Published By:धर्म पुराण डेस्क

एक सिद्ध शक्तिपीठ: करौली जिले में कैला देवी मंदिर

मध्य-प्रदेश की सीमा से लगकर बहती हुई चंबल नदी से लगभग 30 किमी. उत्तर में करौली जनपद में अवस्थित कैला माता का मंदिर उत्तर भारत के सिद्ध शक्तिपीठों में से एक है।

सन् 1800 ई. के लगभग निर्मित कैला देवी माँ का यह सिद्ध पीठ कसैली राज्य होने के कारण इन्हें करौली वाली माता या मैया भी कहा जाता है। करौली स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व एक रियासत थी जो अब तत्कालीन छोटी-बड़ी अन्य रियासतों के साथ राजस्थान में विलीन हो गई है। 

राजस्थान में करौली जनपद जिला बन गया है। यहाँ से 25 किमी. दक्षिण में कैला ग्राम के समीप घोर बियावान जंगल में पर्वत श्रेणियों से घिरे त्रिकूट नामक पर्वत पर 'कैला देवी' का दिव्य मंदिर है। 

करौली के शासकों ने इस मन्दिर के निर्माण- पुनर्निर्माण और प्रबन्ध में अपनी मुख्य भूमिका निभाई है और आज भी इसे संरक्षण दिये हुए हैं, इसी से 25 किमी. की लम्बी दूरी होने पर भी इसे 'करौली वाला मन्दिर' कहा जाता है। इसका निर्माण करौली नरेश महाराज गोपालसिंह के शासन काल में हुआ और परवतीं नरेशों द्वारा इसका व्यापक विकास होता रहा। 

मंदिर के दक्षिण-पूर्व में विशाल बियाबान जंगल है। इसे कैलादेवी अभयारण्य कहा जाता है। इसमें शेर, चीते, रीछ, हिरन आदि वन्यजीवों को जब-तब विचरण करते देखा जा सकता है। यहाँ शिकार प्रतिबंधित है। 

आवागमन के साधन- 

दिल्ली, बम्बई मेन लाइन पर हिण्डौन सिटी और गंगापुर सिटी पश्चिम रेलवे के दो स्टेशन हैं। ये रेलवे स्टेशन कैला देवी के लिये निकटस्थ हैं। यहां से कैला देवी भवन तक के लिये प्रायः यात्री बसें मिलती रहती हैं। 

हिण्डौन सिटी स्टेशन से करौली 30 किमी. और जैसा कि लिख चुके हैं, करौली से कैला देवी 25 किमी. दूर है। मेले के दिनों में  तो म.प्र, राजस्थान और उत्तर-प्रदेश के सीमावर्ती जिलों से प्रदेश निगमों की भी बसें प्रायः हजारों की संख्या में आती-जाती हैं तथा हजारों निजी वाहन भी कैलादेवी और कैलादेवी से स्वस्थानों को दौड़ते देखे जाते हैं। 

इस प्रकार आवागमन की सुविधा बराबर मिलती रहती हैं। गंगापुर सिटी व हिण्डौन सिटी स्टेशनों के मध्य महावीर जी स्टेशन पर उतरकर वहाँ से भी बस द्वारा कैला देवी जाते हैं।

कालीसिंध नदी मंदिर के नीचे पहाड़ी की तलहटी में पूर्व से पश्चिम और फिर दक्षिण की ओर धनुषाकार एक नदी बहती है। यह नदी इसी पहाड़ी से निकलती है जिसे कालीसिल (शिला)नदी कहा जाता है। 

प्रायः यात्री इस नदी में स्नान करके माँ के दर्शनों को जाते हैं। नदी पर एक विशाल पुल बना हुआ है जिसको पार करके यात्री कैला देवी ग्राम पहुँचते हैं।

मंदिर में प्रवेश करने के लिए सर्वप्रथम संगमरमर की आठ सीढ़ियाँ हैं जिनके दोनों ओर संगमरमर की बनी दो चौकियां हैं। यहाँ पर मातेश्वरी के वाहन एवं शक्ति के प्रतीक जंगल के राजा शेर की दो प्रतिमाएं पहरेदार के रूप में लगी हुई है। 

ऊपर चढ़ने पर दोनों ओर दो बरामदे बने हुए हैं। माता के दाहिनी ओर वाले बरामदे में करौली के महाराजाओं एवं सेनापति आदि की तस्वीरें बनी हुई है। यहीं पर दो पंडित दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हैं। बायें बरामदे में शस्त्रागार है जिसमें बंदूकें, तलवार आदि हथियार रखे हैं।

मन्दिर के अन्दर संगमरमर के अठारह खंभे हैं। दाहिनी ओर नौबत, नगाड़े मस्त ताल के साथ बजते रहते हैं और बाई ओर दीपकों को रखने की व्यवस्था है। यहाँ सैकड़ों छोटे-बड़े दीपक दर्शनार्थियों द्वारा बोले हुए रखे होते हैं। 

अन्दर से दोनों ओर गैलरी नुमा दो दरवाजे बने हुए हैं। दाहिने दरवाजे के सामने चौक बना हुआ है जहां भक्तजनों द्वारा लाये हुए माँ के रंग-बिरंगे झण्डे रखे जाते हैं। दरवाजे के दोनों ओर महिषासुर मर्दिनी की दशभुजी झाँकी है। विशाल तस्वीरें हाथ की बनी हुई है जो करौली की चित्रकारी का बेजोड़ नमूना है।

दाहिनी ओर वाले द्वार के दोनों तरफ भी दो बड़ी-बड़ी तस्वीरें हैं जिनमें एक माता के झूला झूलने की है। इसमें माता जी झूले पर बैठी है तथा महाराणा भीमपाल तथा महाराजा भ्रमरपाल जी उनको झूला झूला रहे हैं। दूसरी ओर के चित्र में महाराजा भ्रमरपालजी विराजमान है जिनके दोनों ओर दो शेर बैठे हैं। दोनों चित्र बहुत सुन्दर बने हैं। यात्रीगण इनको देखते के देखते खड़े रह जाते हैं।

माई के निज द्वार के पट तथा दोनों ओर की खिड़कियों के द्वार चांदी के बने हुए हैं। अन्दर मुख्य प्रकोष्ठ में चाँदी की कलात्मक चौकी पर चांदी सुवर्ण की छतरियों के नीचे मनोहारी सिंगार किये दो श्री विग्रह हैं जिनमें बाईं ओर वाला विग्रह बड़ा और टेढ़े मुखारविन्द वाला है। यही मातेश्वरी कैलादेवी हैं। 

दाहिनी ओर वाला श्री विग्रह चामुण्डा माता का है। चामुण्डा और कैला देवी दोनों की यहाँ एक साथ स्थापना नहीं हुई थी। यहाँ प्रारम्भिक प्रतिष्ठा भी श्री कैला देवी जी की हुई थी। चामुण्डा देवी की यह प्रतिमा बाद में यहां लाई गई हैं जिसके विषय में आगे के पृष्ठों में विस्तार से बताया गया है।

प्रतिमाओं के समीप दो दीपक अविरल (अखण्ड) रूप से जले हुए रहते हैं। इनमें एक देशी घृत से और दूसरा तिल्ली के तेल से भरा जाता है।

देवी की पूजा-पद्धति के अनुकूल पूजा आरती होती है। विशेष पूजा-पाठ के अवसर पर राजपुरोहित या विशेष पंडितों की देखरेख में समारोह होते हैं जिनमें करौली महाराज के वंशज भी पधारते हैं। भवन में सुन्दर चित्रकारी तथा कई बड़े- बड़े घंटे टंगे हैं। जो भक्तों द्वारा जयकारों के साथ बजा दिए जाते हैं। 

पूजा-आरती के समय नगाड़े आदि बजाये जाते हैं। मुख्य मंदिर में प्रवेश के लिए तीन द्वार हैं। सामने प्रमुख द्वार आने-जाने के लिए अलग-अलग दो भागों में विभक्त है। दोनों पार्श्व के द्वार प्रायः भीड़ के समय जाने-आने के लिए प्रयोग में आते हैं। परिक्रमा मार्ग मंदिर के बाहर है जिसमें एक साथ सैकड़ों है यात्री मैया की परिक्रमा कर सकते हैं। परिक्रमा मार्ग में अनेकों नर-नारी तथा बालक दंडवती परिक्रमा करते हुए भी देखे जाते हैं।

इस मुख्य मन्दिर के सामने बहुत बड़ा चौक है और चौक में एक ओर श्री गणेश जी, लाँगुरिया, बोहरा भक्त, भैरव आदि के मन्दिर एक पंक्ति में हैं। इनकी सेवा-पूजा भोग आदि का प्रबंध इसी मन्दिर के अन्तर्गत आता है।


 

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