Published By:दिनेश मालवीय
अग्नि पुराण संक्षेप: इसे ज्ञान का विश्वकोश कहा जा सकता है
“अग्नि पुराण” ऐसा ग्रंथ है, जिसे ज्ञान का भण्डार कहा जाता है. इसे स्वयं अग्नि देवता ने महर्षि वसिष्ठ को सुनाया है. इसमें सभी विद्याओं का वर्णन है. आकार में छोटा होने पर भी इसमें 383 अध्याय हैं. इस पुराण में ‘गीता’, ‘रामायण’, महाभारत’ और ‘हरिवंश पुराण’ का विशेष रूप से परिचय है. इसमें परा-अपरा विद्याओं का वर्णन है. मत्स्य, कूर्म आदि अवतारों की कथाएं भी हैं. इसमें श्रृष्टि वर्णन, संध्या, स्नान, पूजा विधि, होम विधि, मुद्राओं के लक्षण, दीक्षा और अभिषेक, देवालय निर्माण कला, शिलान्यास विधि, देव प्रतिमाओं के लक्षण, विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा, वास्तु पूजा, खगोल शास्त्र, ज्योतिष आदि अनेक विद्याओं का वर्णन है.
इस पुराण को भारतीय जीवन का विश्वकोश कहा जा सकता है. इसमें शरीर और आत्मा के स्वरूप को अलग-अलग समझाया गया है. इन्द्रियों को यंत्र माना गया है. देह के अंगों को आत्मा नहीं माना गया है. अग्नि पुराण में ज्ञानमार्ग को ही सत्य माना गया है. इसके अनुसार ज्ञान से ही ब्रह्म की प्राप्ति संभव है, कर्मकाण्ड से नहीं. ब्रह्म ही परम ज्योति है, जो मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार से अलग है. यह वृद्धावस्था, मौत, शोक, मोह, भूख-प्यास और स्वप्न-सुषुप्ति आदि से रहित है.
अग्नि पुराण में ‘भगवान” शब्द का प्रयोग श्रीविष्णु के लिए किया गया है. वह श्रृष्टि के पालनकर्ता और श्रीवृद्धि के देवता हैं. भगवान का अर्थ ऐसा व्यक्ति होता है, जो ऐश्वर्य, श्री, वीर्य, शक्ति, ज्ञान, वैराग्य और यश से सम्पन्न हो. अग्नि पुराण में मन की गति को ब्रह्म में लीन होना ही ‘योग’ कहा गया है. जीवन का अंतिम लक्ष्य आत्मा और परमात्मा का संयोग ही होना चाहिए.
इसी प्रकार, वर्णाश्रम धर्म की भी इस पुराण में बहुत सुंदर व्याख्या की गयी है. ब्रह्मचारी को हिन्सा, निंदा से दूर रहना चाहिए. गृहस्थाश्रम के सहारे ही अन्य तीन आश्रमों का जीवन-निर्वाह होता है. इसलिए गृहस्थ को सभी आश्रमों से श्रेष्ठ माना गया है. इसमें वर्ण के आधार पर किसीके साथ भेदभाव न करने की सीख दी गयी है. इसके अनुसार, वर्ण कर्म से बने हैं, जन्म से नहीं.
इस पुराण में कहा गया है कि देवपूजा में समानता का भाव रखना चाहिए. अपराध का प्रायश्चित सच्चे मन से करना चाहिए. इसमें स्त्री के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाया गया है. इसके अनुसार पति के नष्ट हो जाने, मर जाने, सन्यास ग्रहण कर लेने, नपुंसक या पतित होने पर स्त्री को दूसरा पति कर लेना चाहिए. इसी प्रकार यदि किसी स्त्री के साथ कोई व्यक्ति बलात्कार कर बैठता है, तो उस स्त्री को अगले रजोदर्शन तक त्याज्य मानना चाहिए. रजस्वला होने के बाद वह पहले जैसी शुद्ध हो जाती है. राजधर्म के विषय में यह ग्रंथ कहता है कि राजा को अपनी प्रजा का पालन उसी प्रकार करना चाहिए, जैसे कोई पिता अपने बच्चों का करता है.
अग्नि पुराण में चिकित्साशास्त्र की व्याख्या की गयी है, जिसके अनुसार सारे रोग अत्यधिक भोजन करने से होते हैं या बिल्कुल भोजन न करने से. इसलिए हमेशा संतुलित भोजन करना चाहिए. इसमें जड़ी-बूटियों द्वारा रोगों की उपचार विधियाँ भी बतलाई गयी हैं.
अग्नि पुराण में भूगोल सम्बन्धी ज्ञान, व्रत-उपवास, तीर्थों का ज्ञान, दान-दक्षिणा आदि का महत्त्व बताते हुए वास्तुशास्त्र और ज्योतिष आदि का भी वर्णन किया गया है. इस पुराण में व्रतों का काफी विस्तृत वर्णन है. व्रतों की सूची तिथि, वार, मास, ऋतु आदि के अनुसार अलग-अलग बनायी गयी है. पुराणकार ने व्रतों को जीवन के विकास का पथ माना है. दूसरे पुराणों में व्रतों को दान-दक्षिणा का साधन मात्र मानकर मोह द्वारा उत्पन्न आकांक्षाओं की पूर्ति का माध्यम बताया गया है, लेकिन इस ग्रंथ में व्रतों को जीवन के उत्थान के लिए संकल्प का रूप माना गया है. साथ ही व्रत-उपवास के समय जीवन में बहुत सादगी और धार्मिक अचार-विचार का पालन करने पर भी बल दिया गया है.
अग्नि पुराण में स्वप्न विचार और शकुन-अपशकुन पर भी विचार किया गया है. पुरुष और स्त्री के लक्षणों की चर्चा भी इस पुराण का बहुत महत्वपूर्ण अंग है. सर्पों के बारे में भी इसमें विस्तृत जानकारी है. इसमें मंत्र-शक्ति पर विस्तार से लिखा गया है.
अग्नि पुराण के अनुसार, मनुष्य जन्म दुर्लभ है लेकिन मनुष्य जीवन में कवि होना बहुत सौभाग्य की बात है.