छत्तीसगढ़ राज्य की दक्षिणी सीमा आंध्र प्रदेश को एवं पूर्वी सीमा उड़ीसा को स्पर्श करती है। इन्हीं सीमाओं पर बसे हैं दो जिले - बस्तर और रायगढ़। वन बहुल दोनों जिले सर्पों के धनी हैं। उत्तर बस्तर में एक डिप्टी कलेक्टर हैं, नाम है श्री तिरुपति झाड़ी; हमारे एक सहकर्मी चिकित्सक का नाम है - डॉ. सत्येन्द्र नाग। 'झाड़ी' और 'नाग' यहाँ के उपनाम हैं। ऐसे पड़ोसियों के मध्य आपको सदैव वनांचल और प्रकृति के समीप होने की अनुभूति बनी रहती है।
बस्तर और रायगढ़ को यदि आप 'नाग लोक' की संज्ञा देना चाहें तो किंचित भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। यहाँ न केवल सर्पों की संख्या अधिक है अपितु उनकी विभिन्न प्रजातियाँ भी पायी जाती हैं। ग्रीष्म और वर्षा ऋतुओं में सर्प यहाँ न केवल सड़कों पर विचरण करते मिल जाते हैं अपितु घरों में भी निर्भय हो प्रवेश कर जाते हैं।
दक्षिण बस्तर में एक गाँव का नाम है- आवापल्ली। 'आवा' का अर्थ है सर्प और 'पल्ली' का अर्थ है - घर: अर्थात् 'सर्प का घर'। मैंने अभी तक के अपने जीवन में जितने सर्प इस गाँव में देखे हैं, उतने अन्यत्र नहीं। प्रथम बार इसी गांव में मैंने कनिष्ठा (सबसे छोटी) अंगुली के समान पतले एवं लगभग दो मीटर लम्बे हरे रंग के विषधर को देखा। यह वृक्षों पर रहता है और हरे रंग का तथा पतला होने के कारण आसानी से छिप जाता है। स्थानीय लोगों ने इसे बड़ा फुर्तीला, क्रोधी एवं विषैला सर्प बताया। करैत यहाँ आसानी से मिल जाते हैं, घने जंगलों में अजगर भी हैं और निर्विष सर्पों की तो भरमार है।
वनवासी अंचल के इन गाँवों में एक बात ने मुझे बड़ा प्रभावित किया। प्रतिवर्ष अनेकों सर्पदंश एवं तज्जन्य (उससे सम्बन्धित) मृत्यु की घटनाओं के बाद भी यहाँ के लोग प्रायः सर्पों की हत्या नहीं करते। जैव संतुलन एवं परिस्थिति की दृष्टि से यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है। इस विषय में वनवासी हमारी अपेक्षा अधिक सभ्य हैं। यहाँ सर्पों की अकाल मृत्यु का सबसे प्रमुख कारण उनका ग्रीष्म ऋतु में सड़कों पर टहलना है, जिसके कारण वे आने जाने वाले वाहनों से दबकर मृत्यु के ग्रास बनते हैं।
सर्पों के प्रति हमें अपने दृष्टि दोष में परिवर्तन लाना होगा। मनुष्य के प्रति सर्प नहीं अपितु सर्प के प्रति मनुष्य ही अधिक आक्रामक होते हैं। सर्प अपनी प्रतिरक्षा में ही आक्रमण करते हैं। यदि हम इनके प्रति अन्य जीवों की तरह सामान्य या मित्रवत व्यवहार करें, तो ये आक्रामक नहीं होते। अभी जहां मैं पदस्थ हूँ, यहाँ औषधालय परिसर एवं हमारे आवास में सर्प प्रायः दृष्टिगोचर होते रहते हैं। मैं उनके चले जाने की प्रतीक्षा करता हूँ, सम्भवतः इसी कारण सहनिवास करते हुए भी सर्पों ने अभी तक मुझे किसी शिकायत का अवसर नहीं दिया है।
एक जनश्रुति के अनुसार गरुड़ वृक्ष की फली घर में रखने से सर्प प्रवेश नहीं कर पाते। मैंने परीक्षण के लिए गरुड़ की फली लाकर घर में रखी, किंतु घर में सर्पों का आना बंद नहीं हुआ। गरुड़ वृक्ष मूल को जल में घिसकर पिलाने से सर्पदंश में लाभ होने का विश्वास भी स्थानीय लोगों में है। यहाँ के जंगलों में सर्पगंधा नामक औषधि पायी जाती है।
कहते हैं कि सर्प युद्ध के समय नेवला सर्पदंश की जड़ को खाता रहता है। इन जनश्रुतियों का वैज्ञानिक परीक्षण किया जाना चाहिए। यह आवश्यक भी है क्योंकि वनवासी अंचलों में चिकित्सा अभाव से सर्पगंधा से मृत्यु की घटनाएं होती ही रहती हैं। प्राचीन काल में सिकंदर भारत से वापस जाते समय यहाँ के वैद्यों एवं विशेष तौर पर सर्पदंश चिकित्सा विशेषज्ञों को अपने साथ यूनान गया था।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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