 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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आरोग्यता - हमारे जीवन में अच्छे-बुरे सभी प्रारंभों फल भोगने का एक ही साधन (माध्यम) है, वह है हमारा शरीर। यदि यह स्वस्थ है तो हम सब कार्य बिना कष्ट पाये प्रसन्नता से कर सकेंगे। अतः शरीर का स्वस्थ होना अति आवश्यक है|
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ।
शरीर ही धर्म कार्यों के सम्पादन का साधन है। इसे स्वस्थ रखना अति आवश्यक है। जो स्वस्थ रहने की कला जानता है, वह बार-बार बीमार नहीं पड़ता। शरीर का मोटा होना स्वस्थ होने की पहचान नहीं है, यदि मनुष्य मोटा-ताजा है, परंतु उसमें स्फूर्ति नहीं है, उसके शरीर में रोगों के कीटाणु मौजूद हैं। उसके शरीर के भीतरी और बाहरी अंग अपना-अपना धर्म सही ढंग से नहीं निभाते तो वह मनुष्य रोगी है। स्वस्थ नहीं कहा जा सकता। आयुर्वेद में स्वस्थ मनुष्य की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः ।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ॥
अर्थात् वही मनुष्य पूर्ण स्वस्थ है, जिसके शरीर में वात अर्थात् स्नायुमण्डल (Nervous system) पित्त अर्थात् पाचकाग्नि एवं रक्त संवहन तन्त्र (Digestion and blood circulatory system) और कफ अर्थात् ओज (जीव शक्ति) और मलोत्सर्ग (Vitality and Exeretorus system) – ये तीनों निश्चित अवस्था में बराबर-बराबर एक समान हों और तीनों प्रणालियाँ यथावत् काम करती हों। जिसकी अग्नि सम हो, दहन न तीव्र हो न मन्द। जिसे खाया-पिया सही ढंग से पचता हो। समधातु अर्थात् रस, रक्त, मांस, मज्जा आदि समस्त शारीरिक धातुएँ कम अधिक न हों, वह स्वस्थ कहा जाता है।
जिसकी मलक्रिया अर्थात् शरीरगत मलों (मल, मूत्र, पसीना आदि शारीरिक गंदगी) - को भीतर से बाहर निकालने वाली प्रणाली समुचित कार्य करती है, वही स्वस्थ है।
आयुर्वेदाचार्य विष्णु दयाल जी वार्ष्णेय के मुताबिक यह अकाट्य सत्य है कि शरीर स्वस्थ होने पर ही प्राणिमात्र को सुख प्राप्त हो सकता है अन्यथा नहीं पहला सुख निरोगी काया।
 
 
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