हिन्दू धर्म में नंदी एक बहुत ही प्रसिद्ध शिवगण हैं जिनके बारे में हमारे ग्रंथों में बहुत कुछ लिखा गया है।
नंदी की भांति ही भृंगी भी शिव के महान गण और तपस्वी हैं किन्तु दुर्भाग्यवश उनके बारे में हमें अधिक जानकारी नहीं मिलती है। भृंगी को तीन पैरों वाला गण कहा गया है।
कवि तुलसीदास जी ने भगवान शिव का वर्णन करते हुए भृंगी के बारे में लिखा है - "बिनुपद होए कोई। बहुपद बाहु।।" अर्थात: शिवगणों में कोई बिना पैरों के तो कोई कई पैरों वाले थे। यहाँ कई पैरों वाले से तुलसीदास जी का अर्थ भृंगी से ही है।
पुराणों में उन्हें एक महान ऋषि के रूप में दर्शाया गया है जिनके तीन पाँव हैं। शिवपुराण में भी भृंगी को शिवगण से पहले एक ऋषि और भगवान शिव के अनन्य भक्त के रूप में दर्शाया गया है। भृंगी को पुराणों में अपने धुन का पक्का बताया गया है।
भगवान शिव में उनकी लगन इतनी अधिक थी कि अपनी उस भक्ति में उन्होंने स्वयं शिव-पार्वती से भी आगे निकलने का प्रयास कर डाला। भृंगी का निवास स्थान पहले पृथ्वी पर बताया जाता था। उन्होंने भी नंदी की भांति भगवान शिव की घोर तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव ने उसे दर्शन दिए और वर मांगने को कहा।
तब भृंगी ने उनसे वर माँगा कि वे जब भी चाहें उन्हें महादेव का सानिध्य प्राप्त हो सके। ऐसा सुनकर महादेव ने उसे वरदान दिया कि वो जब भी चाहे कैलाश पर आ सकते हैं। उस वरदान को पाने के बाद भृंगी ने कैलाश को ही अपना निवास स्थान बना लिया और वही भगवान शिव के सानिध्य में रहकर उनकी आराधना करने लगा।
भक्त कई प्रकार के होते हैं किन्तु उनमे से जो सबसे दृढ होता है उसे "जड़भगत" कहते हैं। जड़भगत का अर्थ ऐसे भक्त से होता है जिसे अपनी भक्ति के आगे कुछ और नहीं सूझता। ऐसे भक्त अपनी अति भक्ति के कारण कई बार हित-अहित का विचार भी भूल जाते हैं जिससे अंततः उनका ही अनिष्ट होता है।
कहा गया है कि "अति सर्वत्र वर्जयेत।" अर्थात किसी भी चीज की अति नहीं करनी चाहिए। भृंगी की भक्ति भी इसी जड़-भक्ति की श्रेणी में आती थी। वे महादेव के भक्त तो थे किन्तु भगवान शिव में उनका अनुराग इतना अधिक था कि उनके समक्ष उन्हें कुछ दिखता ही नहीं था।
यही नहीं, जिस माँ पार्वती की पूजा पूरा जगत करता है और जो जगतमाता हैं, भगवान शिव के आगे भृंगी स्वयं उन्हें भी भूल जाते थे। ऐसा विधान है कि भगवान शिव की पूजा माता पार्वती की पूजा के बिना अधूरी मानी जाती है।
यही कारण है कि विश्व के सभी महान ऋषि जब भी भगवान शिव की पूजा करते हैं तो वे माता की पूजा भी अवश्य करते हैं। ये इस बात का द्योतक है कि शिव और शक्ति कोई अलग अलग नहीं हैं अपितु दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इसीलिए शिव की पूजा से शक्ति और शक्ति की पूजा से शिव स्वतः ही प्रसन्न हो जाते हैं।
किन्तु भृंगी की भक्ति अलग ही श्रेणी की थी। पूरे विश्व में केवल वही एक ऋषि थे जो सदैव केवल शिव की ही पूजा किया करते थे और माता पार्वती की पूजा नहीं करते थे। नंदी अदि शिवगणों ने उन्हें कई बार समझाया कि केवल शिवजी की पूजा नहीं करनी चाहिए किन्तु उनकी भक्ति में डूबे भृंगी को ये बात समझ में नहीं आयी। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि एक दिन भृंगी ने स्वयं शिव एवं शक्ति को अलग करना चाहा।
अब ऐसे दुःसाहस का परिणाम तो बुरा होना ही था। परिणाम ये हुआ कि भृंगी को माता पार्वती के श्राप का भाजन बनना पड़ा। किन्तु उनका ये श्राप भी विश्व के लिए कल्याणकारी ही सिद्ध हुआ क्यूंकि भृंगी के कारण ही पूरे विश्व को भगवान शिव और माता पार्वती के दुर्लभ अर्धनारीश्वर रूप के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके इसी अर्धनारीश्वर रूप से स्वयं परमपिता ब्रह्मा को नर एवं नारी की सृष्टि करने की प्रेरणा मिली।
साथ ही भृंगी के तीसरे पैर का कारण भी यही श्राप बना।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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