वाल्मीकि ने प्रभु के निवास के लिए चौदह स्थान बताए। ये भक्तों के हृदय हैं। इसके द्वारा समता और विषमता के दर्शन का भी संकेत दे दिया गया।
सूर्य का प्रकाश सम होते हुए भी जैसे आतिशी शीशे के द्वारा केंद्रित करके प्रज्वलनशील बना लिया जाता है; वैसे ही सम-ब्रह्म को हृदय की भावना के द्वारा अपना पक्षपाती बनाया जा सकता है
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू।
गहइ न पाप पुन्य गुन दोषू॥
करम प्रधान बिस्व करि राखा।
जो जस करइ सो तस फल चाखा॥
तदपि करहि सम विषम बिहारा।
भगत अभगत हृदय अनुसारा॥
भक्ति भावना के द्वारा अपने अन्तःकरण का निर्माण इस रूप में किया जा सकता है जिसमें ईश्वर भक्त की भावना के अनुकूल ही लीला करने लगे। चौदह प्रकार के स्थान बताकर भक्ति की व्यापकता की ओर इंगित किया गया।
प्रत्येक व्यक्ति का अन्तःकरण एक ही प्रकार का नहीं होता, और हृदय का परिवर्तन भी सरल कार्य नहीं है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति यह सोचकर निराश हो सकता है कि मेरा हृदय ईश्वर का निवास स्थान बनने के योग्य नहीं है किन्तु वाल्मीकि इन स्थानों के द्वारा आश्वस्त करते हैं कि प्रभु के निवास के लिए स्वभाव और संस्कार में परिवर्तन अपेक्षित नहीं है।
उपलब्ध वस्तुओं के द्वारा केवल साज सज्जा ही अपेक्षित है। क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक होने के कारण प्रत्येक परिस्थिति में रहने का अभ्यस्त है अथवा आवश्यकता और ऋतु को दृष्टिगत रखकर भिन्न-भिन्न प्रकार के भवन भी उपयोगी सिद्ध होते हैं।
यदि किसी व्यक्ति के पास ऐसा भवन हो जिसका वातावरण ही उष्ण हो तो उसका सदुपयोग यही होगा कि मित्र को वहाँ शीत ऋतु में ठहरा दिया जाए। प्रत्येक व्यक्ति व वस्तु किसी-न-किसी समय उपयोगी सिद्ध होती है।
प्रत्येक भावना, क्रिया और विचार के द्वारा ईश्वर की आराधना की जा सकती है। अतः महर्षि ने सभी साधकों को यह सुविधा प्रदान की कि वे ईश्वर को अपने हृदय में रहने के लिए निमन्त्रित करें।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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