Published By:दिनेश मालवीय

भारत में आनंद को धर्म और दुखी होने को पाप माना गया, कोई भी संकट नहीं सुखा पाया आनंद के स्रोत -दिनेश मालवीय

मेरे एक मुस्लिम दोस्त ने मुझसे मज़ाक में कहा, कि यार तुम लोगों के यहाँ बढ़िया है. हर दिन कोई न कोई त्यौहार या उत्सव होता है. हर दिन घर में कोई न कोई पकवान बनता है. एक से एक बढ़कर मिठाइयाँ, पूड़ी-पकवान. महीने में कोई ऐसा दिन नहीं आता जब कोई तीज-त्यौहार नहीं हो. इसकी क्या वजह है?

दोस्त को समझाना बहुत कठिन था, क्योंकि वह जिस जीवन-दर्शन को जी रहा है,उसमें जीवन शैली अलग है. उसके समाज में साल में एक-दो त्यौहार ही आते हैं. बहरहाल, मैंने उसे बताया, कि भारत में  अनादिकाल से ही सुख और दुःख, उनके कारण और उनके निवारण के विषय में बहुत गहरी खोज की गयी है.  ऋषियों ने आध्यात्मिक साधनाएं करके इस विषय को गहराई से समझा. 

इस प्रक्रिया में प्राणायाम, ध्यान, योग आदि जैसी विधियाँ विकसित हुयीं. ऋषि-मुनि इस निष्कर्ष पर पहुँचे, कि जीवन वैसे तो दुखों से भरा है, लेकिन इसके हर पल से आनंद प्राप्त किया जा सकता है. आनंद को प्राप्त नहीं करना है. यह तो मनुष्य का सहज स्वभाव है. सिर्फ इसे महसूस करने में आने वाली बाधाओं को दूर करना है.

ऋषियों से सूत्र ग्रहण कर भारत के लोगों ने जीवन को एक उत्सव बनाया. इसीलिए भारत को उत्सवधर्मी देश कहा जाता है. ऋषियों ने बताया, कि प्रकृति के हर कण में एक ही चेतना व्याप्त है. उसे स्थूल रूप से नहीं देखकर उसके पीछे सूक्ष्म तत्व को देखा जाए. नदी-पहाड़, पेड़-पौधे, फूल-फल आदि प्रकृति के हर अंश में उसी चेतना को महसूस कर उसे पूरा सम्मान दिया जाये. प्रकृति के हर अंग के संरक्षण पर बल दिया गया. इस बात को लोग जीवन में गहराई से आत्मसात कर सकें, इसके लिए इसे किसी न किसी रूप में धर्म से जोड़ दिया गया. प्रकृति के हर अवयव के पीछे किसी देवी-देवता की अवधारणा की गयी.

इस प्रकार भारत के लोग हर दिन किसी न किसी देवता को समर्पित करते हैं. हर त्यौहार के लिए पूजा-पाठ और प्रसाद की विभिन्न विधियाँ हैं. अनेक तरह के व्रत-उपवास होते हैं. इन सब का अपना अलग महत्व होता है. ये त्यौहार और व्रत-उपवास मौसम और प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार होते हैं. किस मौसम में क्या खाना चाहिए, क्या नहीं खाना चाहिए, इस पर बहुत बारीकी से काम करके उनका निर्धारण किया गया है.

उदाहरण के लिए भारत में साल भर में चार नवरात्रि पर्व आते हैं. ये मौसम में बदलाव के समय मनाये जाते हैं.

इस दौरान अधिकतर भारतवासी उपवास करते हैं. अपनी-अपनी स्थिति और क्षमता के अनुसार वे उपवास करते हैं. वे इस तरह का भोजन या फलाहार करते हैं, जो परिवर्तित मौसम में शरीर और मन के अनुकूल हो. व्रत-उपवास के महत्त्व को तो आजकल लगभग पूरी दुनिया में स्वीकार किया जाने लगा है. मकर संक्रांति पर गुड़-तिल खाना, देव सोने की अवधि में, अर्थात अषाढ़माह के शुक्ल पक्ष से कार्तिक के शुक्ल पक्ष तक  कुछ तरह की चीजों को खाने की मनाही है. देवोत्थान एकादशी पर देव उठने पर ही उनका सेवन करना आदि इसी अनुशासन का हिस्सा है. इस दौरान जिन चीजों के सेवन की मनाही है, यदि इसका विश्लेषण किया जाए, तो सचमुच इस दौरान इनके सेवन से स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर होता है.

भारत के प्रमुख त्यौहार ऋतु परिवर्तन के समय पर मनाये जाते हैं. भारत कृषि प्रधान होने के कारण इनका सम्बन्ध कृषि से भी रहा है. फसल बुआई शुरू होने पर अक्षय तृतीया, फसल कटाई के समय होली और दिवाली, दशहरा आदि में इसी पैटर्न को फ़ॉलो किया जाता है. इन अवसरों पर अलग-अलग तरह के पकवान भी इस तरह बनाए जाते हैं, कि लोग पूरे मौसम में उसी तरह का खानपान रखें. त्योहारों के माध्यम से यह हर साल होता है, तो धीरे-धीरे यह एक संस्कारके रूप में विकसित हो जाता है.

यही ये संस्कृति का रूप लेकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता रहता है. भारत के तीज-त्यौहार सिर्फ तरह-तरह के पकवान खाने-पीने के लिए नहीं, बल्कि हर दिन को उत्सव का रूप देने के लिए हैं. इनका सम्बन्ध धर्म से कम, संस्कृति से अधिक है.

जो लोग इस विषय को पूरी तरह नहीं समझते, वे संस्कृति और धर्म को एक ही चीज समझने की गलती करते हैं. किसी देश या समाज में अनेक तरह के धर्मों को मानने वाले हो सकते हैं, लेकिन उनकी संस्कृति एक ही होती है. इस संस्कृति का पालन करने से किसी के धर्म पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं होता. समाज में समरसता, एकता और हम-भावना बढ़ती है. गीत-संगीत, दूसरी बहुत-सी कलाएँ, कौशल आदि सब इन त्योहारों से जुड़ जाते हैं.

सभी तीज-त्योहारों आर्थिक पक्ष भी बहुत महत्वपूर्ण होता है. हर त्यौहार पर कुछ ख़ास चीजों के उपयोग का विधान है. इन चीजों को बनाने वालों को रोजगार मिलता है. उदाहरण के लिए दिवाली पर मिट्टी के दिए, गूजरी, कुलियाँ और महालक्ष्मी पर मिट्टी के हाथी का पूजन होता है. पोढ़ा उत्सव पर मिट्टी के बैल बनाए जाते हैं.

इससे कुम्हारों को रोजगार मिलता है. इसका व्यावहारिक पक्ष यह है, कि ऐसा विधान किया गया है, कि इन चीजों का उपयोग अगले साल नहीं होगा. यानी अगले साल फिर से ये चीजें बनेंगी, जिससे उन्हें बनाने वालों को रोज़गार मिलेगा.

साल भर में कहीं न कहीं मेले-ठेले लगते हैं. इनमें भी बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार मिलता है और अर्थ-व्यवस्था मजबूत होती है. इन सभी चीजों से मिलकर जीवन में आनंद लाते हैं. भारत में दुखी रहने को पाप और प्रसन्न रहने को धार्मिकता माना गया है. भगवान श्रीकृष्ण ने ईश्वर के भक्त का सबसे बड़ा गुण यह बताया, कि वह हमेशा प्रसन्नचित्त रहता है. इसी प्रसन्नता या ख़ुशी के लिए भारत की मनीषी ने जीवन के महत्वपूर्ण सूत्र प्राप्त कर उन्हें जीवन में आत्मसात किया.

भारतीयों की उत्सवप्रियता और आनंद के प्रति समर्पण इतना गहरा और मजबूत है, कि राज्यों की राजधानियों में होने वाली राजनैतिक हलचलों, सत्ता बदलाव आदि से वह अप्रभावित रहता है. कोई भी आक्रमणकारी उनकी उत्सवप्रियता को नहीं छीन सका. आनंद शब्द सुख का पर्याय नहीं है.सुख-दुःख तो परिस्थितिजन्य होते हैं, लेकिन जिसे आनंद प्राप्त हो जाता है, वह उससे कभी विलग नहीं होता. सुख-दुःख अस्थाई हैं, जबकि आनंद स्थाई और चिर.

 

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