आध्यात्मिक आहार सचमुच महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ है कि हमारे मन और आत्मा को उस ऊंचाई की ओर ले जाने के लिए हमें भौतिक विषयों पर नियंत्रण रखना चाहिए। जब हम अपने भौतिक इंद्रियों को नियंत्रित करते हैं और उनकी आवश्यकताओं को संतुष्ट करते हैं, तब हम अपने मन को शांत, प्रसन्न और संतुष्ट रख सकते हैं।
जब हम भौतिक विषयों को मात्रा से अधिक महत्व देते हैं और उनके पीछे भागते रहते हैं, तब हमें सुख नहीं मिलता। यह एक अनंत दौड़ होती है जिससे हमें मुक्ति नहीं मिलती। भौतिक विषयों के पीछे लगे रहकर हम फिर से उन्हें चाहने लगते हैं, जिससे हम फिर से उन्हें प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं। यह एक अंधकारित पथ है जिससे मुक्ति की प्राप्ति संभव नहीं होती।
आध्यात्मिक आहार का अर्थ है अपनी आत्मा को प्रकाशित करने वाले उच्च स्तरीय विषयों को ग्रहण करना। इसका मतलब है कि हमें प्रभु के प्रति समर्पण भाव रखना चाहिए.
हमें अपनी भौतिक इन्द्रिय-तृप्ति की प्रवृत्ति को शुद्ध करना होगा। हम आनंद का उपभोग सीधे नहीं कर सकते, इसलिए हमें प्रभु के माध्यम से आनंद का उपभोग करना है। उदाहरण के लिए, हम प्रसाद ग्रहण करते हैं। हमें उस प्रसाद को प्रभु के माध्यम से ही ग्रहण करना चाहिए। भोजन करने की प्रक्रिया यही है।
यदि हम भोजन सीधे ग्रहण करते हैं, तो सांसारिक भार से ग्रस्त हो जाते हैं। यदि हम प्रभु को अर्पित करते हैं और उसके बाद ग्रहण करते हैं, तो हम इस भौतिक जगत के सभी दोषों से मुक्त हो जाते हैं। गीता में भक्त के प्रसाद ग्रहण को यज्ञ कहा गया है। इच्छापूर्वक या अनिच्छापूर्वक हम अनेक पाप- कर्मों में उलझते जा रहे हैं।
यदि हम प्रभु को अर्पित भोजन का अवशेष ग्रहण करते हैं तो हम सभी दोषों से मुक्त हो जाते हैं। अन्यथा प्रभु को अर्पित किए बिना जो भोजन करता है, वस्तुत: वह पाप खाता है। सत्य यह है कि प्रभु का स्मरण करते ही स्वयं ही इन्द्रियों पर नियंत्रण हो जाता है। यह मनुष्य-जीवन तपस्या के द्वारा आध्यात्मिक जीवन की ऊंचाइयों को प्राप्त करने के लिए हमें मिला है। तपस्या का अर्थ है, जीवन के भौतिक रूप को स्वेच्छा से त्याग देना।
भौतिक जीवन चूसे हुवे पदार्थों को फिर से चूसने में ही व्यतीत हो जाता है। उदाहरण के लिए एक पिता को देखें। एक पिता जानता है कि उस पर उत्तरदायित्व है, इसलिए अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए बहुत मेहनत करता है। बाद में वह अपने पुत्र को भी इस काम लगा देता है।
भौतिक जीवन के कटु अनुभवों के होते हुवे भी मनुष्य अपने पुत्र को भी उसी मार्ग पर ले जाता है। यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है, इसलिए वह चूसे हुवे को फिर से चूसने के समान है। इसी प्रकार भौतिक जगत के हमारे अनुभव बहुत मधुर नहीं हैं, फिर भी मनुष्य जीवन में सुखी होने के लिए कठोर परिश्रम करता है।
गीता के अनुसार मनुष्य रजोगुण से ही उत्पन्न हुवा है। भौतिक जगत में तीन प्रकार के गुण हैं - सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण। क्योंकि मनुष्य रजोगुण में स्थित होते हैं, इसलिए कठोर परिश्रम करना चाहते हैं। वे इस प्रकार के परिश्रम को ही सुख मानते हैं। हम जीवात्मा हैं, हमको आध्यात्मिक आहार प्राप्त करना आवश्यक है।
हमारा जीवन आध्यात्मिक होना चाहिए। तभी हम सुखी रह सकते हैं। हम मात्र अच्छे वस्त्रों से ही सुखी नहीं रह सकते। अत: भौतिक जीवन-दृष्टि भी हमें सुख जीवन प्रदान नहीं कर सकती।
पदार्थ दो प्रकार के होते हैं : स्थूल और सूक्ष्म। स्थूल पदार्थ हैं : ऊंचे-ऊंचे भवन, मशीनें, कारखाने, अच्छी सड़कें, अच्छी कारें आदि और सूक्ष्म पदार्थ हैं : साहित्य, कला, काव्य, दर्शन आदि। लोग इन्हीं पदार्थों के माध्यम से सुखी होने का भी प्रयास करते हैं। हमें प्रभु के प्रति समर्पण का भाव बनाये रखना चाहिए। इसी से हम सुखी हो सकते हैं।
यदि हम भौतिक वस्तुओं को स्वीकार करते हुये सुखी रहने का प्रयत्न करेंगे तो यह संभव नहीं है। हमें पिष्ट-पेष्टन से बचना चाहिए, भौतिक पिष्ट-पेष्टन से कोई लाभ नहीं है। भौतिक पिष्ट-पेष्टन चूसे हुये को पुन: चूसना ही है। यह एक अंधी दौड़ है। इससे मुक्ति मिलनी आवश्यक है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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