भारतीय धर्म, अध्यात्म और संस्कृति में ऋषि को सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त है. हम लोग अक्सर पढ़ते सुनते हैं कि फलां ऋषि ने यह कहा या किया; इस या उस ऋषि ने इतनी तपस्या की. ऋषियों का सम्मान सामान्य जन-समाज के अलावा देव-समाज और भगवान भी करते हैं. शास्त्रों में वर्णन आया है कि कई बार ऋषियों ने भगवान तक को शाप दे दिया और भगवान ने उसे सम्मान के साथ स्वीकार भी किया. भृगु ऋषि ने तो भगवान विष्णु को लात तक मार दी. देवर्षि नारद ने भगवान विष्णु को शाप दे दिया था. सनातन धर्म-संस्कृति में ऋषियों का महत्व इस बात से भी पता चलता है, कि हर जाति-समुदाय अपनी उत्पत्ति किसी न किसी ऋषि से मानता है. इस बात को स्वामी विवेकानंद ने अपने व्याख्यानों में अनेक बार रेखांकित किया है.
आखिर ऋषि में ऐसी क्या खास बात होती है? उसको इतना महत्त्व क्यों दिया गया है? उसमें में इतनी शक्ति और बल कहाँ से आता है? आइये, शास्त्रों और विद्वानों के कथनों के प्रकाश में इसे समझने की कोशिश करते हैं. वेदों का सबसे प्रामाणिक भाष्य करने वाले सायण के अनुसार, तपस्या के द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थों का साक्षात्कार करने वाला व्यक्ति ऋषि होता है. ऋषि शब्द का अर्थ ऋतंभरा प्रज्ञा-संपन्न और तपस्या द्वारा वेद मन्त्रों का आभिर्वाव करने वाला विशिष्ट व्यक्ति होता है. ऋषियों के विषय में सबसे बड़ी बात यह है, कि अधिकतर ऋषि ग्रहस्थ थे. इसीलिए वे लौकिक और सामाजिक जीवन के कभी विरोधी नहीं रहे. वे हमेशा सम्पूर्ण समाज और विश्व के हित के कार्यों में संलग्न रहते थे. उन्होंने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जो उपलब्धियां हासिल कीं, वे सम्पूर्ण मानवता के हित के लिए हैं. आकाश में सात तारों का एक मंडल अस्तित्व मे है,जिन्हें सप्तर्षि मंडल कहा जाता है. उस मंडल के तारों के नाम भारत के सात ऋषियों के नाम पर ही रखे गए हैं. प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि होते हैं.
ऋषियों का वर्गीकरण दो भागों में किया गया है- (1) एकाकी और (2) पारिवारिक. वेद मन्त्रों को प्रकट करने में जिन ऋषियों ने स्वयं लगातार प्रयास किया और इसमें परिवार के किसी सदस्य की मदद नहीं ली, उन्हें एकाकी ऋषि कहा जाता है. ऐसे ऋषियों की संख्या 88 बतायी जाती है. पारिवारिक ऋषि वे हैं, जिन्हें अपने प्रयास में परिवार के सदस्यों का सहयोग प्राप्त रहा. इनकी अगली पीढ़ियों में भी यह परम्परा चलती रही. ऐसे ऋषियों की संख्या 315 बतायी गयी है. ऋषियों में सप्तऋषियों का विशेष स्थान है. ये सप्तऋषि ऋग्वेद के नवम मण्डल के 107वें और दशम मण्डल के 137वें सूक्तों के दृष्टा हैं. सात ऋषि कुलों में इनका विभाजन इस प्रकार है - 1. गोतम 2. भरद्वाज 3. विश्वामित्र 4.जमदग्नि 5. कश्यप 6. वशिष्ट और 7. अत्रि. गोतम परिवार के 4, भरद्वाज के 11, विश्वामित्र के 11, जमदग्नि के 2, कश्यप के 10, वशिष्ट के 13 और अत्रि परिवार के 38 ऋषि हैं. अन्य परिवार किसी न किसी रूप में इन्हीं परिवारों से जुड़े हैं.
यहाँ पर कुछ प्रमुख ऋषियों के बारे में थोड़ा विस्तार से जानना उपयुक्त होगा. भारत की ऋषि परम्परा में विश्वामित्र का विशिष्ट स्थान है. वह एक ऐसे ऋषि हैं, जिन्होंने क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर अपने कठोर परिश्रम और तपस्या के बल पर ब्राह्मणत्व प्राप्त किया. वह ब्रह्म ऋषि बने और देवताओं तथा ऋषियों के पूज्य बने. उन्हें भगवान श्रीराम का गुरु होने का गौरव हासिल है. उन्होने समाधि अवस्था में अनेक मन्त्रों का दर्शन किया, इसीलिए वह मंत्रदृष्टा ऋषि कहलाते हैं. उन्होंने ऋग्वेद के तीसरे मण्डल की रचना की, जिसमें 62 सूक्त हैं. गायत्री मंत्र महर्षि विश्वामित्र की ही देन है. इसी मंत्र की साधना से उन्होंने क्रोध और अन्य विकारों पर विजय प्राप्त की और तपस्वियों के आदर्श बन गये. विश्वामित्र ने भगवान शिव से अस्त्र विद्या पाई. माना जाता है कि आधुनिक काल में प्रचलित प्रक्षेपास्त्र या मिसाइल प्रणाली हजारों साल पहले विश्वामित्र ने ही खोजी थी. उन्होंने भगवन राम को दिव्य अस्त्र और शस्त्र प्रदान किये थे, जिनके नाम वाल्मीकि रामायण में दिए गये हैं. उन्होंने राम को बला और अतिबला नाम की सिद्धियाँ भी प्रदान की थीं, जिनसे भूख-प्यास नहीं लगती और बिना खाए-पिए भी शरीर का तेज और बल नहीं घटता.
ऋषि कणाद – इन्हें परमाणु सिद्धांत का जनक माना जाता है. उन्होंने हजारों साल पहले यह उजागर किया था कि द्रव्य के परमाणु होते हैं. उन्होनें परमाणु की गति, संरचना और उसकी रासानायिक प्रवर्ति पर प्रकाश डाला.| कहते हैं, कि कणाद जंगल में घूम रहे थे. उनके हाथ में एक फल था. वह फल को नाखूनों से कुरेद-कुरेद कर फैंक रहे थे. धीरे-धीरे फल इतना छोटा हो गया कि कणाद फिर उसको तोड़ ही नहीं पाए. यही बात उनके दिमाग़ में बैठ गयी, कि इस फल की कोई न कोई एक सूक्ष्मतम इकाई है, जिसे तोड़ा नहीं जा सकता. उन्होंने बहुत शोध कर परमाणु सिद्धांत का प्रतिपादन किया.
कणाद ने ही सबसे पहले सिद्ध किया, कि परमाणु ही किसी पदार्थ की सबसे छोटी इकाई है. इसे नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता और न इसका विभाजन किया जा सकता है. उन्होंने बताया,कि ब्रह्माण्ड में मौजूद हर चीज़ परमाणु से ही मिलकर बनी है. कणाद ने बताया,कि ब्रह्माण्ड में मौजूद हर चीज़- पृथ्वी, जल, प्रकाश, हवा, आकाश, समय, तत्व, दिमाग़ और आत्मा से मिलकर बनी है. बहुत सारे परमाणु आपस में जुड़कर पदार्थ की रचना करते हैं.
इसके बाद कणाद ने उष्मा के बारे में बताया, कि यह एक प्रकार की ऊर्जा है. इसे कभी ख़त्म नहीं किया जा सकता. इसे बनाया भी नहीं जा सकता. सिर्फ एक स्थिति से दूसरी स्थिति में बदला जा सकता है. आधुनिक विज्ञान भी यही मानता है.
ऋषि भारद्वाज- यह ऋग्वेद के छठे मण्डल के दृष्टा हैं. इस मण्डल में 765 मंत्र हैं. भरद्वाज ने इंद्र से व्याकरण शास्त्र सीखा और उसे व्याख्या के साथ अनेक ऋषियों को पढ़ाया. उन्होंने आयुर्वेद संहिता की भी रचना की. भरद्वाज ने “यंत्रसर्वस्व” नामक ग्रंथ की रचना की. इस ग्रंथ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने “विमान-शास्त्र” के नाम से प्रकाशित करवाया है. इस ग्रंथ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का विवरण है.
अत्रि ऋषि- यह ऋग्वेद के पंचम मण्डल के दृष्टा हैं. इसमें 87 सूक्त हैं. इन सूक्तों में मुख्य रूप से अग्नि, इंद्र, मरुत, विश्वदेव और सविता देवों की स्तुतियाँ हैं. पुराणों के अनुसार, अत्रि ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं. उनके चक्षु भाग से इनका प्रादुर्भाव हुआ. उनकी पत्नी का नाम अनसूया है, जो बहुत दिव्य तेज से सम्पन थीं. वह पतिव्रता स्त्रियों की आदर्श हैं. भगवान श्रीराम वनवास के दौरान उनके आश्रम में गये थे. अनसूया ने सीताजी को पतिव्रत धर्म की शिक्षा के साथ-साथ दिव्य आभूषण भी प्रदान किये थे. अत्रि दम्पती की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता से विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा और शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा अत्रि और अनसूया के पुत्र के रूप में आविर्भूत हुए. उनके द्वारा रचित अत्रि स्मृति एक श्रेष्ठ ग्रन्थ है. अत्रि कहते हैं, कि वैदिक मंत्रों के अधिकारपूर्वक जप से सभी प्रकार के पाप-क्लेशों का अंत हो जाता है. पाठ करने वाला पवित्र हो जाता है. वह कहते हैं, कि यदि विद्वेष भाव से वैरपूर्वक भी ईश्वर का स्मरण किया जाए तो परम कल्याण होता है.
महर्षि गृत्समद- यह ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल के दृष्टा हैं. इनका पैतृक नाम शौन्होत्र था. बाद में इंद्र के प्रयत्न से भृगुकुल में उत्पन्न शुनक ऋषि के दत्तक पुत्र के रूप में इनकी प्रसिद्धि हई और यह यां सौनक गृत्समद नाम से विख्यात हुए. इनके नाम की आध्यात्मिक व्याख्या के अनुसार ‘गृत्स’ का अर्थ है प्राण और ‘मद’ का अर्थ है अपान. अत: प्राणापान का समन्यव ही गृत्समद तत्व है. वह इच्छा के अनुसार रूप धरकर देवताओं की सहायता किया करते थे.
बौधायन-भारत के वैज्ञानिक ऋषियों में इनका बहुत महत्वपूर्ण स्थान है. उन्होंने “शुल्ब सूत्र” और “श्रौतसूत्र” नामक प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की. उन्होंने पाइथागोरस से बहुत पहले ही ज्यामिति के सूत्रों की रचना की थी. उन्होंने ईसा से 800 वर्ष पहले ही रेखा गणित और ज्यामिति के महत्वपूण नियमों की खोज कर ली थी. उस समय भारत में रेखागणित,ज्यामिति और त्रिकोणमति को “शुल्वशास्त्र” कहा जाता था. इसी के आधार पर विभिन्न प्रकार की यज्ञवेदियाँ बनाई जाती थीं.
भारतीय गणित और खगोलशास्त्र में भास्कराचार्य का नाम सूर्य की भांति दमकता है. उनका जन्म 1114 में और मृत्यु 1179 में हुयी. उन्होंने न्यूटन से करीब 500 वर्ष पहले गुरुत्वाकर्षण के नियम को जान लिया था. उन्होंने अपने ग्रंथ “सिद्धांतशिरोमणि” में इसका उल्लेख किया है. उनके ग्रंथों का अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है. उन्होंने लिखा है कि “ पृथ्वी अपने आकाश का पदार्थ अपनी शक्ति से अपनी ओर खींच लेती है. इसीलिए आकाश का पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है.” उन्होंने अपने ग्रंथ “लीलावती” में गणित और खगोल विज्ञान से सम्बंधित विषयों पर लिखा है. उन्होंने अपने “करणकुतूहल” ग्रंथ में बताया है, कि जब चंद्रमा सूर्य को ढँक लेता है, तो सूर्यग्रहण और जब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा को ढंक लेती है, तब चंद्रग्रहण होता है.
योगशास्त्र के प्रणेता पतंजलि का नाम प्रमुख रूप से योगविज्ञान से जुड़ा है, लेकिन उन्हें संस्कृत व्याकरण और आयुर्वेद का भी बहुत ज्ञान था. उनके तीन ग्रंथ प्रमुख हैं- “योगसूत्र”, “पाणिनी अष्टाध्यायी” और “भाष्य तथा आयुर्वेद पर ग्रंथ”. उन्हें मनोवैज्ञानिक और चिकित्सक कहा जाता है. उन्होंने योगशास्त्र में पहली बार इसे चिकित्सा और मनोविज्ञान से जोड़ा. यह ग्रंथ पूरी दुनिया के लिए वरदान साबित हुआ है. पतंजलि रसायन विद्या के बहुत जानकार थे. अभ्रक, विंदास, धातुयोग और लौहशास्त्र उन्हीं की देन है. चिकित्सा के क्षेत्र में आचार्य चरक का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है. उनकी गिनती औषधि विज्ञान के मूल प्रवर्तकों में की जाती है. उन्होंने 300-200 ईसा पूर्व “चरक संहिता” की रचना की. वह त्वचा चिकित्सक के भी विशेषज्ञ थे. उन्होंने शरीरशास्त्र, गर्भशास्त्र, रक्ताभिसरण, औषधिशास्त्र इत्यादि विषय पर गहन शोध किया. उन्होंने मधुमेह, हृदयविकार, टीबी जैसे गंभीर रोगों का इलाज भी बताया. महर्षि सुश्रुत को सर्जरी का जनक माना जाता है. ईसा से 600 साल पहले उन्होंने मोतियाबिंद, प्रसव, कृत्रिम अंग लगाने, पथरी और प्लास्टिक सर्जरी जैसे जटिल ऑपरेशन किये. उनके पास अपने स्वयं के उपकरण थे, जिन्हें वह उबालकर प्रयोग करते थे. ऑपरेशन के लिए वह चाकू, सुई, चिमटे सहित लगभग सवा सौ उपकरणों का इस्तेमाल करते थे.
रसायन शास्त्र में नागार्जुन का स्थान सबसे ऊँचा है. इनकी पुस्तकें “रस रत्नाकर” और “रसेन्द्र मंगल” बहुत प्रसिद्ध हैं. नागार्जुन ने अनेक असाध्य रोगों की दवाएं बनाई थीं. चिकित्सा के क्षेत्र में उनके प्रमुख ग्रंथों में “कक्ष्पूटतंत्र”, “आरोग्य मंजरी” “योगसार” और “योगाष्टक” शामिल हैं. सोने और पारे पर उनके द्वारा बहुत सफल प्रयोग किये गये. ऐसा कहा जाता है कि वह पारे से सोना बनाने की विद्या जानते थे. उन्होंने लिखा है कि पारे के 18 संस्कार होते हैं. महर्षि अगस्त्य का नाम भारत के ऋषियों में बहुत सम्मान से लिया जाता है. वह राजा दशरथ के राजगुरु थे. उन्होंने “अगस्त्य संहिता” नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की. इस ग्रंथ में उन्होंने विद्युत् उत्पादन से जुड़े सूत्र लिखे हैं. आधुनिक लोग शायद इस पर संदेह करते हों. लेकिन निम्स श्लोक इसकी पुष्टि करता है-
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे
ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्।छादयेच्छिखिग्रीवेन
चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्॥
-अगस्त्य संहिता
अर्थात : एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिकाडालें तथा शिखिग्रीवा यानी कॉपर सल्फेट डालें. फिर बीच में गीली काष्ट पांसु यानी स्वीट डस्ट लगायें. ऊपर पारा तथा दस्त लोष्ट यानी जिंक) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति यानी बिजली उत्पन्न होगी.
आर्यभट्ट भारत के महानतम ज्योतिषविद और गणितज्ञ थे. शून्य और दशमलव की खोज का श्रेय उन्हीं को प्राप्त है. उन्होंने “आर्यभट्ट सिद्धांत” नामक अद्भुत ग्रंथ की रचना की. इसमें वर्गमूल, घनमूल, समान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है.
उनकी प्रमुख कृति, आर्यभटीय, गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है, जिसे भारतीय गणितीय साहित्य में बड़े पैमाने पर उद्धृत किया गया है. यह आज भी अस्तित्व में है। आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं। इसमे सतत भिन्न, द्विघात समीकरण घात श्रृंखला के योग आदि सम्मिलित हैं. एक प्राचीन श्लोक के अनुसार, आर्यभट्ट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे. वह गुप्तकाल में हुए, आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है. उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार प्रमाण के साथ यह बताया, कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है. आर्यभट ने लिखा है, कि नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं. इसी तरह, गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं. इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। इन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को समान माना है. भारत के ऋषियों और आचार्यों की आध्यात्मिक और लौकिक उपलब्धियों को एक लेख में समेटना असंभव है, लेकिन यह लेख आज की नयी पीढ़ी को इस सम्बन्ध में पढने और शोध करने की प्रेरणा तो दे ही सकता है.