 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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अध्यात्म से तात्पर्य अपनी अनुभूति द्वारा अंदर की सच्चाइयों को जानना।
धर्म कहते हैं धारण करने अर्थात अपने जीवन में स्वीकार करने को। पर न कभी भीतर देखकर सच्चाई का अनुभव किया, न उसे धारण किया।
अन्तर्मुखी कल्पनात्मक रूप प्राय: व्यक्ति रहता है, वह कल्पना ही कल्पना करता है; कल्पना उसे प्रिय लगती है। यह सुखद ही होती है, पर सच्चाई से कोसों दूर। पर कल्पना-युक्त अन्तर्मुखिता की अपेक्षा कल्पना-मुक्त अन्तर्मुखिता ही सत्यता के दर्शन करा सकती है। हमें उसी को ही करने का अभ्यास करना चाहिए। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में कुछ-न-कुछ हो ही रहा है। शांत चित्त उसे देखना है।
धीरे-धीरे मन स्थूल से सूक्ष्म होने लगेगा और सूक्ष्म मन संवेदनशील होने लगेगा। अब तक भोक्ता होकर भोगते आये हैं। अब उसे द्रष्टा, साक्षी एवं तटस्थ भाव से देखेंगे, न अच्छा मानेंगे, न बुरा मानेंगे। जिस स्थान पर जैसी संवेदना हो रही है, उसे जानना है। कोई प्रतिक्रिया नहीं करनी है। इस प्रकार प्रकट को प्राप्त कर सकते हैं। जब तक चित्त पर राग, द्वेष, मोह आदि के घने-घने बादल छाये रहेंगे, परम सत्य का साक्षात्कार नहीं हो पायेगा।
इस संसार को भव संसार कहा गया है - भव, भव, भव। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो बनकर तैयार हो गया हो और अब उसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा। सब कुछ बदल रहा है। यह सच्चाई जब अनुभूति के स्तर पर जानेंगे, तब वास्तव में एक महत्त्वपूर्ण सत्य का दर्शन होगा। जैसा कारण होता है, वैसा कार्य सम्पन्न होता है।
प्रकृति का नियम है - जैसा बीज वैसा फल यदि कढवा नीम बोयेंगे तो कढवा फल ही आएगा, मीठा आम बोयेंगे तो मीठा फल आएगा। इसके विपरीत हो ही नहीं सकता। जैसा बीज वैसा ही फल आने वाला है तो अपने कर्म- बीजों के प्रति सजग रहना होगा। न शरीर का कर्म फल देता है, न वाणी का कर्म, मन का कर्म ही फल देता है। अनुभूतियों के स्तर पर जानकर मानना होगा कि जैसी चित्त की चेतना होती है, वैसा ही फल आता है।
यदि चित्त की चेतना सुधरी हुई है तो वाणी से, शरीर से जो कर्म होंगे, कल्याणकारी ही होंगे। चित्त की चेतना को चार भागों में विभाजित किया गया है - विज्ञानं, संज्ञा, वेदना और संस्कार। विज्ञानं का अर्थ है जानकारी होना, संज्ञा पहचानने का काम करती है, वेदना अर्थात संवेदना-सुखद भी होती है दुखद भी। जैसे ही दुखद या सुखद संवेदना होती है, तुरंत उसके प्रति प्रतिक्रिया होती है। इसी प्रतिक्रिया को संस्कार कहा गया है। संस्कार जो प्रतिक्रिया करता है वही बीज बनता है। यह संस्कार शरीर की संवेदना के आधार पर ही बनेगा।
संवेदना सुखद हो या दुखद, वह नश्वर है, भंगुर है। उसे द्रष्टा-भाव से देखना है। जितना-जितना द्रष्टा-भाव पुष्ट होता चला जायेगा, उतना-उतना पुराना भोक्ता-भाव का स्वभाव, राग-रंजित, द्वेष दूषित और मोह-विमूधित रहने का स्वभाव टूटता चला जायेगा और वीत-रगता, वीत-द्वेषता और वीत-मोहता दृढ होती चली जाएगी, प्रज्ञा पुष्ट होगी; जहाँ प्रज्ञा पुष्ट होगी य्स्नी प्रज्ञा में स्थित होंगे, वहां अनासक्त होंगे ही। जीवन-मुक्त होंगे ही। वाणी तो वश में भली, वश में भला शरीर। पर जो मन वश में करे, वही शूर वह वीर।
VIDYALANKAR
 
 
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