Published By:दिनेश मालवीय

महाभारत के अनुसार विभिन्न तीर्थों का क्रम महत्त्व, यज्ञों से भी बढ़कर है तीर्थयात्रा, सभी वर्णों को है तीर्थयात्रा का अधिकार मिलता है समान फल.. दिनेश मालवीय

भारत के कोने-कोने में असंख्य तीर्थस्थल हैं. हर एक तीर्थस्थल और उसकी यात्रा का अपना-अपना विशिष्ट महत्व है. राजनैतिक सत्ताएँ आती-जाती रहीं, लेकिन इन तीर्थस्थलों ने युगों-युगों से भारतवर्ष को एक सूत्र में पिरोकर रखा है. सबसे बड़ी बात यह है, कि तीर्थस्थलों में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होता. सभी वर्गों के लोग तीर्थसेवन के पात्र होते हैं और उन्हें एकसमान फल प्राप्त होता है. महाभारत के वनपर्व में इसका बहुत विस्तृत वर्णन किया गया है. वनपर्व में विवरण के अनुसार अपने गंगाद्वार (अब हरिद्वार) में निवास के दौरान भीष्म पितामह ने ऋषि पुलस्त्य से कहा, कि मुझे तीर्थयात्रा और उनके महात्म्य के विषय में कुछ संशय है, आप उसका समाधान कीजिए.

 

ऋषि पुलस्त्य ने कहा, कि जिसके हाथ,पैर और मन अपने काबू में हों तथा जो विद्या, तप  और कीर्ति से संपन्न हो, वही तीर्थसेवन का फल पाता है. जो व्यक्ति लोभ और अहंकार से रहित हो, उसे ही तीर्थ्याता का फल मिलता है. जो व्यक्ति संतुलित जीवन जीता हो, अर्थात अल्पाहारी और जितेन्द्रिय हो,जिसमें क्रोध नहीं और जो सत्य के प्रति आग्रहशील हो, उसे ही तीर्थयात्रा का फल मिलता है. जो व्यक्ति सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव रखता हो, वही तीर्थयात्रा का फल पाने का पात्र होता है. जो मनुष्य तीर्थस्थल में तीन रात तक उपवास और दान-पुण्य नहीं करता, उसे तीर्थयात्रा का फल नहीं मिलता. ऋषि पुलस्त्य ने कहा, कि तीर्थयात्रा बड़ा पवित्र सत्कर्म है, जो यज्ञों से भी बढ़कर है. इसके बाद पुलस्त्यजी ने तीर्थयात्रा का कर्म बताया.

 

ऋषि पुलस्त्य ने सबसे पहले पुष्कर” तीर्थ के विषय में बताया. उन्होंने कहा, कि मनुष्यलोक में ब्रह्माजी का यह त्रिलोक-विख्यात तीर्थ है. बहुत बड़भागी मनुष्य ही इसमें प्रवेश पाता है. पुष्कर में सहस्त्र कोटि तीर्थों का हर समय निवास रहता है. वहाँ आदित्य, वसु, रूद्र, साध्य, मरुद्गण, गन्धर्व और अप्सराओंका भी नित्य निवास रहता है. वहां तप करके देवता, दैत्य अरु ब्रह्मर्षि महान पुण्य से संपन्न होकर दिव्य योग से युक्त होते हैं. जो मनस्वी मनुष्य मन से भी पुष्कर तीर्थ में जाने की इच्छा करता है, उसके स्वर्ग के प्रतिबंधक सारे पाप मिट जाते हैं.

 

पुष्कर में कमलासन भगवान् ब्रह्माजी नित्य ही बड़ी प्रसन्नता के साथ निवास करते हैं. पुष्कर में पहले देवता और ऋषि महान पुण्य से संपन्न हो सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं. जो व्यक्ति वहां स्नान कर देवताओं और पितरों की पूजा करता है, उसे अश्वमेध यज्ञ से दस गुना फल प्राप्त होता है. पुष्कर में कम से कम एक ब्राह्मण को भोजन अवश्य करवाना चाहिए. उस पुण्यकर्म से मनुष्य इस लोक में और परलोक में आनंद का भागी होता है. वह तीर्थयात्रा में जो सात्विक आहार लेता है, वही ब्राह्मण को दान करे. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारों वर्ण के लोग ब्रह्माजी के तीर्थ में स्नान कर फिर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते.

 

पुलस्त्यजी ने कहा, कि जो मनुष्य विशेषकर कार्तिक माह की  पूर्णिमा को पुष्कर तीर्थ में स्नान करता है, वह ब्रह्मधाम में अक्षय लोकों को प्राप्त होता है. जिस प्रकार भगवान् विष्णु सब देवताओं के आदि हैं, वैसे ही पुष्कर सभी तीर्थों का आदि है. वहाँ तीन शुभ्र पर्वतशिखर, तीन सोते और और तीन पुष्कर आदि तीर्थ हैं. पुलस्त्यजी कहते हैं, कि पुष्कर तीर्थ का सेवन कर यात्री को जम्बूमार्ग को जाना चाहिए. यह देवताओं, ऋषियों और पितरों से सेवित तीर्थ है.वहां जाकर मनुष्य को सभी वांछित भोगों के साथ ही अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है. वहां पांच रत निवास करने से मनुष्य का अंत:करण पवित्र हो जता है. उसे कभी दुर्गति प्राप्त नहीं होती. वह उत्तम सिद्धि प्राप्त करता है.

 

जम्बूमार्ग से लौटकर मनुष्य को तन्दुलिकाश्रम को जाना चाहिए. वहां जाने वाला दुर्गति में नहीं पड़ता और अंत में ब्रह्मलोक को चला जाता है. जो व्यक्ति अगस्त्य सरोवर जाकर देवताओं और पितरों की पूजा करते हुए तीन रात उपवास करता है, उसे अग्निष्टोमयज्ञ का फल मिलता है. व्यक्ति को शाकाहार और फलाहार करके रहे हुए फिर कुमारलोक (कातिकेय्लोक) में जाना चाहिए. वहाँ से लोकपूजित कण्व के आश्रम में जाना चाहिए, जो देवी लक्ष्मी द्वारा पूजित है. उसे धर्मारण्य कहा जाता है. इसके बाद इस तीर्थ की परिक्रमा करके ययातिपतन नामक तीर्थ में जाना चाहीये. वहाँ से महाकालतीर्थ जाकर में कोटितीर्थ में आचमन और स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है.

 

वहां से भगवान् शिव के उस तीर्थ में जाना चाहिए, जो तीनों  लोगों में “भद्रवट” के नाम से प्रसिद्ध है. वहाँसे त्रिभुवनविख्यात नर्मदा नदी  के तट पर जाकर देवताओं और पितरों का तर्पण करना चाहिए. इससे अग्निष्टोमयज्ञ का फल मिलता है. तदनंतर दक्षिण समुद्र की यात्रा करने से मनुय को अगिष्टोम यज्ञ का फल मिलता है. वहाँ से आगे हिमालयपुत्र अर्बुद (आबू) की यात्रा करनी चाहिए, जहाँ पहले पृथ्वी में विवर  था. वहां महर्षि वसिष्ठ का त्रिलोकविख्यात आश्रम है. वहाँ एक रात निवास करने पर हज़ार गोदान का फल मिलता है. जसमे बाद पिंगलतीर्थ में स्नान और आचमन करना चाहिए.

 

इसके बाद प्रभास तीर्थ में जाना चाहिए, जहाँ देवताओं के मुखस्वरूप भगवान् अग्निदेव सदा निवास करते हैं. इसके बाद सरस्वती और समुद्र के संगम में स्नान करना चाहिए. इस स्थान पर महर्षि दुर्वासा ने श्रीकृष्ण को वरदान दिया था.  वहाँ से द्वारका जाना चाहिए. पिंडारक तीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को अधिकाधिक स्वर्ण की प्राप्ति होती है. उस तीर्थ में आज भी कमल के चिन्हों से चिन्हित सुवर्ण मुद्राएँ देखी जाती हैं. जहाँ त्रिशूल अंकित कमल दिखाई देते हैं, वहां महादेवजी का निवास है. सागर और सिन्धु नदी के संगम में जाकर वरुणातीर्थ करके देवताओं, ऋषियों और पितरों का पूजन करना चाहिए. इसके बाद त्रिभुवन विख्यात “दमी” नामक तीर्थ में जाना चाहिए, जहाँ ब्रह्मा आदि देवता भगवान् महेश्वर की उपासना करते हैं. वहाँ से वसुधारा तीर्थ जाना चाहिए.

 

 

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