ऋषभ के सौ पुत्र थे, वे सब के सब वेदों के पारदर्शी विद्वान् थे। उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत। वे भगवान नारायण के परम प्रेमी भक्त थे। उन्हीं के नाम से यह भूमिखंड जो पहले 'अजनाभवर्ष' कहलाता था, 'भारतवर्ष' कहलाया। राजर्षि भरत चक्रवर्ती सम्राट थे जिन्होंने सारी पृथ्वी का राज्य-भोग किया और अन्त में उसे छोड़कर वन को चले गये। वहाँ उन्होंने तपस्या द्वारा भगवान की उपासना की और तीसरे जन्म में भगवान को प्राप्त हुए।
भगवान ऋषभदेव के शेष निन्यानवे पुत्रम नौ पुत्र भारतवर्ष के सब ओर स्थित नौ द्वीपों के अधिपति, इक्यासी पुत्र कर्मकाण्ड के रचयिता ब्राह्मण और बाकी नौ संन्यासी हो गये। ऋषभदेव के जो नौ पुत्र संन्यासी हो गये, वे बड़े ही भाग्यवान् थे। उन्होंने आत्मविद्या के संपादन में बड़ा परिश्रम किया था और वास्तव में वे आत्मविद्या बड़े निपुण थे।
वे प्रायः दिगम्बर ही रहते थे और अधिकारियों को परमार्थ वस्तु का उपदेश दिया करते थे। उन्हें ही नौ योगीश्वर कहा जाता है। उनके नाम हैं- कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन।
ये नौ योगीश्वर इस कार्य कारण और व्यक्त-अव्यक्त भगवत रूप जगत् को अपनी आत्मा से विभिन्न अनुभव करते हुए पृथ्वी पर स्वच्छंद विचरण करते थे। उनके लिये कहीं भी रोक-टोक न थी। वे जहाँ चाहते, चले जाते। देवता, सिद्ध, साध्य, गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, किन्नर और नागों के लोकों में तथा मुनि, चारण, विद्याधर, ब्राह्मण और गौओं के स्थानों में वे स्वच्छंद विचरते थे।
वे सब-के-सब जीवन्मुक्त महात्मा थे। इन नौ योगेश्वरों का विदेहराज महात्मा नाम से एक बार संवाद हुआ था, जिसमें इन महात्मा योगेश्वर ने भगवान को प्राप्त कराने वाले धर्मों और साधनों का वर्णन किया था। उस समय महाराज निमि बड़े-बड़े ऋषियोंद्वारा एक महान् यज्ञका सम्पादन करवा रहे थे। स्वच्छन्द भाव से विचरण करते हुए ये नौ योगीश्वर भी वहाँ पहुँच गये। महाराज निमिने इनका बहुत आदर-सत्कार किया और अधिकारी जानकर भगवच्चर्चा की।
महाराज निमि के पूछने पर उन योगीश्वर में प्रथम योगीश्वर कवि ने उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण को प्राप्त करने वाले भागवत धर्मो का उपदेश दिया। तत्पश्चात् राजा निमि के पूछने पर नौ योगीश्वरों में दूसरे योगीश्वर हरि जी ने भगवत भक्तों के धर्म, लक्षण और स्वभाव का वर्णन किया।
इसके बाद पुनः राजा के पूछने पर तीसरे योगीश्वर अंतरिक्ष जी ने माया और उसके स्वरूप का वर्णन किया और चौथे योगीश्वर प्रबुद्ध जी ने माया को पार करने का उपाय बताया। इसके बाद पांचवें योगीश्वर पिप्पलायन जी ने 'नारायण' नाम वाले परब्रह्म परमात्मा का वर्णन किया।
तत्पश्चात् राजा निमि ने प्रार्थना की कि हे योगीश्वरो! अब आप लोग मुझे कर्मयोग का उपदेश कीजिए, जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रतिशीघ्र अपने कर्मबन्धन को काट डालता है और परम नैष्कर्म्य अर्थात कर्म बन्धन की आत्यन्तिक निवृत्ति का लाभ करता है- जन्म-मृत्यु के चक्र से सर्वदा के लिये छुटकारा पा जाता है।
इस प्रश्न का उत्तर छठे योगीश्वर श्री आविर्होत्र जी ने दिया। इसके बाद राजा के पूछने पर सातवें योगीश्वर श्रीद्रुमिलजी ने भगवान्के तब तक हुए और आगे होने वाले अवतारों का वर्णन किया।
इतना सब भगवान चरित्र सुनने के बाद राजा निमि ने पूछा- हे योगीश्वरो! कृपा करके यह बताइए कि जिसकी कामनाएँ शांत नहीं हुई है, लौकिक-पारलौकिक भोगों की लालसा मिटी नहीं है और मन एवं इन्द्रियाँ भी वश में नहीं हैं तथा प्रायः जो भगवान का भजन नहीं करते-ऐसे लोगों की क्या गति होती है?
इसका उत्तर देते हुए आठवें योगीश्वर श्री चमस जी ने बताया कि हे राजन् ! जो लोग अंतर्यामी भगवान श्रीकृष्ण से पराङ्मुख हैं, उनकी ओर न चलकर उनसे उलटे चल रहे हैं, वे अत्यंत परिश्रम करके गृह, पुत्र, मित्र और धन संपत्ति इकट्ठी करते हैं; परंतु उन्हें अंत में सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहने पर भी विवश होकर घोर नरक में जाना पड़ता है।
भगवान का भजन न करने वाले विषयी पुरुषों की यही गति होती है। अब राजा निमि ने पूछा- हे योगीश्वरो! भगवान किस समय किस रंग और किस आकार को स्वीकार करते हैं और मनुष्य किन नामों और विधियों से उनकी उपासना करते हैं? इसका उत्तर देते हुए नवें योगीश्वर श्री करभाजन जी ने कहा- राजन! सतयुग में भगवान के श्रीविग्रह का रंग श्वेत होता है। उनके चार भुजाएं और सिर पर जटा होती है तथा वे वल्कल वस्त्र पहनते हैं। वे काले मृग का चर्म, यज्ञोपवीत, रुद्राक्ष की माला, दण्ड और कमण्डलु धारण करते हैं। सतयुग में लोग तपस्या द्वारा सबके प्रकाशक परमात्मा का ध्यान करते हैं।
त्रेतायुग में भगवान के श्रीविग्रह का रंग लाल होता है। उनके चार भुजाएं होती हैं और वे कटिभाग में तीन मेखला धारण करते हैं। उनके केश सुनहले होते हैं और वे स्रुक, स्रुवा आदि यज्ञ पात्रों को धारण किया करते हैं।
इस युग के मनुष्य अपने धर्म में बड़ी निष्ठा रखने वाले और वेदों के अध्ययन अध्यापन में प्रवीण होते हैं। वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद रूप वेदत्रयी के द्वारा सर्व देवस्वरूप देवाधिदेव भगवान श्री हरि की आराधना करते हैं। द्वापरयुग में भगवान के श्री विग्रह का रंग सांवला होता है। वे पीताम्बर तथा शंख, चक्र, गदा आदि अपने आयुध धारण करते हैं।
वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह, भृगु लता, कौस्तुभमणि आदि लक्षणों से वे पहचाने जाते हैं। कलयुग में काले रंग की कान्ति से, अंगों और उपांगों, अस्त्रों एवं पार्षदों से युक्त श्रीकृष्ण की श्रेष्ठ बुद्धि सम्पन्न पुरुष ऐसे यज्ञों के द्वारा आराधना करते हैं; जिनमें नाम, गुण, लीला आदि के कीर्तन की प्रधानता रहती है।
इस प्रकार राजा निमि तथा अन्य ऋत्विजों-आचार्यों को भागवत-धर्म का उपदेश देकर वे नवों योगीश्वर अन्तर्धान हो गये।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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