 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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अतीत और अनागत से मुक्त होकर व्यक्ति वर्तमान में जीना सीखें।
चिंता का परिणाम तनाव है। चिंता और संताप आज की ज्वलंत समस्या है। चिंता दो प्रकार की होती हैं- सार्थक और निरर्थक। अधिकतर व्यक्ति निरर्थक चिंताओं में उलझे रहते हैं और तनावों को निमंत्रण देते रहते हैं। चिंता के प्रमुख कारणों में विपरीत परिस्थितियां, भय, प्रतिक्रिया और अहं हैं।
व्यक्तित्व - निर्माण के लिए विपरीत परिस्थितियों का होना आवश्यक है। सफल व्यक्ति वह होता है, जो सभी परिस्थितियों से लाभान्वित होना जानता है। दुर्बल व्यक्ति- जहाँ परिस्थितियों को दोष रहता है, वहां सशक्त व्यक्ति स्वयं को परिस्थिति के अनुकूल ढालने का प्रयास करता है। घटना के प्रति दृष्टिकोण को बदल लेना चिंता-मुक्ति का श्रेष्ठतम उपाय है। यदि हम घटनाओं को बदल नहीं सकते तो उनके प्रति अपने दृष्टिकोण को अवश्य ही बदल सकते हैं।
चिंता का दूसरा कारण भय है। भय आशंका को जन्म देता है और आशंका चिंता को जन्म देती है। भावी अमंगल एवं अहित की आशंका व्यक्ति को प्रतिक्षण संतप्त किए रहती है। चिंतातुर व्यक्ति स्वयं जिस मानसिक 'द्वंद्व' से गुजरता है, सामने वाला व्यक्ति भी निश्चित ही उस स्थिति से प्रभावित होता है। स्वयं के प्रति या औरों के प्रति शुभ-चिन्तक रहने का परिणाम भी शुभ और मंगलमय होता है। कुछ व्यक्ति सुदूर भविष्य की चिंता को अपनी दूरदर्शिता मानते हैं, पर यथार्थ में यह दूरदर्शिता नहीं, अपितु दुःख दर्शिता ही कही जा सकती है।
प्रतिक्रिया चिंता को जन्म देती है और चिंता प्रतिक्रिया के बीजों को खाद पानी देती रहती है। क्रिया विधेयात्मक - स्वीकारात्मक होती है, जबकि प्रतिक्रिया निषेधात्मक - नकारात्मक होती है। प्रतिक्रिया से ही मानसिक, मांसपेशीय और भावनात्मक तनावों का सिलसिला शुरू हो जाता है। क्रिया का मन पर बार-बार प्रतिबिम्ब उभरने का नाम ही प्रतिक्रिया है।
चिंता का एक प्रबल कारण अहं है। अहं जितना सघन होता है, चित्त उतना ही अधिक चिंतित और संतप्त होता है।अहं गल जाये तो निश्चिन्तता अपने आप फलित होने लगती है। चिंता-मुक्ति के लिए अहं-विसर्जन की यात्रा आवश्यक है। चिंता करने से मनुष्य की स्मरण-शक्ति दुर्बल हो जाती है। विवेक-शक्ति मंद हो जाती है। निर्णय करने की क्षमता क्षीण हो जाती है।
चिंतित व्यक्ति किसी भी काम को एकाग्रता से नहीं कर पाता यथा- "चिन्तया नश्यते रूपं, चिन्तया नश्यति बलम। चिन्तया नश्यति बुद्धि: व्याधि: भवति चिन्तया॥" अर्थात चिंता से रूप, बल, बुद्धि आदि नष्ट होती है और चिंता से ही अनेक बीमारियां भी आ जाती हैं।
डॉक्टर के अनुसार चिंता व्यक्ति को उद्विग्न और हताश बना देती हैं। यह पेट की नसों आँतों और अनेक स्रोतों को प्रभावित करती है। पाचक रसों को विषम बनाती है। चिंता को दूर करने का सबसे उत्तम उपाय है- अतीत और अनागत से मुक्त हो कर व्यक्ति वर्तमान में जीना सीखें।
स्वस्थ जीवन के लिए यह नितांत आवश्यक है कि मनुष्य का दिमाग साफ-सुथरा और खाली रहे। मन अधिक विचार और चिंता से घिरा न रहे। प्रतिदिन कुछ देर एकदम शांत और निर्विचार होकर बैठने का अभ्यास करना चाहिए।
यह चिंता-मुक्ति का सर्वोत्तम और सरल उपाय हो सकता है। इसके लिए श्वास पर विशेष ध्यान लगाया जा सकता है। चिता तो मृत व्यक्ति को ही जलाती है, जबकि चिंता जीवित को जला कर ही नष्ट कर देती है। अत: चिंता से मुक्ति ही विविध तनावों से सहज मुक्ति है।
विद्यालंकार
 
 
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