Published By:धर्म पुराण डेस्क

हिंदू संस्कृति के अनुसार इस ब्रह्माण्ड में मुख्यतः 14 भुवन या लोक हैं..

सप्तपाताल – हिंदू संस्कृति के अनुसार इस ब्रह्माण्ड में मुख्यतः 14 भुवन या लोक हैं– 7 ऊर्ध्वलोक और 7 अधोलोक। इनमें अधोलोक को विलस्वर्ग भी कहा है। ये सब पृथ्वी के गर्भ में भूमि के नीचे हैं। इनका वैभव ऊर्ध्वलोकान्तर्गत स्वर्ग की अपेक्षा भी किंचित् अधिक वर्णित हुआ है। यहाँ दिन और रात का भेद नहीं है। 

अतः सुखोपभोग में कोई प्रत्यवाय नहीं है। इन सप्तपाताल रूप विचारों में रहने वाले जीव सदा आनंद में रहते हैं। यहाँ के सुखोपभोग और सौन्दर्य विलास को असुरों की कपट विद्या और माया ने बहुत समृद्ध किया है। इन भूगर्भात सात स्तर में से ..

(1) अतल में मयासुर पुत्र वल स्वामी है, 

(2) वितल में हाटकेश्वर शंकर भवानी के साथ युग्म भाव से रहते हैं, 

(3) सुतल सुप्रसिद्ध बली राजा का स्थान है। ये तीनों स्तर आपोमय माने जाते हैं। 

(4) तलातल में मयासुर का राज्य है,

(5) महातल में क्रोधवश नामक सर्प-समुदाय का निवास है, 

(6) रसातल में दैत्य और दानव रहते हैं। ये तीन स्तर अग्निमय माने जाते हैं। 

(7) पाताल प्राण अग्निमय है और यहाँ नागों के अधिपति रहते हैं। 

सप्तस्वर्ग-सात ऊर्ध्वलोक में (1) भूर्लोक और (2) भुवर्लोक को भौम स्वर्ग कहते हैं। इन दोनों के भीतर सूर्य, चन्द्र, ध्रुव, नक्षत्र, पृथ्वी आदि सब स्थूल लोक आ जाते हैं । 

इनके ऊपर स्थित दिव्य स्वर्ग में से (3) तीसरे स्वर्लोक को माहेन्द्र स्वर्ग कहते हैं, (4) महर्लोक को प्राजापत्य स्वर्ग, (5) जनलोक, (6) तपोलोक और (7) सत्यलोक-इन तीनों लोकों को ब्रह्म स्वर्ग कहते हैं। इन पांच दिव्य स्वर्गों में सात्विक अंश की अधिकता है और वे एक-से-एक बढ़कर हैं| 

जम्बूद्वीप:

भू-लोक के अंतर्गत जो अनेक भाग या उपलोक हैं, वे हमारे इस स्थूल मृत्युलोक से सूक्ष्म और इस कारण सामान्यतः अदृश्य होने के कारण इहलोक से भिन्न परलोक माने गये हैं। उनमें उपरिनिर्दिष्ट सप्तद्वीप और सप्त समुद्र स्थूल नहीं, किंतु पृथ्वी के चारों ओर सूक्ष्म द्रव्य के विभाग हैं। 

उनमें जम्बूद्वीप केन्द्र है और उसके गर्भ में पृथ्वी है। इस जम्बूद्वीप के (1) इलावृत, (2) भद्राश्व, (3) किंपुरुष, (4) भारत, (5) हरि, (6) केतुमाल, (7) रम्यक, (8) कुरु और (9) हिरण्यमय-ये नव वर्ष यानी विभाग हैं। 

इनमें भारतवर्ष ही मृत्युलोक और अन्य सब देवलोक हैं। इनमें इलावृत बीचो बीच है और उसके नाभिस्थान में मेरु पर्वत है। यह पर्वत स्थूल पाषाण मय नहीं, बल्कि एक शक्तिमय आधारस्तंभ है। 

इन नौ वर्षों के उपास्यदेव यथाक्रम (1) श्री शंकर (2) श्री हयग्रीव (3) श्री मारुति (4) श्री नर-नारायण, (5) श्री नृसिंह, (6) श्री कामदेव, (7) श्री वैवस्वत मनु, (8) श्री कूर्मावतार और (9) श्री यज्ञ पुरुष वाराह हैं। 

इसी जम्बूद्वीप में (1) नरक लोक (2) पितृलोक और (3) प्रेतलोक स्थित है। इस प्रकार हमारे ब्रह्मांड के 14 भुवनों, 7 द्वीपों, 9 वर्षों और 3 लोकों में मृत्युलोक यानी भारत वर्ष अखिल ब्रह्माण्ड का 1/1176 वाँ अंश है और इसके नौ विभागों में से एक|

नरक लोक:

जम्बूद्वीप के नौ वर्ष निर्दिष्ट हुए। अब उसी के अन्तर्गत नरक लोक, प्रेतलोक और पितृलोक के विवरण आगे देते हैं। इस जम्बूद्वीप के चतुर्दिक इतना ही बड़ा वातावरण रूप लवण समुद्र है। उसी के साथ भारत वर्ष के नीचे मुख्य सात नरक लोक हैं। इन्हें आवरण लोक कहते हैं। 

इनके सूर्य-नाड़ियों के हिसाब से 7, और 27 नक्षत्रों के हिसाब से 27 तथा अभिजित् मिलाकर 28 विभाग माने गये हैं। इनमें ये 21 मुख्य हैं- 

(1) तामिस्र- इसमें परस्त्री-परधन-हरण का यम दण्ड भोगना पड़ता है, उससे जीव मूर्छित हो जाते हैं। 

(2) अंधतामिस्र- इसमें धोखा देकर परस्त्री-परधन-हरण करने का यह दंड मिलता है कि बुद्धिनाश और दृष्टिनाश हो जाता है और विविध यातनाएं भोगनी पड़ती हैं। 

(3) रौरव- इसमें देहाभिमान, परपीड़ा और अन्याय करने का यह दंड मिलता है कि उसे कृमियों का आहार बनना पड़ता है। 

(4) महारौरव-इसमें परद्रोह के दंडस्वरूप जीव को क्रव्याद प्राणी खाते हैं। 

(5) कुम्भीपाक-इसमें जीवित पशु-पक्षियों को उबालने के पाप का यह फल मिलता है कि जीव तेल में तले जाते हैं। 

(6) कालसूत्र- इसमें वेद, ब्राह्मण और पिता का द्रोह करने के पाप में अग्निदाह, भूख और प्यास का दुःख दीर्घ काल तक भोगना पड़ता है। 

(7) असिपत्रवन-इसमें पाखण्डी लोग तलवार की सी धार वाले ताड़पत्रों से काटे जाते हैं। 

(8) सूकर मुख इसमें अन्यायी राजाओं को ऊख की तरह पेरा जाता है। 

(9) अन्धकूप- इसमें अन्य प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने वाले उन-उन प्राणियों द्वारा पीड़ित किए जाते हैं। 

(10) कृमि भोजन- इसमें पंचमहायज्ञ न करने वालों को कृमियों पर निर्वाह करना पड़ता है। 

(11) संदंश- इसमें चोरी के अपराध र्मे लाल पलीतों से भूनते हैं| 

(12) तप्तसूर्मि इसमें व्यभिचार के पाप में तप्त पुतले से बांधकर मारते हैं। 

(13) वज्रकण्टक शाल्मलि- इसमें पश्वादिगमन के पाप में काँटों पर से खींचते हैं। 

(14) वैतरणी-इसमें धर्म विरोधी राजाओं और राज सेवकों की विष्ठा-मूत्र-पीब आदि अमंगल प्रवाहों में डाल दिया जाता है। 

(15) पयोद- इसमें कर्मभ्रष्ट और शूद्र-स्त्री- समागम करने वाले अमंगल विष्ठा-मूत्रादि में गिरकर वही भक्षण करते हैं। 

(16) प्राणरोध- इसमें हिंसादि निषिद्ध कर्म करने वाले ब्राह्मणों की यमदूतों द्वारा हिंसा की जाती है। 

(17) विशसन-इसमें मांसभक्षण के लोभ से यज्ञ-याग करने वाले ब्राह्मण यमदूत द्वारा काटे जाते हैं। 

(18) लाला भक्ष- इसमें स्त्री पर बलात्कार करने के पाप में रेतः प्राशन करना पड़ता है। 

(19) सारमेय दन- इसमें प्रजा पीड़न करने वाले राजा और राज सेवक कुत्तों द्वारा नोचे जाते हैं। 

(20) अवीचि इसमें झूठ बोलने वालों को पत्थर पर पटक कर उनके टुकड़े किये जाते हैं। 

(21) अय: पान- इसमें मद्यपान किये हुए ब्राह्मण के मुँह में लोहे का गरम पानी छोड़ा जाता है। 

(22) क्षारकर्दम- इसमें विद्वानों का अपमान करने के अपराध में बहुत कठिन यातनाएं भोगनी पड़ती है। 

(23) रक्षोगण भोजन- इसमें नर-मांस खाने वाले कुल्हाड़ी से तोड़े जाते हैं। 

(24) शूलप्रोत- इसमें विश्वासघात करने वाले को शूली पर चढ़ाया जाता है। 

(25) दन्दशूक- इसमें प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने वालों को साँपों से पीड़ा पहुंचाई जाती है। 

(26) अवटनिरोधन- प्राणियों को बंद करने के पाप में आग और धुएं से गला घोंटा जाता है। 

(27) पर्यावर्तन- अतिथि की ओर क्रूर दृष्टि से देखने के पाप में पक्षियों से आंखें फोड़कर निकलवायी जाती हैं। 

(28) सूचीमुख - इसमें कृतघ्नता, कृपणता, द्रव्य लोभ इत्यादि दोषों के फलस्वरूप नाना प्रकार की भयंकर यातनाएं भोगनी पड़ती है| 

अन्य पुराणों में ऐसे ही सैकड़ों नरक बताये गये हैं। इनमें जो पाप और उनके फल गिनाये गये हैं, उन्हें उपलक्षण ही जानना होगा। सारोद्धार गरुड़पुराणमें चौरासी लाख नरक बतलाये हैं। इस छोटे-से लेख में इस कटु विषय का अधिक विस्तार उचित नहीं जँचता। लोग पाप कर्मों से निवृत्त हो यही इस वर्णन का अभिप्राय मालूम होता है।

पितृलोक:

नरक लोक के समीप ही यम लोक है। उसे पितृलोक कहते हैं। भू-लोक में ही दक्षिण और पृथ्वी के नीचे और अतल लोक के ऊपर नित्य-नैमित्तिक पितृगण रहते हैं। नित्य पितर अमर होते हैं। मनुष्यों से ये भिन्न हैं। इनकी उत्पत्ति पृथक् और स्वतन्त्र रूप से हुई है | इन्हें देव भी कहा है। यहाँ से मृत होकर ऊपर गए हुए जो पितर हैं, वे नैमित्तिक हैं।

पितरों में यम प्रथम पितर माने गये हैं। मृत जीवात्माओं की यथायोग्य व्यवस्था करना इन्हीं का काम है। मृतकों के ये मार्गदर्शक हैं। नित्य-नैमित्तिक पितरों में इहलोक का नियमन करने की सामर्थ्य है, इसी से पितृ पूजन का विशेष महत्व है। ऋग्वेद से लेकर पुराणों तक पितृ पूजन का वर्णन स्थान-स्थान में आया है। 

स्वर्गलोक का द्वार ईशान में है और पितृ लोक का द्वार आग्नेय दिशा मेंदेवों और पितरों के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। पितरों के अनेक वर्ग हैं। ये सब एक ही स्थान में हों, ऐसा नहीं मालूम होता। वेदों में इस आशय की प्रार्थनाएँ हैं कि जो पितर पृथ्वी पर हैं, वे उन्नत स्थान को प्राप्त हों; जो स्वर्ग में अर्थात उच्च स्थान में हैं, वे वहाँ से कभी च्युत न हों; और जो मध्यम स्थान का आश्रय लिये हुए हैं, वे उन्नत पद को प्राप्त हों | इस प्रकार श्राद्धादि कर्म-कर्ता और पितर दोनों का ही उपकार करने वाले होते हैं, यह श्राद्ध कर्म में की जाने वाली प्रार्थनाओं से स्पष्ट होता है।

प्रेतलोक:

भारतवर्ष के चारों ओर निकट अंतरिक्ष में प्रेतलोक स्थित है। जो जीव मृत्यु के पश्चात् भूकर्षित होते हैं। और विभिन्न वासनाओं के वश नीचे आकर्षित होते हैं, वे कुछ काल प्रेतलोक में रहते हैं। प्रेत वायुरूप होते हैं। और श्मशान, कब्रिस्तान, अन्धकार, शून्य और उजड़े हुए स्थानों में रहते हैं। 

मनुस्मृति अ०12 में मरणोत्तर प्रेतत्व प्राप्त होने के कारणों में कुछ उदाहरण दिए हैं। पर इनके सिवा और भी कारण हो सकते हैं। भूत, पिशाच, ब्रह्मराक्षस, ब्रह्मसम्बन्ध, जिंद, बेताल आदि प्रेत योनियां ही हैं। सूर्यप्रकाश में इनका बल कम होता है। इन्हें कुछ खाने-पीने को दिया जाय तो ये आघ्राणमात्र से तृप्त होते हैं। मानसिक रूप से भी कुछ दिया जाय तो इन्हें मिल जाता है। 

अन्त्येष्टि, श्राद्ध, गया में पिंडदान, नारायण-नागबली आदि विधियों से प्रेतलोक से प्रेतों का उद्धार होता है। प्रेतयोनि क्लेशकारक ही मानी गयी है। प्रेत कभी आकार धारण किये देख पड़ते हैं। कभी दीया, ज्वाला, आवाज, उत्पाद, किसी के शरीर में संचार आदि रूपों में वे गोचर होते हैं। 

शंख-घण्टा, ध्वनि, भगवान की आरती, मंत्र पाठ, नाम-स्मरण, शास्त्र चर्चा, पवित्र वातावरण, कुछ पवित्र धूप इत्यादि से प्रेत स्थान छोड़कर चले जाते हैं। प्रेतलोक के जीवों में बड़ी अशान्ति, तीव्र मनोविकार, प्रबल वासना और अज्ञानके होनेसे प्रेतयोनि बहुत कष्टदायक होती है।

सप्तद्वीप:

यहाँ तक भूलोकान्तर्गत जम्बूद्वीप का वर्णन हुआ। इस जम्बूद्वीप के चतुर्दिक् वातावरण रूप लवण समुद्र है। उसके चतुर्दिक् उससे द्विगुण प्लक्षद्वीप है। जिस प्रकार जम्बूद्वीप नाम जामुन के वृक्ष के नाम पर है, वैसे ही प्लक्षद्वीप में प्लक्ष अर्थात पाकर का वृक्ष माना है। 

यहाँ के उपास्य देव सूर्य हैं। इस द्वीप के चौतरफा उतना ही बड़ा इक्षुरस-समुद्र है। उसके चौतरफा से द्विगुण शाल्मलि द्वीप है। वहाँ चन्द्रमा की उपासना होती है। इसके चौतरफ सोमासमुद्र है। उसे घेरे हुए उससे द्विगुण कुशद्वीप है। 

यहाँ के लोग अग्नि की आराधना करते हैं। इसके बाहर घृत समुद्र है और उसे घेरे हुए क्रौंचद्वीप है। यहाँ क्रौंच नामक पर्वत है। यहाँ के लोग जल-देवता के पूजक हैं। इसके चौतरफ क्षार समुद्र है और उसे घेरे हुए शाकद्वीप है। यहाँ वायु की उपासना होती है। इसके चौतरफ दधिमण्ड-समुद्र है और उसे घेरे हुए पुष्करद्वीप है। 

पुष्करद्वीप के चौतरफ शुद्धोदक समुद्र है। यहाँ के लोग ब्रह्म प्राप्ति के पथ पर विचरते हैं। इस द्वीप के परे लोकालोक-पर्वत है। इन द्वीपों में से प्रत्येक के सात-सात विभाग हैं। यहाँ की नदियों, पर्वतों और लोक-समाजों का वर्णन पुराणों में है। यह सारा वर्णन लाक्षणिक है। 

सप्तलोक:

यहाँ तक सप्तलोक अंतर्गत भूलोक का वर्णन हुआ। इसके ऊपर दूसरा ऊर्ध्वलोक भुवर्लोक है। यह भू और सूर्य के बीच में है। इसमें सिद्ध और मुनि निवास करते हैं। सूर्य की परली तरफ ध्रुव पर्यंत चौदह लाख योजन विस्तार स्वर्गलोक है। ये पूर्वोक्त तीनो लोक कृतक अर्थात नाशवान् माने गये हैं। इनके ऊपर ध्रुव की परली तरफ एक कोटि योजन विस्तृत महर्लोक है। 

यहाँ एक कल्प तक जीवित रहने वाले महात्मा रहते हैं। इसके ऊपर दो कोटि योजन जनलोक है। यहाँ शुद्धान्त:करण ब्रह्मकुमार सनन्दनादि महात्मा रहते हैं। इसके ऊपर इससे चतुर्गुण तपोलोक है। वहाँ देह रहित वैराज आदि देवता रहते हैं। तपोलोक के ऊपर उससे षड्गुण सत्यलोक है। वहाँ सिद्धादि मुनिजन निवास करते हैं। 

ये जनन-मरण से मुक्त हैं। महर्लोक में मानसिक राज्य पर अधिकार, जनलोक में इन्द्रिय सुख से विराग, तपोलोक में बुद्धि राज्य पर और सतलोक में प्रकृति राज्य पर अधिकार होता है। ये इन चार लोकों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। ये लोक साधारण मनुष्यों को नहीं प्राप्त होते । प्रथम तीन लोक सबके आश्रय लेने योग्य हैं। 

वैज्ञानिक पृथ्वी मंडल को भूर्लोक, चन्द्र लोक को भुवर्लोक, सूर्यमण्डल को स्वर्लोक, परमेष्ठी मंडल को महर्लोक और जनलोक तथा स्वयम्भू मंडल को तपोलोक और सतलोक मानते हैं। और खगोलीय त्रैलोक्य का इस प्रकार विभाग करते हैं- उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी में 24 अंश तक स्वर्ग, उसके आगे 42 अंश तक अन्तरिक्ष और उसके आगे 48 अंश पृथ्वी, उसके नीचे दक्षिण और ४२ अंश पितृलोक और उसके नीचे 24 अंश नरक लोक। 

असंख्य लोक यहाँ तक हिंदू संस्कृति-सम्मत परलोकों का मुख्य विवरण अत्यंत संक्षेप से दिया गया। वस्तुतः परलोकों की पूरी गणना करना असम्भव है। शाक्त ग्रन्थों में शुद्धाशुद्ध तत्त्वों और शान्त्यतीतादि पंचकलाओंके 240 भुवन माने गये हैं| 

पुराणों में इन्द्रसभा, वरुण सभा इत्यादि सभाओं के नामों से लोक वर्णन किये गये हैं। वायु, अग्नि, विद्युत आदि विभिन्न तत्त्वों के लोक, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र वरुण, यम इत्यादि देवताओं के लोक, उसी प्रकार तंगणपुत्र - सृष्टि, विश्वामित्र-सृष्टि, सिद्ध-ऋषि-मुनियों की विविध सिद्ध संकल्प सृष्टि आदि|

असंख्य लोक-प्रकार पुराणों में वर्णित हैं। इनमें चतुर्दश भुवनों की उपपत्ति सुनिश्चित विवरण दिया गया। और मुख्य हिंदू-संस्कृति के पुराण ग्रन्थ परोक्ष, गूढ़, लाक्षणिक, होने से उन्हीं का अर्थवादात्मक और आलंकारिक भाषा में लिखे हुए हैं कहीं-कहीं लोकरंजनार्थ काल्पनिक वर्णन भी हैं इस कारण परलोक-जैसे अदृष्ट और गूढ़ विषय के वर्णनों में सन्दिग्धता और विसंगतता दिखाई दे तो आश्चर्य की बात नहीं। 

इस दुर्जेय विषय का यथार्थ ज्ञान होने के लिये योगसाधना और तद्विद का समाश्रयण - ये ही दो मार्ग प्रशस्त हैं। पर ये भी दुस्साध्य ही हैं। मेरे लिये तो असाध्य ही हो गये। ऐसी अवस्था में मैंने इस विषय में अपनी अनेक शंकाओं के समाधान के लिये श्री शिव गुरु की अन्तःस्थ प्रेरणा का भरोसा करके आधुनिक परलोक विद्या प्रयोगों का अवलंबन किया और परलोक के स्वरूप, संख्या और स्थान के विषय में परलोक में स्थित स्वधर्मी तथा परधर्मी परलोक गत व्यक्तियों से आधुनिक परलोक विद्या साधनों के द्वारा बातचीत करके कुछ उद्बोधक तथ्य प्राप्त किये।

परंतु आधुनिक पद्धति से अदृष्ट व्यक्तियों के साथ किए हुए इन संवादों को हिंदू संस्कृति के वाङ्मय में समाविष्ट करने के लिये आज की हिंदू संस्कृतनिष्ठ जनता तैयार नहीं हो सकती। इनका प्रामाण्य कम-से-कम अभी तो विवादास्पद है। 

लेखक सदाशिव कृष्ण फड़के


 

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