Published By:धर्म पुराण डेस्क

एक अपमान ने बनाया संस्कृत का प्रकांड विद्वान और दुनिया में छा गया यह नाम..

एक अपमान ने बनाया संस्कृत का प्रकांड विद्वान और दुनिया में छा गया यह नाम..

भारत प्राचीन काल से ही शिक्षा का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा "है, यहाँ नालंदा, तक्षशिला और गान्धार जैसे विख्यात केन्द्र थे, जहाँ विश्व के विभिन्न भागों से विद्यार्थी अध्ययन के लिये आते थे। आज से चार हजार वर्ष पूर्व जब अमेरिका तथा यूरोप के अधिकांश देशों के लोग ढकना और आग जलाना भी नहीं जानते थे, उस समय भारत में वेद जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की जा चुकी थी। इस काल में भारत विज्ञान, कृषि, व्यापार तथा विभिन्न कलाओं के क्षेत्र में विश्व में अग्रणी था ।

भारत की प्रगति का आधार था- गुरुकुल पद्धति पर आधारित शिक्षा व्यवस्था। गुरुकुल पद्धति में नगरों की भीड़भाड़ से दूर प्राकृतिक वनों के मध्य स्थित आश्रमों में ऋषियों-मुनियों द्वारा सर्वांगीण विकास की शिक्षा दी जाती थी। ये ऋषि माया मोह के बन्धनों से मुक्त होकर एवं अपने पराये की भावना से ऊपर उठ कर शिक्षा देते थे। यही कारण था कि समाज के सभी वर्गों के लोग इनका आदर करते थे। यदि ये कभी किसी राजा-महाराजा के दरबार में पहुँच जाते थे तो वे भी इनके प्रति सम्मान प्रकट करने के लिये अपने सिंहासन से उठकर खड़े हो जाते थे।

गांधार प्रदेश में इसी प्रकार के ऋषियों के अनेक आश्रम थे। इनमें सर्वश्रेष्ठ आश्रम था- राजगुरु आचार्यवर का। आचार्यवर के आश्रम में राजवंशों तथा कुलीन परिवारों के साथ सामान्य प्रजाजन भी शिक्षा प्राप्त कर सकते थे। उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता था।

आचार्यवर के शिष्यों में गौरवर्ण का, दुबला-पतला, इकहरे लम्बे शरीर का एक ब्राह्मण बालक भी था। वह अत्यंत सरल, उदार तथा परिश्रमी था। ब्राह्मण बालक आचार्यवर के उपदेशों को बड़ी गंभीरतापूर्वक सुनता, किन्तु जब कभी आचार्यवर उससे कोई प्रश्न करते तो वह ठीक से उसका उत्तर न दे पाता और सर झुकाकर खड़ा हो जाता। परिणाम स्वरूप आचार्यवर उस पर नाराज होते और उसके साथी उसका उपहास उड़ाते।

एक बार सुरम्य उपवन में आश्रम के निकट घने वृक्षों की छाया में आचार्यवर अपने शिष्यों को व्याकरण की शिक्षा दे रहे थे। उनकी आँखें बंद थी। सभी शिष्य एकाग्रचित्त होकर शिक्षा ग्रहण कर रहे थे।

आचार्यवर ने अध्याय पूरा किया। आँखें खोली और अपने शिष्यों पर एक सरसरी दृष्टि डाली। उन्होंने सभी शिष्यों से व्याकरण के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछे तथा अन्त में ब्राह्मण बालक से प्रश्न किया सदैव की भाँति बालक कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे सका और सर झुकाकर खड़ा हो गया ।

आचार्यवर को क्रोध आ गया। वह खड़े हो गये और बोले- “मूर्ख! लगता है तेरे हाथ में शिक्षा रेखा है ही नहीं।” इतना कहकर उन्होंने बालक का दाहिना हाथ देखा।

बालक के हाथ में वास्तव में शिक्षा रेखा नहीं थी। आचार्यवर दुखी हो गये और बोले- "वत्स ! तुम्हारे भाग्य में शिक्षा नहीं है। तुम कल से आश्रम मत आना।”

बालक भाग्य की बात समझ नहीं सका और अपने घर आ गया। वह सारी रात सोच-विचार करता रहा और अंत में उसने स्वयं अपने भाग्य का निर्माण करने का निश्चय किया।

अगले दिन प्रातः काल उठकर उसने धातु के एक नुकीले शस्त्र से अपने दाहिने हाथ में एक बड़ी गहरी रेखा खींची। एक सप्ताह में घाव ठीक हो गया। अब उसके हाथ में शिक्षा की रेखा साफ दिखाई दे रही थी।

बालक सीधा आचार्यवर के पास पहुँचा और बोला “गुरुदेव ! अब देखिये, मेरे हाथ में शिक्षा की रेखा है ? आचार्यवर ने बालक का हाथ देखा तो आश्चर्यचकित रह गए। जब उन्हें पूरी बात मालूम हुई तो उनका हृदय स्नेह से भर उठा।

"वत्स ! तुम्हारा आत्मविश्वास एवं इच्छाशक्ति देखकर मुझे हर्ष हो रहा है। इसी आत्मशक्ति के बल पर तुमने भाग्य का निर्माण कर सकते हो।” आचार्यवर गंभीर स्वर में बोले- “गुरुदेव ! मैं आश्रम से अलग रहकर निष्ठा, लगन, और साहस के बल पर अपने भाग्य का निर्माण करना चाहता हूँ। बस आपका आशीर्वाद चाहिए।" बालक के स्वर में विनमूना थी।

“तुम एक स्वाभिमानी बालक हो। अतः मैं तुम्हें आश्रम आने के लिए नहीं कहूँगा। अब तुम जाओ और सच्ची लगन अपने ध्येय की प्राप्ति में लग जाओ। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।" कहते हुए आचार्यवर ने बालक को विदा किया। वह जानते थे कि एक सप्ताह पूर्व आश्रम में हुए अपमान ने बालक के स्वाभिमान को इतनी ठेस पहुँचायी है कि यदि अब वह कहेगे तो भी स्वाभिमानी, कर्मयोगी अपने हाथ से अपनी भाग्य रेखा खींचने वाला यह लगनशील बालक और कोई नहीं, प्रख्यात व्याकरणाचार्य पाणिनि थे, जिन्होंने विश्व की प्राचीनतम भारतीय भाषा संस्कृत का व्याकरण बद्ध करके उसे विश्व की सर्वाधिक सशक्त, समृद्ध तथा गौरवशाली भाषा बनाया।

बालक उनके आश्रम में अध्ययन के लिये नहीं आयेगा। ब्राह्मण बालक ने आचार्यवर को अंतिम प्रणाम किया और अपने घर आ गया।

आश्रम में बालक का अपमान व्याकरण की अज्ञानता के कारण हुआ था, अतः उसने संस्कृत भाषा और संस्कृत व्याकरण का सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन किया।

डॉ. परशुराम


 

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