Published By:धर्म पुराण डेस्क

आखिर क्यों सुरक्षित नहीं हैं हमारी बेटियां?

बेटियों के साथ अपराधों का बढ़ता शाफ, असुरक्षा की भावना का हद पार कर जाना और इस सहगे डरे माहौल में बेटियों का भयभीत होकर जीना...आखिर ये कौन से समाज की तस्वीर है? उत्पीड़न देने वाला भयहीन है और उत्पीड़न झेलने वाला भस्त है। 

क्या मनुष्य को फिर से मनुष्य बनने की ट्रेनिंग देनी होगी?

डॉक्टर मोनिका शर्मा कहती हैं बरसों से देश की हर स्त्री का मन पीड़ा और भय के एक अनचाहे मेल को जी रहा है। कानून, समाज और घर-परिवार, सब बेबस नजर आते हैं। न बदलाव की कोई उम्मीद, न त्वरित कार्रवाई का सिस्टम और न ही दोषियों को सजा दिए जाने के उदाहरण| 

तभी तो निर्भया कांड के बाद बीते सात सालों में भी न जाने कितनी निर्भया उस कुत्सित सोच का शिकार हो गई, जो आए दिन दुष्कर्म की घटनाओं में हद दर्जे की दरिंदगी बनकर सामने आती है। हर बार बर्बरता की नई मिसाल कायम की जाती है, निर्ममता के रिकॉर्डस टूट जाते हैं।

हैरत होती है कि इंसान ही ऐसे हादसों को अंजाम दे रहे हैं। अफसोस कि हैदराबाद में अपनी ड्यूटी से लौट रही वेटनरी महिला डॉक्टर के साथ हुई निर्दयता इंसानों के इसी वहशीपन की बानगी वन फिर सामने आई है। देश की एक और लायक बेटी सिस्टम की लचरता और इंसानों की पशुतापूर्ण मानसिकता की भेंट चढ़ गई। ऐसे में हमारे समाज और सिस्टम के सामने कई अहम सवाल हैं-

कहां हैं इस कुत्सित मानसिकता की जड़ें?

बेटियों के साथ हैवानियत की हद पार करने वाले दुर्व्यवहार वाली मानसिकता की जड़ें आखिर कहां से पोषण पा रही हैं? सूखती संवेदनाओं की बानगी बन सामने आने वाले ऐसे वाक्य बताते हैं कि शिक्षा, जागरूकता और कानूनी सख्ती भी इन पर लगाम नहीं लगा पा रही है। 

अफसोस कि ऐसी घटनाओं में की जा रही बर्बरता और हिंसा बढ़ ही रही है। मासूम बच्चियों की अस्मिता से भी खेला जा रहा है। महिलाओं को इंसान तक न समझने की कुत्सित सोच का ही नतीजा है कि हर उम्र की महिलाओं के साथ ऐसी अमानवीयता के मामले आए दिन सुर्खियां बनते हैं। ऐसे में समाज को इस कुत्सित मानसिकता की जड़ें तलाशनी ही होंगी।

जरा तो सोचें: जरूरी है कि अब हर परिवार अपने बेटों की सोच और समझ की दिशा के प्रति सचेत रहे। साथ ही अपने घर-परिवार के माहौल को भी सकारात्मक रखें। 

अगर घर में ही महिलाओं के प्रति सम्मानजनक माहौल नहीं है, तो नई पीढ़ी की मानसिकता ऐसे दुर्व्यवहार को सहज समझने लगती है। उनका अहं इस नकारात्मकं व्यवहार से खाद-पानी लेता है। जिसकी परिणति कई बार ऐसे भयावह हादसों के रूप में सामने आती है। परिवारों और समाज में यह सोच स्थापित होनी जरूरी है कि महिलाएं सम्मान की पात्र हैं न कि प्रताड़ना की।

कैसे पोषण पा रही है यह पशुता?

स्मार्ट फोन के जरिए मुट्ठी में मौजूद गंदगी यानी कि पोर्न भी ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। डिजिटल दुनिया का यह अश्लील अंधेरा इंसानी सोच-समझ को लील रहा है। यह नीला जहर हमारे यहां बिना किसी रोक-टोक के उपलब्ध है। 

आज छोटे बच्चों से लेकर दिहाड़ी मजदूर तक, थोक के भाव परोसी जा रही इस अश्लीलता के जाल में हैं। महानगरों से लेकर दूर-दराज के गांवों तक विकृत मानसिकता को जन्म देने वाली यह अश्लील सामग्री अपनी जगह बना चुकी है। 

नतीजा हम सबके सामने है। जहां एक ओर कम उम्र में ही बच्चों की मासूमियत गुम हो रही है वहीं दूसरी ओर युवाओं के मनोविज्ञान को ये मनगढ़ंत क्लिप्स विक्षिप्तता की कगार पर ले जा रही हैं। तभी तो दुष्कर्म जैसे अमानवीय कृत्य भी पोर्न साइट्स पर ट्रेंड करते हैं।

जरा तो सोचें: हैदराबाद की बर्बर घटना के बाद भी दुष्कर्म और हत्या मामले में सोशल मीडिया पर पीड़िता के बारे में अभद्र टिप्पणी तक की गई है। इतना ही नहीं लाखों लोगों ने पोर्न साइट्स पर इस घटना का वीडियो सर्व किया था। 

आखिर कौन है वो लोग जो एक बेटी के बलात्कार का वीडियो देखने की लालसा रखते हैं? यह कैसी पूर्ण मानसिकता है जो एक एक स्त्री को जलाए जाने के वीडियो देखने की इच्छा रखती है? 

सचमुच, लगता है जैसे सारी मर्यादाएं मैली सोच का शिकार हो गई हैं। इंसानियत भरी सोच का हर पहलू हाशिये पर धकेल दिया गया है। तकनीक की पहुंच ने जागरूकता की जगह जद्दोजहद बढ़ा दी है और एक नई तरह की जाहिलियत को जन्म दिया है। घर के भीतर अपनों का दुर्व्यवहार हो या नाबालिग बच्चियों के शोषण के मामले, हर उम्र, हर तबके की महिलाओं के साथ आपराधिक घटनाएं हुई हैं। 

गिरते नैतिक मूल्य, बिखरते घर-परिवार, सिस्टम की लापरवाही और कानूनी लचरता जैसे कारण एक भयभीत करने वाला सामाजिक पारिवारिक परिवेश बना रहे हैं। ऐसी घटनाओं की बढ़ती संख्या से देश की आधी आबादी ही नहीं पूरा समाज चिंतित है। बेटियों के अभिभावक डरे-डरे से हैं। 

हर बार इन जघन्य वारदातों पर संसद से लेकर सड़क तक आवाज उठाई जाती है। एक ओर सरकार संवेदना जाहिर करती है तो दूसरी ओर आम लोग विरोध दर्ज करवाते हैं लेकिन बदलाव के नाम पर कुछ नहीं बदलता। 

सारी संवेदनाएं और जन प्रतिरोध की आवाजें हर बार लंबित मामलों की फेहरिस्त और सुस्त जांच प्रक्रिया की भेंट चढ़ जाते हैं। जाने कितनी ही सिसकियां हमारी लचर व्यवस्था के बोझ तले दबकर रह जाती हैं। 

जरा तो सोचें: दुष्कर्म के मामलों में रिपोर्टिंग हो या जांच प्रक्रिया संवेदना और समझ नाबालिगों के मामले में भी नहीं दिखाई जाती। 

आज भी देश के अधिकांश थानों में महिला डेस्क तक नहीं है। यहां तक कि एफआईआर दर्ज करने में भी आनाकानी की जाती है। न्याय की आस में बरसों बरस बीत जाते हैं। कई बार पीड़िता और उसके परिवार को समाज का भी रूखा और असहयोगी रवैया झेलना पड़ता है। हमारे यहां त्वरित न्याय की राह में इतने रोड़े हैं कि किसी की भी हिम्मत टूट जाए। ऐसी सभी बातें अपराधियों के हौसले और इन घटनाओं के आंकड़े बढ़ाती हैं।
 

धर्म जगत

SEE MORE...........