Published By:धर्म पुराण डेस्क

भक्ति के माध्यम से मुक्ति की प्राप्ति

भक्ति का महत्व:

भक्ति कर्म से ऊँची है, ज्ञान से ऊँची है, और थांग (राजयोग) से ऊँची है, 'क्योंकि भक्ति स्वयं अपना फल है, भक्ति साधन और साध्य (फल), दोनों है।

प्रेम का महत्व:

जिस प्रकार मनुष्य अपनी भूख केवल भोजन के ज्ञान अथवा दर्शन मात्र से नहीं बुझा सकता, उसी प्रकार जब तक प्रेम नहीं होता, मनुष्य ईश्वर के ज्ञान से अथवा उसकी अनुभूति से भी, संतुष्ट नहीं हो सकता, इसलिए प्रेम सर्वोपरि है।

कर्म और ज्ञान के परे:

भक्ति तात्कालिक फल नहीं होती, बल्कि यह फल के रूप में होती है जो ईश्वर के प्रेम में है। इसलिए यह भक्ति कर्म और ज्ञान योग से ऊँची है।

भगवान का गर्व:

भगवान को भी गर्व है, क्योंकि वह दुख से नफरत और प्यार करता है। भक्ति उसकी असली भावना को प्रकट करती है और उसे अपने भक्तों से सच्चा प्रेम मिलता है।

उपासना का माध्यम:

भक्ति उपासना का माध्यम है जिससे मन और आत्मा संबंधित होकर आत्मा को दिव्य अनुभव होता है। इससे भक्त मुक्ति की ओर अग्रसर होता है।

इच्छा की आराधना:

कुछ लोग कहते हैं कि ज्ञान ही इसका साधन है, अन्य लोग कहते हैं कि यह अन्योन्याश्रित है, लेकिन भक्ति उच्चतम प्रेम और इच्छा की आराधना है जो मुक्ति की कुंजी है।

संन्यास और त्याग:

भक्ति में संन्यास और त्याग का तात्पर्य है जीवन की सार्थकता को भगवान के प्रेम में लगा देना, जिससे व्यक्ति संसार के बंधनों से मुक्त होकर मन को दिव्यता की ओर ले जाता है।

प्रेम की परिभाषा:

प्रेम की बहुत-सी परिभाषाएँ दी गई है, पर नारद जिन्हें प्रेम का चिह्न बताते हैं, वे हैं: जब मन, वचन, और कर्म सब ईश्वरार्पित कर दिए जाते हैं और जब तनिक देर के लिए भगवान की सेवा में खोया जाता है।

प्रेम में सच्चाई:

प्रेम उस अद्वितीय सत्य की ओर मार्गदर्शन करता है जो सब कुछ को व्यापित करता है, और इससे मुक्ति की प्राप्ति होती है।

प्रार्थना का महत्व:

भक्ति से मिलने वाली मुक्ति के लिए भक्तों को ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, ताकि उन्हें सही मार्ग पर चलने की शक्ति मिले और वह सच्चे प्रेम में लिपट सकें।

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