Published By:धर्म पुराण डेस्क

अंतर्यामी परमात्मा को पुकार

प्रभु ! निर्गुण परब्रह्म परमात्मा की प्रीति में ऐसा रस लग जाए कि भूतकाल सब धुआँ होकर उड़ जाये। भूतकाल की खट्टी-मीठी, भली-बुरी स्मृतियाँ सब विनाश को उपलब्ध हो जायें। भूतकाल में घटित कोई भी भली-बुरी घटनाएं मुझको ना भली दिखें, ना बुरी दिखे बस, धोखा दिखे! मेरी मति से उसकी स्मृति का आत्यंतिक अभाव हो जाए! तेरी प्रीति में, तुझ अचिंतनीय की प्रीति में, तुझ अव्यक्त की प्रीति में भविष्यकाल की सारी चिंताएं, संकल्प-विकल्प, कामनायें, प्रयोजन सब शांत हो जाए, प्रभु!

हे अंतर्यामी ! मैं तो तुझे खोज नहीं सकता, मैं तुझे ढूँढ़ नहीं सकता। जो कोई भी खोजेगा वह मति से ही खोजेगा, मन से ही खोजेगा, चिंतन से ही खोजेगा, मनन से ही खोजेगा।

यह चिंतन, मनन, बुद्धि, अहं सब तुझमें तुझसे निर्लेप होते हुए निमेष मात्र में स्फुरित हुआ। परंतु इसको यह भी ज्ञात नहीं है कि यह निमेष मात्र में मायामात्र स्फुरित हुआ है ! यह तो भूतकाल, भविष्यकाल, वर्तमानकाल की कल्पनाओं में बँधा हुआ है। इसको अपना स्वयं का ठिकाना नहीं ज्ञात है तो यह तुझे क्या खोजेगा, प्रभु !

यह मन, यह बुद्धि कब से है ? कहाँ से है ? उसको स्वयं ज्ञात नहीं है। परंतु प्रभु! तू तो इससे पूर्व भी था, इसके बाद भी रहता! है। हे चैतन्य परमेश्वर! अब इस मन-बुद्धि पर कृपा हो तो ऐसी हो कि भूतकाल भविष्यकाल की सब स्मृति-विस्मृति, सब संकल्प-विकल्प स्वाहा हो जायें और वर्तमान में ही तुझको अव्यक्तरूप जानकर, अचिंतनीयरूप जानकर, आदि - अंत से रहित जानकर, निर्दोष जानकर, निर्लेप जानकर, असंग जानकर और बड़े में बड़ा मेरा स्वयं का आत्मा जानकर ठहर जाए। वर्तमान में ऐसा ठहरे कि फिर ठहरा ही रह जाए|

हे चिद्घन! हे चैतन्य! हे परमेश्वर! तुम मेरी पुकार नहीं सुनोगे तो कौन सुनेगा? तुम निराकार, अव्यक्त कितने हृदयों में प्रवेश करके, लीला कर-करके चले जाते हो, करते रहते हो; जरा-सा मेरे हृदय में प्रवेश भी कर जाओ। फिर शरीर से लीला भले ही ना करना परंतु भीतर से तो प्रवेश कर ही जाना। कृष्ण जैसे बनकर इस हृदय में प्रवेश ना करो तो चलेगा प्रभु! बाहर से साधारण मनुष्य-से रहना, पर भीतर से तो पूरे के पूरे प्रकट हो जाना। हे अंतर्यामी ! यदि आप थोड़ी-सी भी प्रीति का दान दे देंगे, निष्ठा का दान दे देंगे तो हम संसार को झाँककर भी नहीं देखेंगे, संसार को पलटकर भी नहीं देखेंगे, प्रभु !

यह मूर्ख मन सौ बार सत्संग सुनकर भी मूर्खता ही करता है। इस मूढ़ को इसकी मूढ़ता छोड़ने में बड़ी भारी समस्या दिखती है। जैसे कोई गधा क्विंटल भर भारी सामान ढोकर हाँफ - हाँफ कर थक गया हो परंतु सामान को उतारने में, अपने ऊपर से बोझा उतारने में स्वयं को असमर्थ पाता है और उसी से दुखी हुआ चला जाता है। मेरा यह मूर्ख मन भी ऐसा ही है प्रभु ! इसकी दशा गधे से अधिक बड़ी नहीं है। यह मन सैंकड़ों बार सत्संग सुनता है फिर भी वही संसार का रटन लगा देता है। इस धूर्त मन को, मूर्ख मन को इतना सा भी समझ में नहीं आता है कि यह नश्वर संसार छूटने वाला है, यह शरीर जीर्ण- शीर्ण होने वाला है।

यह मूर्ख मन सत्संगी तो बनता है परंतु अपनी मति को दुनियादारी में ही चलाता रहता है और स्वयं को बहुत बुद्धिमान भी समझता है। सत्संग सुनकर शांति के, सुख के बहुत मजे ले लेता है। परंतु फिर शांति को कचरे के डिब्बे में डालकर अपनी वही कुमति से ऊपजी हुई इच्छाओं-कामनाओं का, संकल्पों विकल्पों का पिटारा खोलकर व्यापार शुरू कर देता है। हे प्रभु! इस मन का क्या करें ? यह बड़ा कपटी है, बड़ा धूर्त है ।

धर्म जगत

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