भारतीय योग और ज्ञान परंपरा में कुण्डलिनी शक्ति तथा उसके जागरण की बहुत महिमा गायी गयी है.बड़े गूढ़ रहस्यों को सिर्फ रूपकों या प्रतीकों में बताया जा सकता है. भारत में इसी प्रकार से सम्प्रेषण करने की परम्परा है. कुण्डलनी शक्ति को मनुष्य के मूत्र और मल छिद्रों के बीच स्थित गुदा प्रदेश में तीन कुंडल वाली सर्पणी के रूप में निरूपित किया गया है. ऋषियों का कहना है, कि, जब तक यह शक्ति जागकर क्रियाशील नहीं होती तब तक कोई भी आध्यात्मिक साधना सफल नहीं होती. आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि किसी भी क्षेत्र में जो भी असाधारण वह इस शक्ति की क्रियाशीलता का ही परिणाम होती हैं. यह अलग बात है, कि कार्य करने वाले को इस बात की जानकारी नहीं हो.
विभिन्न साधना पद्धतियों में अलग-अलग नाम हैं कुण्डलिनी शक्ति के. योग में इसे कुण्डलिनी कहा जाता है, भक्ति में आह्लादिनी शक्ति, वेदांत में प्रज्ञान, तंत्र में भगवती शक्ति कहा जाता है. बाइबल में जिसे होली स्पिरिट कहा गया है, वह यही शक्ति है. पश्चिमी मनीषियों ने इसे सरपेंट पॉवर भी कहा है. इसके अन्य नामों में प्राण विद्युत्, जीवनी शक्ति, योगाग्नि, अंत: ऊर्जा, ब्रह्मज्योति आदि शामिल हैं. महान रहस्यवादी ऋषि तुल्य मेडम व्लेवेटस्की ने इसे कॉस्मिक इलेक्ट्रिसिटी कहा है. इसे ही चिति शक्ति कहा जाता है. सुषुम्ना,महामाया, महालक्ष्मी, महादेवी, सरस्वती और अव्यक्ति आधार शक्ति भी इसीके नाम हैं. कुण्डलिनी शक्ति को जगाने के अनेक उपाय ग्रंथों में बताये गये हैं. यह हठयोग, तांत्रिक साधनासे, प्राणायाम, निरंतर जप, ध्यान, गुरु या संत कृपा से जागती है. शक्तिपात के द्वारा यह बहुत सहजता से जागकर क्रियाशील होती है. शक्तिपात की भारत में बहुत सशक्त परम्परा रही है. इसमें सद्गुरु अपनी चेतन शक्ति के माध्यम से शिष्य की चेतन शक्ति को सपंदित कर देता है. इसे ही पारंपरिक भाषा में शक्तिपात कहा जाता है. शक्तिपात पांच तरह से किया जता है- स्पर्श करके, दृष्टिपात करके, संकल्प से, जूठा खिलाकर तथा मंत्र द्वारा.
भारत के शास्त्रों में कहा गया है, कि जिसके अनेक जन्मों के पुण्यकर्म जब फल देने लगते हैं, तब उसकी कुण्डलनी जागती है. अनेक बार ऐसा देखा गया है, कि किसी व्यक्ति का कोई गुरु नहीं होता और उसने कोई साधना भी नहीं की होती, लेकिन वह असाधारण क्षमताओं और योग्यताओं को लेकर ही जन्म लेता है. जिस काम को बहुत बड़े लोग कई वर्षों की मेहनत से नहीं कर पाते, उसे वह सहज ही कर देता है. उसमें बहुत सी असाधारण शक्तियां होती हैं. वह ऐसा भले ही कहे, कि उसने इसके लिए कोई प्रयास नहीं किया, लेकिन यह बात सही नहीं है. यदि वर्तमान शरीर के जन्म और मृत्यु के बीच की कालावधि को ही जीवन मान लिया जाये, तो यह बहुत अज्ञान की बात होगी. जीवन एक सतत यात्रा है, जो न जाने कब से चल रही है और न जाने कब समाप्त होगी.
वर्तमान में मनुष्य जिस शरीर में ही, उसके पहले वह कई अन्य शरीरों और योनियों में रह चुका होता है. उन सारे जन्मों के संस्कार वह वर्तमान जन्म में लेकर आता है. यदि उसने पिछले किसी जन्म में किसी सद्गुरु का अनुगृह प्राप्त कर लिया होता है, तो वह इस जन्म में बहुत असाधारण क्षमताओं के साथ जन्म लेता है. भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, कि ऐसा नहीं है कि, मैं या तू पहले कभी नहीं थे. जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार शरीर बदलती रहती है, लेकिन जीवन यात्रा अखंड और सतत जारी रहती है. कुण्डलनी शक्ति जाग्रत होने के बाद साधक की साधना को गति और दिशा मिलती है. अपने प्रयास से साधक जब तक प्रयास करता रहता है, तब तक उसे कोई उपलब्धि हासिल नहीं होती. इस शक्ति के जाग्रत होने पर ही उसके शरीर के सभी चेतना केंद्र सक्रिय होने लगते हैं. इन ऊर्जा केन्द्रों को योग की पारंपरिक भाषा में चक्र कहा गया है. यह शक्ति शरीर में स्थित सात चक्रों को वेधते हुए साधक के चित्त के विकारों को दूर करती हुयी उसे आत्मज्ञान की ओर ले जाती है. यह मन, प्राण और शरीर को संगठित करती है.
योगविज्ञान में मनुष्य के शरीर में छह चक्र बताये गये हैं- 1. मूलाधार 2. स्वाधिष्ठान 3. मणिपूर 4. अनहत 5. विशुद्ध 6. आज्ञा और (7) सहस्त्रार कमलदल. हर एक चक्र सक्रिय होने पर मनुष्य की चेतना में ख़ास तरह के बदलाव होने लगते हैं. उसे ऐसा लगता है, कि वह स्वयं कुछ नहीं कर रहा, सबकुछ कोई और ही अदृश्य शक्ति कर रही है. वह सिर्फ अपने कर्मों का दर्शक मात्र रह जाता है. कुण्डलिनी शक्ति, उसके जागरण तथा इसके फलों, शक्तिपात के आचार्यों, कुण्डलिनी, शरीर के सातों चक्रों के सम्बन्ध में बहुत साहित्य उपलब्ध है. लेकिन इसे पढ़कर सिर्फ जानकारी मिल सकती है. जैसे नक़्शे में किसी जगह का मार्ग बताया गया हो, तो नक़्शे में देखने भर से आप उस जगह नहीं पहुँच जाते. वह केवल संकेत है, चलना तो आपको ही पड़ेगा. आजकल धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में जो अनेक तरह की अप्रामाणिक बातें प्रचलित हो गयी हैं, उसी प्रकार कुण्डलनी शक्ति और उसके जागरण के बारे में भी स्वार्थी तत्वों ने बहुत भ्रम फैला रखा है. साधक को बहुत धैर्य के साथ किसी सच्चे गुरु की तलाश करते रहना चाहिए, जो आज भी मौजूद हैं. जब तक गुरु नहीं मिलते, तब तक किसी मंत्र या शास्त्र का पाठ, प्राणायाम आदि साधनाएँ करने से गुरु प्राप्ति का मार्ग सुगम होगा.