दूसरे देशों के बारे में तो नहीं कह सकता,लेकिन अपने देश भारत के बारे में ज़रूर कह सकता हूँ, कि यहाँ अपनी दुरावस्था के लिये हर कोई दूसरों को ज़िम्मेदार ठहराता है. कोई नुकसान हो जाए या कोई अपना बिछड़ जाए, तो विधाता को दोष देता है. विधाता नहीं, तो किसी व्यक्ति या परिस्थति को दोष देता है. अगर ठोकर खाकर गिर जाए, तो रास्ते में पड़े पत्थर को दोष देता है; यह नहीं कहता, कि मैं ख़ुद ही सावधानी से नहीं चल रहा था. यह बात व्यक्तिगत और सामजिक दोनों स्तरों पर एक समान लागू होती है. हमारे बच्चे संस्कारहीन हो रहे हैं, तो हम शिक्षा और स्कूल-कॉलेज को दोष देते हैं. यह नहीं समझते, कि संस्कार देने का पहला कर्तव्य परिवार का होता है. बच्चे धर्मग्रंथों की ओर से विमुख हो रहे हैं, तो हम आधुनिक शिक्षा को दोषी ठहराने लगते हैं. हम यह नहीं सोचते,कि हमने घर में ऐसा माहौल ही निर्मित नहीं किया, कि बच्चे इन ग्रंथों को पढ़ने की ओर प्रेरित हों. सदियों से बड़ी संख्या में सनातन धर्म के लोगों ने धर्म परिवर्तन कर लिया. इसके लिए हम इस्लाम या ईसाइयत को दोषी ठहराने लगते हैं. हम अपने समाज में व्याप्त उन कमियों को नहीं देखते, जिनके चलते लोग धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर,आकर्षित या राजी हुए. यह मामूली सी बात हमें समझ में नहीं आती, कि उपरोक्त दोनों धर्मों का यह घोषित रूप से कहना है, कि उनका मकसद पूरी दुनिया को अपने धर्म के झंडे तले लेकर आना है. कुछ वर्ष पूर्व पोप ने सार्वजनिक रूप से यह बात कही थी. इसके लिए ये दोनों धर्म हर तरह के उपाय अपनाते हैं. दूसरे धर्मों के लोगों को अपने धर्म में लाने को उनके धर्म में पुण्य का काम माना जाता है.
लेकिन अपने लोगों के धर्म परिवर्तन के लिए इन धर्मों को दोष देने के बजाय हम ऐसे सुधारात्मक उपाय क्यों नहीं करते, कि हमारे लोग किसी के भी बहकावे या लालच में आकर धर्म परिवर्तन नहीं करें. हम आज भी हज़ारों साल पुरानी उन मान्यताओं को ढो रहे हैं, जो उस समय भले ही प्रासंगिक और किसी तरह उपयोगी रही हों, लेकिन आज उनकी उपयोगिता शून्य है. ऐसी धारणा थी, कि देश की आज़ादी के बाद शिक्षा का इस तरह प्रसार होगा, कि लोग जातिवाद, वर्गवाद और ऊँच-नीच की थोथी धारणाओं से उठकर पूरे सामंजस्य के साथ मिलकर रहेंगे. युगदृष्टा महात्मा गांधी ने छूआछूत जैसी बुराई की गंभीरता को समझकर उसे समाप्त करना अपने प्रमुख लक्ष्यों में शामिल किया था. इस विषय पर उनका डॉ. भीमराव आंबेडकर से टकराव भी हुआ. गांधीजी ने इस विषय में ख़ूब लिखा और आन्दोलन तथा कार्यक्रम भी संचालित किये. यही कारण है, कि अलगाववादियों की तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी बहुत बड़ी संख्या में पहले अछूत माने जाने वाले लोग, सनातन धर्म की छाया में ही हैं. वे समाज के अविभाज्य अंग हैं. उन्हें हमसे अलग करने की हरचंद साजिश की जा रही है. उसे विफल करने के लिए हमें अपनी सदियों पुरानी सोच और दृष्टिकोण में बदलाव लाना ही होगा.
दुर्भाग्यवश शिक्षा के प्रसार से जातिवाद की बुराई समाप्त नहीं हो सकी. देखा तो यह जा रहा है, कि शिक्षा बढ़ने के साथ ही, जातिवाद भी उसी अनुपात में बढ़ा है. जातिवाद चाहे कथित उच्च जातियों का हो या कथित निम्न जातियों का, देश और समाज के लिए समान रूप से घातक है. इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह हुआ, कि ख़ुद को गांधीजी की विरासत का उत्तराधिकारी मानने वाले राजनेताओं और राजनितिक दलों ने अपने राजनीतिक हितों के लिए जातिवाद को ख़ूब हवा दी. जातिवाद को कायम रखने और उसे और अधिक विकृत रूप देने में निर्विवाद रूप से सियासत और सियासी नेताओं कि सबसे बड़ी भूमिका रही है. लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे जातिवाद के विरोधी महानायकों के शिष्यों और अनुयायियों ने सियासी फायदे के लिए जातिवाद का बहुत गंदा खेल खेला और आज भी खेल रहे हैं. इसके पहले मध्यकाल में “भक्ति आन्दोलन” का एक बड़ा उद्देश्य समाज से ऊँच-नीच और जातिवाद को समाप्त करना था. आज भी यदि सनातन हिन्दू समाज इतना अधिक विशाल और समृद्ध है, तो इसका बहुत कुछ श्रेय भक्ति आन्दोलन से जुड़े संतों के प्रयासों को जाता है.
इसका एक बहुत सुंदर उदाहरण स्वामी रामानंद का था. कबीर, रैदास और अन्य बहुत महान संतों के गुरु स्वामी रामानंद सुबह जब गंगा नहाने जाते थे, तो अपने एक ब्राह्मण शिष्य के कंधे के सहारे चलकर जाते थे. गंगा स्नान के बाद वह अछूत माने जाने वाले वर्ग के एक शिष्य के कंधे के सहारे वापस लौटते थे. लौटकर वे सीधे किसी कथित अछूत की कुटिया में जाकर बैठते थे. इस तरह उन्होंने समाज को छूआछूत की बुराई से मुक्त करने के लिए बहुत महान कार्य किया. उनके शिष्यों ने इससे प्रेरणा ली और जीवनभर इसी सोच को बधान्वा देते रहे, कि ईश्वर की नज़रों में सभी बराबर हैं. व्यावहारिक धरातल पर दुनिया के हर देश और समाज में कुछ वर्ग विभाजन होता ही है, लेकिन उसका जितना विकृत रूप हमारे देश में हो गया, उतना होना नहीं चाहिए था. अनेक देशों में नस्लवाद और रंगभेद बहुत घृणित स्तर पर रहा. लेकिन भारत में ऐसा होना इसलिए और भी गलत है, क्योंकि हमारे जीवन-दर्शन में सभी के भीतर एक ही परम चेतना की उपस्थिति मानी गयी है. मान लीजिये, कोई व्यक्ति सफाई कामगार है या मरे हुए जानवरों का चमड़ा निकालने का काम करता है. वह दिनभर अपना काम करने के बाद, यदि नहा-धोकर और स्वच्छता के साथ समाज में आता है, तो उसके साथ छूआछूत बरतने का कोई कारण नहीं है. उसे मंदिर में नहीं जाने दिया जाये, इसका कोई तर्कसंगत कारण नहीं है. उसके साथ खान-पान या रोटी-बेटी का सम्बन्ध रखना या नहीं रखना व्यक्ति के विवेक पर निर्भर है, लेकिन सामाजिक जीवन में उसे पूरी प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए.
मध्यकाल में और उसके बाद बड़ी संख्या में इस्लाम और ईसाइयत के प्रचारकों ने सनातन हिन्दू धर्म में छूआछूत और जातिवाद का बहुत फायदा उठाया. हालाकि उन धर्मों में जाकर भी इन लोगों को कोई बहुत प्रतिष्ठा नहीं मिली. वहाँ भी दोयम दर्जे का माना गया , लेकिन कम से कम वे अपने ही समाज में होने वाली ज़िल्लत होने से बच गये. धर्म परिवर्तन करने वालों ने कथित ऊँची जाति के उन लोगों से ख़ूब बदले लिए, जो उनके साथ भेदभाव करते थे. उनके भीतर अपमान की जो आग जल रही थी, उसके कारण वे बहुत क्रूर कर्म करने तक से पीछे नहीं रहे. सनातन हिन्दू धर्म को मानने वालों के लिए आज भी मौक़ा है, कि वे अपने भीतर की बुराइयों के लिए औरों को दोषी ठहराने के बदले अपनी कमियों को दूर करने का प्रयास करें. जाति व्यवस्था को अपने जातीय-समाज के हित में भले ही जारी रखें, लेकिन जातिवाद को तो छोड़ना ही पड़ेगा. सिर्फ दूसरों को दोष देना नासमझी है. यह हमारे भारी विनाश का कारण बन सकती है.