 Published By:दिनेश मालवीय
 Published By:दिनेश मालवीय
					 
					
                    
हमारे शास्त्रों में कहा गया है, कि मनुष्य के मन में किसी संत का सान्निद्य पाने की इच्छा बहुत सौभाग्य की बात है. व्यक्ति के जन्म-जन्मान्तर के शुभ कर्मों का उदय होने पर उसके मन में धर्म और ईश्वर के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है. धर्म के पालन और ईश्वर की भक्ति करने में सबसे अधिक सहायक संत ही होते हैं. इसीलिए हमारे हर ग्रंथ में आत्मकल्याण के लिए संतों की संगति करने पर बहुत ज़ोर दिया गया है. संत तुलसीदास की “रामचरितमानस” में नवधा भक्ति, यानी भक्ति के नौ स्वरूपों का बहुत सुंदर वर्णन है. इनमें सबसे पहली भक्ति है-सत्संग यानि संतों का संग- प्रथम भक्ति संतन्ह कर संगा.
प्रश्न उठता है, कि ऐसा क्यों है ? संतों में ऎसी क्या ख़ास बात होती है ?
इसका रहस्य यह है, कि संतों का अपना कोई स्वार्थ नहीं होता. वे अपना पूरा जीवन ईश्वर की भक्ति-आराधना को समर्पित कर देते हैं. वे सदा सबके कल्याण की कामना करते हैं. सांसारिक सुखों से विमुख होकर मन को निरंतर भक्ति में लगाने से उनका चित्त शुद्ध हो जाता है. उनकी चेतना का स्तर इतना ऊंचा हो जाता है, कि उनके पास रहने वाले व्यक्ति की चेतना अपने आप ऊपर उठने लगती है. संतों के गुणों और महत्त्व के विषय में शास्त्रों में प्रचुर उल्लेख मिलते हैं.
जैसाकि हम पहले भी बता चुके हैं, कि धर्म बहुत सूक्ष्म विषय है. सीधी-सपाट बात करके इसे जनमानस को समझाया नहीं जा सकता. इसलिए धर्म के गूढ़ तत्व आम लोगों को पुराणों और कथाओं के माध्यम से संप्रेषित किये गये हैं. इस रूप में लोग धर्म के मर्म को सहज और अनायास रूप से आत्मसात कर लेते हैं. महाभारत में संतों के महत्त्व से जुड़ी एक बहुत सुंदर कथा मिलती है. प्राचीन काल में राजा लोग विभिन्न अवसरों पर यज्ञों का अनुष्ठान करते थे. इनका उद्देश्य जनकल्याण होता था. महाभारत युद्ध में विजय के बाद धर्मराज युधिष्ठिर राजा बने. उन्होंने राजसूय यज्ञ किया. उस समय ऐसी मान्यता थी, कि यदि यज्ञ सही हुआ है, तो उसमें डाली गयी अंतिम आहूति के बाद अपने आप घंटनाद होने लगता था. यदि ऐसा नहीं हो, तो यह माना जाता था, कि यज्ञ सफल नहीं हुआ है.
युधिष्ठिर के इस यज्ञ में अंतिम आहुति डाली गयी, तो घंटनाद नहीं हुआ. इस बात को लेकर सबके मन में बहुत चिन्ता हो गयी. उस समय वहाँ बड़े-बड़े ऋषि-मुनि और ज्ञानीजन उपस्थित थे. युधिष्ठिर ने घंटानाद नहीं होने का कारण भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा. श्रीकृष्ण ने कहा, कि तुमने यज्ञ तो किया है, लेकिन एक संत भूखा रह गया, जिसके कारण तुम्हारा यज्ञ सफल नहीं हो सका. तुमने सबको बहुत स्वादिष्ट और पवित्र भोजन करवाया, दान दिया और सब संतों का सम्मान भी किया. विधिवत आहुतियाँ भी दीं. लेकिन एक पूरी तरह निर्विकारी संत यज्ञ में नहीं आया और भूखा रह गया. युधिष्ठिर ने चारों तरफ अपने दूत भेजकर पता करवाया, कि ऐसा कौन संत है, जो यहाँ नहीं आये और भूखे रह गये? दूतों ने यमुना नदी के किनारे एक संत को ध्यान लगाए बैठे देखा. दूतों को जानकारी मिली, कि वह संत भूखा है. संत के ध्यान से उठने पर दूतों ने उन्हें प्रणाम कर निवेदन किया, कि महाराज युधिष्टिर का राजसूय यज्ञ संपन्न हो गया है. आप भी वहाँ चलकर भोजन पाने की कृपा करें.
संत ने कहा, कि हम सामान्य रूप से किसी यज्ञ में नहीं जाते. हमारा एक नियम है, जिसका पालन होने पर ही हम वहाँ जाते हैं. पूछने पर उन्होंने बताया, कि कोई व्यक्ति अपने सौ यज्ञों का फल हमें देने का संकल्प करे, तब ही हम उसके यज्ञ में भोजन करने जाते हैं. यह बात जब पाण्डवों को पता चली, तो वे बहुत चिंतित हो गए. उन्होंने कहा, कि अभी तो एक ही यज्ञ पूरा नहीं हो पाया है, उन संत को सौ यज्ञों का फल कैसे दान करें? अर्जुन, भीम नाकुल और सहदेव बारी-बारी से संत को समझाने गए, लेकिन संत अपनी शर्त पर अडिग रहे. भीमसेन ने संत को बलपूर्वक लाने की बात कही, लेकिन युधिष्ठिर ने इसे अनुचित कहकर रोक दिया. पाण्डवों की धर्मपत्नी द्रौपदी परम सुन्दरी ही नहीं, बल्कि बहुत ज्ञानवान और धर्म के मर्म को समझने वाली स्त्री थीं. उन्होंने कहा, कि उन संत को मैं लेकर आऊँगी. द्रौपदी के लिए रथ तैयार कर दिया गया. द्रौपदी ने कहा, कि मैं पैदल और नंगे पाँव जाऊँगी. द्रौपदी जब नंगे पांव पैदल चलकर उन संत के पास गयीं, तो संत ने अपनी वही शर्त दोहाराई, कि जब कोई कोई मुझे अपने सौ यज्ञों का फल देने का संकल्प नहीं करे,मैं उसके यहाँ भोजन करने नहीं जाता. द्रौपदी ने कहा, कि आप कमंडल का जल दीजिये, मैं आपको सौ यज्ञों का फल प्रदान करती हूँ. संत ने कहा, कि क्या तुम मेरा उपहास कर रही हो ?
द्रौपदी ने कहा, शास्त्रों के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी संत के दर्शन के लिए जाता है, तो एक-एक पग बढ़ाने पर उसे एक-एक यज्ञ का फल मिलता है. मैं आपके पास पैदल चलकर आयी हूँ और मैंने पांच सौ पग चले हैं. इस तरह पांच सौ यज्ञों का फल मुझे प्राप्त हो गया है. आपको सौ यज्ञों का फल देने के बाद भी मेरे पास चार सौ यज्ञों का फल शेष रहेगा. द्रौपदी की यह मर्मस्पर्शी और धर्म के मर्म में डूबी यह बात सुनकर संत गद्गदहो गये. उन्होंने यज्ञ स्थल पर जाकर भोजन ग्रहण किया. उनके भोजन करते ही, घंटानाद होने लगा. यह युधिष्ठिर का यज्ञ सफल होने का सूचक था. पूरे राज्य में हर्ष की लहर दौड़ गयी. इस कथा का संदेश यही है, कि संतों के दर्शन के लिए कष्ट उठाकर भी जाना चाहिए. वे परोपकारी और सहज प्रसन्न होने वाले होते हैं. " जय श्रीकृष्ण "
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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