Published By:धर्म पुराण डेस्क

अनुग्रह मूर्ति श्री गणेश..

अनुग्रह मूर्ति श्री गणेश..

(अनंत श्री विभूषित तमिळनाडुक्षेत्रस्थ श्री कांची कामकोटि पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य वरिष्ठ स्वामी श्री चन्द्रशेखरेन्द्र जी महाराज)..

विघ्नेश्वर की प्रत्येक बात में ही कोई-न-कोई बड़ा तत्व निहित है। उनके शरीर की मोटाई के सदृश अन्य किसी देवता के शरीर की मोटाई नहीं दिखती। हाथी-सा मस्तक और लम्बा स्थूल शरीर- यह गणेश जी की शुभ आकृति है। उनका 'स्थूलकाय' नाम भी प्रख्यात है। 

बच्चे हृष्ट-पुष्ट रहें- इस भावना के प्रतीक हैं भगवान गणपति वे तो विशालकाय हैं, किंतु उनका वाहन मूषक अत्यन्त लघुकाय है। अन्य देवताओं के वाहन बने हैं, पशु-पक्षी; जैसे-सिंह, अश्व, गरुड़, मयूर आदि। भगवान ने किसी को भी वाहन बना रखा हो, उस वाहन से भगवान को नहीं, उनके संपर्क से उस वाहन को ही महत्त्व प्राप्त होता है। 

महामहिम भगवान लघु-से-लघु को भी अनुगृहीत करते हैं, यह भाव भगवान गणपति के मूषक को अपना वाहन बनाने से प्रकट होता है। हाथी को अपना दाँत बहुत प्यारा होता है; वह उसे शुभ्र बनाये रखता है; परंतु हाथी के मस्तक वाले भगवान गणपति ने क्या किया है? अपने एक दांत को तोड़कर, उसके अग्रभाग को तीक्ष्ण बनाकर उसके द्वारा उन्होंने महाभारत लेखन का कार्य किया। 

विद्योपार्जन के लिये, धर्म और न्याय के लिये प्रिय-से प्रिय वस्तु का त्याग करना चाहिये- यही तत्त्व या रहस्य इससे प्रकट होता है। भगवान को लेखनी-जैसे साधन की आवश्यकता नहीं, वे चाहें तो किसी भी वस्तु को साधन बनाकर उससे लिख सकते हैं।

श्रीगणपति प्रणव-स्वरूप हैं। सूँड़ के साथ उनके मस्तक को और हाथ के मोदक आदि को एक साथ देखें तो प्रणव का रूप मिलेगा। इस प्रणव का भ्रूमध्य में ध्यान करते हुए तमिळ-प्रदेशीय भक्तों ने औवे नामक 'विनायक अहवाळ' की रचना की थी, जिसमें योग शास्त्र तथा योग पद्धति का वर्णन है।

श्री गणेश उमा-महेश्वर के पुत्र हैं। उनको 'भगवान' कहने की अपेक्षा 'शिव-पुत्र' कहने में ही अधिक आनन्द आता है। किसी भी भगवद् विग्रह की आराधना क्यों न करें, उसमें प्रथमतः हमें विघ्नेश्वर गणेश की पूजा करनी ही होगी, तभी वह काम बिना विघ्न के सम्पन्न हो सकेगा। 

हमारे प्रदेश की प्रत्येक गली के कोने में विघ्नेश्वर के मन्दिर दिखते हैं। उन्हीं की प्रधान देवता के रूप में आराधना करने का नाम ‘गाणपत्य त्वम्' है।

अपने लिये चक्र की प्राप्ति के निमित्त महाविष्णु ने विघ्नेश्वर के आगे 'दोर्भिकर्ण' करके आदर प्रदर्शित किया था। 'दोर्भिकर्ण' का अर्थ होता है- हाथों से कान पकड़ना ।

विघ्नेश्वर के अनुग्रह से जगत के सारे कार्य निर्विघ्न सिद्ध होते हैं। हम भी उनके अनुग्रह के पात्र बनें।


 

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