावजूद भारतीय लोगों की आत्मा पर अध्यात्म का रंग फीका नहीं पड़ा है. जीवनशैली में बाहरी परिवर्तन भले ही आ गये हों,लेकिन भारतीय लोगों का मन आज भी धर्म में ही रमा है.