Published By:धर्म पुराण डेस्क

12 फरवरी 1824 : चिंतक विचारक और स्वाधीनता के लिये क्रांति की ज्वाला जगाने वाले महान साधक महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म 

भारतीय वाड्मय में ऋषियों के जीवन का वर्णन मिलता है। जो अलौकिक सत्य के साधक तो रहे ही साथ ही लौकिक जगत जीवन के कल्याण के लिये भी नये मानबिंदु स्थापित करते थे। आधुनिक युग के ऐसे ही साधक हैं स्वामी दयानन्द सरस्वती। जिन्होंने अपनी साधना और अंतर्चेतना से न केवल मानवीय जीवन के आदर्श मूल्यों के आधारभूत मानदंड स्थापित किये अपितु राष्ट्र और संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा के लिये ही जीवन समर्पित कर दिया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन शैली और दर्शन के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि वे साधारण मानव नहीं थे। मानों कोई अवतारी महर्षि थे। वे संसार में एक उद्देश्य और संदेश लेकर आये, समाज में जागृति की ज्योत जलाई। ऐसे महामानव महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म फाल्गुन कृष्ण पक्ष दसवीं विक्रम संवत 1981 (ईस्वी सन् 1924) को हुआ था। यह तिथि इस वर्ष 12 फरवरी को है, गत वर्ष यह 15 फरवरी को थी।

गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र के ग्राम मोरबी में जन्में दयानन्द सरस्वती सनातन संस्कृति और धर्म के पुनरुद्धारक थे। उनके पिता कृष्णलाल जी तिवारी भी वैदिक विद्वान थे। और माता यशोदाबाई परम शिवभक्त। पिता ने वैदिक शिक्षा के साथ उस समय की अंग्रेजी पद्धति की शिक्षा भी ग्रहण की थी। इस नाते पिता कर कलेक्टर हो गये। इससे परिवार का प्रभाव और प्रतिष्ठा पूरे क्षेत्र में फैली। 

महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म धनु राशि के अंतर्गत मूल नक्षत्र में हुआ था। इसलिये पिता ने अपने पारिवारिक पुरोहित जी के परामर्श से इनका नाम मूलशंकर रखा। इसमें पिता के परंपरा के साथ माता की शिव भक्ति भी आ गई। उनका बाल्यकाल बहुत सुख सुविधा के साथ बीता। प्रारम्भिक शिक्षा काठियावाड़ में हुई और संस्कृत एवं वैदिक शिक्षा बनारस में। वे बचपन से बहुत जिज्ञासु स्वभाव के थे। परिवार के संस्कार से मिले आध्यात्मिक रुझान के चलते उन्होने अपने विद्यार्थी जीवन में निर्धारित अध्ययन के साथ धार्मिक पुस्तकों और ग्रंथों का अध्ययन भी आरंभ किया। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी वे एक बार पढ़ लेते या सुन लेते तो कभी नहीं भूलते थे। सुनकर, पढ़कर या देखकर प्रश्न करना उनका स्वभाव था। 

उनके बचपन की एक घटना से मानों मूलशंकर का नया जन्म हुआ। महाशिवरात्रि का त्यौहार था। परिवार में व्रत उपवास पूजन चल रहा था। परिवार की परंपरानुसार बालक मूलशंकर ने भी व्रत रखा था। शिव मंदिर में कथा चल रही थी तभी एक चूहा आया और शिवलिंग पर रखा प्रसाद कुतरने लगा। यह देखकर बालक मूल शंकर के मन में अनेक जिज्ञासा जागी। यह चूहा क्या कोई प्रकृति की नियति है ? और  शिव के आकार का सत्य क्या है ? ईश्वरीय सत्ता का स्वरूप क्या है ? ऐसे अनेक प्रश्न उनके मन में उठे। वे इन प्रश्नों का समाधान खोजने में लग गये। 

उन्होंने माता पिता से भी पूछा और प्रवचन कर्ताओं से भी। अभी वे इन प्रश्नों का उत्तर खोज ही रहे थे कि क्षेत्र में हैजे की बीमारी फैली जिसमें छोटी बहन एवं चाचा की मृत्यु हो गई। इस घटना से उनके मन में कुछ नये प्रश्न उठे और जीवन-मरण के अर्थ की जिज्ञासा भी जागी। वे इनके समाधान के लिये बैचेन रहते। उनकी यह मनोदशा देखकर माता पिता को चिंता हुई। माता-पिता ने समाधान के लिये अपने पुत्र मूलशंकर का विवाह करने का सोचा। पर मूलशंकर विवाह के लिये तैयार नहीं हुये। जब बहुत दबाव आया तो वे घर छोड़कर सत्य और ईश्वर की खोज के अनंत मार्ग पर चल दिये। 

वे उस समय के परम् प्रतिष्ठित संत गुरु विरजानन्द के पास पहुंचे। गुरुवर के सानिध्य में उन्होंने पाणिनि व्याकरण, पातंजलि-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन किया। स्वामी विरजानंद तीन बातों पर चिंतित रहते थे। एक दासत्व के चलते देश की दुरावस्था, दूसरी सनातन संस्कृति का होता निरंतर ह्रास और तीसरा सनातन संस्कृति में मिथ्या धारणाएँ। स्वामी विरजानंद को आभास हो गया था कि शाष्य मूलशंकर इनका समाधान खोज सकता है। शिक्षा पूर्ण होने पर स्वामी विरजानन्द जी ने अपने शिष्य गुरु दक्षिणा में मांगा- "विद्या को सफल करके दिखाओ, परोपकार करो, संसार से अविद्या का अंधकार मिटाओ और सनातन राष्ट्र के सूर्य को प्रखर करो। 

गुरुदेव ने कहा कि वैदिक प्रकाश से विश्व आलोकित हो और भारत प्रतिष्ठित हो। यही तुम्हारी गुरु दक्षिणा है। गुरुजी ने ही उनको दयानंद नाम दिया। उन्होंने गुरुदेव का आदेश शिरोधार्य किया। गुरु दक्षिणा पूर्ति के लिये "मूल शंकर" का दयानन्द सरस्वती स्वरूप सामने आया। वे वेदों के प्रकाश से अज्ञान रूपी अंधकार दूर करने में लग गये। 

जब उन्होंने भारत का भ्रमण आरंभ किया तब उन्होंने देखा कि किस प्रकार भारतीय जीवन दीन हीन हो गया है। उनके सामने वे घटनाएँ भी छुपी न रहीं कि किस प्रकार पेट भरने और प्राण बचाने के लिये लोगों ने मतान्तरण किया। उन्हें लगा कि यदि जीवन विपन्न और भयभीत है तब कोई कैसे सत्य को समझेगा इसलिये उन्होंने एक साथ एक से अधिक दिशाओं में कार्य आरंभ किया। सबसे पहले अपनी संस्कृति के वास्तविक ज्ञान अर्जित करने, स्वाभिमान जाग्रत करने का अभियान छेड़ा। उनके इस प्रयास से विदेशी शासन की कुचेष्ठा स्पष्ट हुई और समाज अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित होने लगा। 

स्वामी ने अनुभव किया कि भारत बैचेन है और संघर्ष के दिये तैयार है लेकिन संगठन और मार्गदर्शन का अभाव है। स्वामीजी ने इसी दिशा में काम आरंभ किया। इस कार्य के लिये उन्होंने समूची संत शक्ति को सक्रिय किया। इसके लिये जो टोली तैयार हुई उसका नेतृत्वकर्ता स्वामी दयानन्द जी ने ही किया। इस टोली ने समाज के प्रबुद्ध और प्रभावशाली व्यक्तियों को संगठित करना आरंभ किया। उस काल-खंड के लगभग वे सभी लोग स्वामी जी के संपर्क में आये जो भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक वैभव को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिये चिंतित थे। इनमें नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे, हाजी मुल्ला और बाला साहब जैसे वीर महापुरुष भी थे। कार्य आगे बढ़ाने के लिये संदेश वाहकों की टीम तैयार हुई। स्वामी जी के प्रवचन होते और वहाँ लोगों को संगठित कर क्रांति के लिये तैयार किया जाता। 

इससे परस्पर संबंध बने और एकता आयी। "रोटी और कमल" इस अभियान का प्रतीक चिन्ह बना। संपर्क कार्य के लिये पुजारी, पुरोहित और साधु संत भी जुड़े। पूरे देश में स्वाधीनता का एक ज्वार उठ आया। 1857 की क्रांति की पृष्ठभूमि में कुछ रियासतों के अपने स्थानीय कारण तो थे पर सबको संगठित करके एक सूत्र में पिरोने का काम  स्वामी जी के प्रवचनों सभाओं और संतों ने किया। स्वामी जी की सभाएँ कानपुर, लखनऊ, मेरठ, लाहौर, इंदौर, आदि अनेक स्थानों हुईं। मेरठ क्रांति के समय स्वामी जी मेरठ में ही थे। समय के साथ क्रांति आरंभ हुई किंतु सफल न हो सकी। इससे स्वामी जी निराश नहीं हुए। उनके मन में नकारात्मकता का कोई भाव न था। 

उनकी मान्यता थी कि शताब्दियों की दासता से मुक्ति किसी एक झटके में नहीं मिल सकती। इसके लिये लंबा संघर्ष करना होगा। वे समझाते थे कि प्रसन्नता एक आंतरिक संकल्प है। आशा की निरंतरता से ऐसी आत्मशक्ति से उत्पन्न होती है जो सफलता और असफलता दोनों से ऊपर होती है। उन्होंने अपने प्रवचनों का अभियान तेज किया इससे समाज में नई ऊर्जा का संचार होने लगा और लोग नये सिरे से सक्रिय होने लगे। नयी परिस्थिति में गुरु स्वामी विरजानंद जी ने स्वामी दयानन्द जी ने इस अभियान के साथ वैदिक वाड्मय की व्याख्या करने की भी सलाह दी। 

दयानन्द जी जन जागरण के साथ इस काम में भी जुट और हरिद्वार आये। यहाँ उन्होंने ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ फहराई। स्वामी जी कर्मकांड के विरोधी नहीं थे पर कर्मकांड के नाम पर दिखावे का जोरदार खंडन किया। उनका कहना था कर्मकांड में भावनात्मक समर्पण होना चाहिए। केवल गंगा नहाने, सिर मुंडाने और केवल भभूत मलने से स्वर्ग का मार्ग नहीं मिलता मिलता, इसके लिये प्राणशक्ति, ज्ञान शक्ति और आत्म शक्ति में तादात्म्य होना चाहिए। 

जीवन में माता पिता और वरिष्ठ जनों अपमान करने वाले यदि बुजुर्गों की मृत्यु के बाद उनका श्राद्ध करें तो यह केवल ढोंग ही होगा इससे न दिवंगत की आत्मा शांत होगी और न समाज का कल्याण होगा। समय के साथ समाज में आई॔ विकृतियों के विरुद्ध भी स्वामी जी ने जागरूकता अभियान चलाया। वे समाज को संगठित करके वह सनातन स्वरूप देना चाहते थे जो वास्तव में वेदों और सनातन संस्कृति का मूल है। स्वामी जी का स्पष्ट मत था कि विदेशी शक्तियों ने भारतीय समाज में आये बिखराव का लाभ उठाया और इससे बढ़ाने का षड्यंत्र भी किया। उन्होंने धर्मान्तरित लोगों की घर वापसी के द्वार खोले। असमानता और आडंबरों को दूर कर महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयत्न किए।

 ग्रन्थ रचना और वेदों का भाष्य 

आर्यसमाज की स्थापना के साथ स्वामी जी ने हिन्दी में ग्रंथों की रचना आरम्भ की। और स्वयं के द्वारा पहले रचित संस्कृत ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद भी किया। ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ उनकी असाधारण भाष्य दृष्टि साकार ग्रन्थ है। ‘सत्यार्थ प्रकाश’  इस अभियान के केंद्र में रहा। उन्होंने श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित सांख्ययोग को अपनाया।  जो उनका दार्शनिक लक्ष्य था। यही उनका दार्शनिक स्वरूप था इसी के माध्यम से उन्होंने वेदों की भी व्याख्या की। और जीवन की अंतिम श्वास तक वे इसी अभियान में लगे रहे। उन्होंने पंडितों से ही नहीं मौलवियों और पादरियों से भी शास्त्रार्थ किया।

आर्य समाज की स्थापना

1863 से 1875 ई. तक स्वामी जी देश भर का भ्रमण करके अपने विचारों का प्रचार किया। वेदों के प्रचार उनका प्रमुख लक्ष्य था। और इस काम को पूरा करने के लिए अप्रैल 1875 ई. में 'आर्य समाज' नामक संस्था की स्थापना की। शीघ्र ही इसकी शाखाएं देश-भर में फैल गई। देश के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण में आर्य समाज की बहुत बड़ी देन रही है। हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली। स्वामी जी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रुक गया।

हिन्दी भाषा का प्रचार

स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिन्दी भाषा को अपनाया। उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' मूल रूप में हिन्दी भाषा में लिखा गया। उनका कहना था - "मेरी आंख तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही है। जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा बोलने और समझने लग जाएंगे।" 

स्वामी जी की अन्य महत्वपूर्ण रचनाओं में सत्यार्थ प्रकाश (1874 संस्कृत), पाखण्ड खण्डन (1866), वेद भाष्य भूमिका (1876), ऋग्वेद भाष्य (1877), अद्वैतमत का खंडन (1873), पंचमहायज्ञ विधि (1875), वल्लभाचार्य मत का खंडन (1875) आदि हैं।

षड्यंत्र से देह त्यागी 

स्वामी दयानन्द सरस्वती को बहुत विरोध का सामना करना पड़ा । यह विरोध दोनों तरफ से था एक ओर धर्मान्तरित हिन्दुओं की घर वापसी के लिये और दूसरी ओर आडंबर मुक्ति अभियान के लिये भी। और इसी कुचक्र के अंतर्गत उन्होंने देह त्यागी। एक वेश्या के कुचक्र से हुआ। कहते हैं षड्यंत्र कारियों ने स्वामी जी के रसोइये को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया और दूध में विष मिलाकर स्वामी जी को पिला दिया। इसी षड्यंत्र में 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन स्वामीजी भौतिक शरीर त्याग कर अनंत यात्रा पर चल दिये।

अपनी अंतिम यात्रा का आभास संभवतः स्वामी जी को हो गया था। उन्होंने 27 फरवरी 1883 को उदयपुर में एक स्वीकार पत्र प्रकाशित किया था जिसमें 23 सदस्यों को परोपकारिणी सभा की जिम्मेदारी सौंपी थी जो उनके बाद उनके काम को आगे बढ़ा सकें। इनमें महादेव गोविन्द रानडे का नाम सबसे प्रमुख था। इस स्वीकार पत्र पर 13 गणमान्य व्यक्तियों के साक्षी के रूप में हस्ताक्षर हैं। इसके छः माह पश्चात उन्होंने देह त्यागी।

स्वामी जी भले असमय संसार छोड़ गये पर उनकी शिक्षाएं, संदेश और संस्था ‘आर्यसमाज’ के माध्यम से वैदिक आंदोलन भारतीय इतिहास में अमर है।

-- रमेश शर्मा 

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