 Published By:दिनेश मालवीय
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प्राचीन काल में अधिकतर आम लोग शिक्षित नहीं होते थे. वे बहुत गूढ़ और जटिल बातों को समझ नहीं पाते थे. जानकार और ज्ञानी लोगों ने उन्हें इन रहस्यों को सरल और आसानी से समझ में आने वाले तरीकों से बताने के लिए कई उपाय किये. पुराणोंकी रचना के पीछे भी यही कारण है. देव सोने और देव उठने की बात भी आम लोगों के हित में प्रतीकात्मक रूप से कही गयी, जिसके बहुत अच्छे परिणाम भी युगों से मिलते चले आ रह हैं. प्रश्न उठता है कि क्या देवता उठते और सोते भी हैं? अषाड मास की शुक्ल पक्ष की एकदशी को देव सो जाते हैं. इसी दिन से चातुर्मास भी माना जाता है. इस दिन से प्रकृति में अनेक तरह के परिवर्तन होते हैं. इस दिन से सभी शुभ कार्यों को चार माह के लिए रोक दिया जाता है. देव शयन वाले चार माह में सूर्य और चन्द्रमा की गति क्षीण हो जाती है. इस समय में शरीर में पित्त रूप अग्नि की गति भी मंद हो जाती है. इस चार महीनों में अनेक प्रकार के कीटाणु और रोग पैदा करने वाले सूक्ष्म जंतु पैदा हो जाते हैं. जल की बहुलता होती है और सूर्य का तेज पृथ्वी पर मंद होता है. इससे जीवन विपरीत रूप से प्रभावित होता है.
प्राचीन समय में इस काल में मार्गों में कीचड बहुत होती थी. नदियों में बाढ़ होती थी. अनके प्रकार के विषैले जीव-जंतुओं से यात्रियों को जीवन का खतरा होता था. इस लिए यात्रा करने करने की भी मनाही थी और साधू-संत चातुर्मास करते थे. इस चार माह कि अवधि में अनेक फल और सब्जियाँ, जिन्हें वर्षा ऋतु में सेवन करने का निषेध होता है | इनमें गुड, मांस, शहद, दही-भात, मूली, पटल, बैंगन आदि शामिल हैं|- इस सब खतरों से लोगों को बचाने के लिए उन्हें बहुत विस्तृत रूप में समझाने के लिए हमारे ज्ञानी लोगों और ऋषिओं ने बोलचाल में कह दिया कि देव सो गये हैं अथवा सृष्टि के पालनहार भगवन विष्णु क्षीरसागर में जाकर सो गये हैं. लोगों ने इसे सहज रूप से मान लिया. यह सब बातें उनके लिए हितकारी थीं और आज भी हैं| क्या आप निर्माण करने जा रहे हैं? तो घर बैठे निकालें शुभ मुहूर्त:
आइए, अब बात करते हैं देवों के जागने की. कार्तिक शुक्ल की एकादशी को देव प्रबोधनी एकादशी अथवा देवउठनी ग्यारस मनायी जाती है. कहा गया कि इस दिन भगवन विष्णु अपनी योगनिद्रा से जागते हैं. अर्थात विगत चार माह में जिन बातों को करने का निषेध था, उन्हें इस दिन से परिवेश और स्थितियाँ अनुकूल हो जाने पर फिर से प्रारम्भ करने की अनुमति मिल जाती है. उनका सेवन इस दिन से भगवान् को अर्पित कर फिर प्रारंभ किया जाता है. इस दिन से सूर्य और तारों का तेज बढ़ने लगता है. बारिश में जीवन और स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाले जीव-जंतु या तो नष्ट हो जाते हैं अथवा विलुप्त. यात्रा करना सुगम हो जाता है. जिन सब्जियों और फलों के खाने का निषेध होता है, उन्हें इस दिन देवताओं को अर्पित कर खाना शुरू किया जाता है.
अब कोई प्रश्न कर सकता है कि क्या देव प्रबोधनी एकादशी को जिस रूप में मनाया जाता है, उसे नहीं मनाया जाना चाहिए? जी नहीं, उसे उसी रूप में मनाते रहें. कितनी सुन्दर परम्परा है. गन्ने की झोपडी बनाकर उनमें देव विग्रह रख कर उनकी पूजा की जाती है. फल-फूल, सब्जियों और विभिन्न पकवानों का उन्हें भोग लगाकर उसे प्रसाद रूप में सपरिवार ग्रहण किया जाता है. देवों से कृपा करने की प्रार्थना की जाती है. आरती होती है. घर का पूरा वातावरण सात्विक हो जाता है. धूप और अन्य सुगंधों कि महक पूरे परिवेश में व्याप्त हो जाती है. शंख, घंटे-घड़ियाल बजते हैं. चारो तरफ उल्लास ही उल्लास होता है और शुरू होता है वर्ष का एक सुखद भाग | जी हाँ, यही है देवताओं के सोने-जागने का अर्थ. हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि वास्तविक अर्थों में वैज्ञानिक थे. वे अपने आश्रमों में निरंतर मानवता ही नहीं जीवमात्र के कल्याण और हित बातों पर विचार करते थे. वे प्रकृति, ऋतुओं, जलवायु और पप्रकृति के अन्य उपादानों का भी गहन अध्ययन कर ऐसे उपाय खोजते थे, जिनसे सभी का कल्याण हो. इसीलिए हमारे सभी त्यौहारों के पीछे कोई मकसद और वैज्ञानिक कारण है. यह लेख सिर्फ नयी पीढ़ी को इस महान त्यौहार के मनाने के पीछे कारण बताने के लिए लिखा गया है, ताकि वे तथाकथित आधुनिकता की झोंक में अन्य चीजों की तरह इसे भी व्यर्थ समझ कर त्याग न बैठें|
 
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