कैंसर रोग जब प्रमाणित हो जाये तो निम्न चिकित्सा से सफलता मिली है।
इस निबंध में किसी भी रोग का पूरा-पूरा निदान न लिखकर इससे स्वास्थ्य प्राप्त करने का तरीका ही लिखा जा रहा है; क्योंकि प्रत्यक्ष निदान तो विज्ञान से ही सम्भव है। फिर भी इस रोग से बचाव के लिए कुछ जानकारी अपेक्षित है, यथा..
(1) शरीर में पड़े तिल, मस्से आदि के वर्ण एवं आकार में परिवर्तन होना|
(2) घाव न भरना|
(3) स्तन, ओष्ठ आदि किसी अंग पर गांठ का बनना|
(4) मल की अति प्रवृत्ति या क़ब्ज़का होना,
(5) वजन कम होना|
(6) अकारण थकावट महसूस होना।
इन लक्षणों के होने पर चिकित्सक से अपना परीक्षण कराना आवश्यक है।
कैंसर में किसी अंग के ऊतक की कोशिकाओं असीम रूप से विभाजन होने लगता है, जिससे यह व्याधि निरंतर बढ़ती रहती है। कोशिकाएं पोषक तत्वों को चूस कर अन्य अंगों को अस्वस्थ कर देती हैं।
अनुभूत औषध- यहाँ अनुभूत औषधि दिये जा रहे हैं, जिनसे कैंसर रोग की रोकथाम तो होती ही है, हो जाने पर उसे निर्मूल भी किया जा सकता है। फेफड़के कैंसर भी अच्छे हो गये हैं। लीवर कैंसर पर इसका उपयोग संदेहास्पद रहा है।
सेमिनोमा कैंसर को तो निश्चित और शीघ्र ही ठीक किया जा सकता है। हाँ, कार्सिनोमा कैंसर में देर लगती है। किंतु जो दवा लिखी जा रही है, उससे लाभ-ही-लाभ होना है। कोई प्रतिक्रिया नहीं होती।
(1) सिद्ध मकरध्वज 1 ग्राम, (2) स्वर्ण भस्म 30 मिलीग्राम, (3) नवरत्न रस-3 ग्राम, (4) प्रवालपञ्चामृत-3 ग्राम, (5) कृमि मुद्गर रस-3 ग्राम, (6) वृहद योगराज गुग्गुल-3 ग्राम, (7) सितोपलादि 50 ग्राम, (8) अम्बर- 1/4 ग्राम, (9) पुनर्नवा मंडूर 3 ग्राम, (10) तृणकान्तमणि पिष्टि-3 ग्राम।
खून आने की स्थिति में बीच-बीच में एक कप दूब (दूर्वा) का रस भी ले लेना चाहिये। इसे दवा के साथ ही लेना कोई आवश्यक नहीं है।
सेवन विधि- सभी दवाओं को अच्छी तरह घोंटकर 41 पुड़िया बनाये। सुबह एक पुड़िया शहद से चाटकर ताजा गोमूत्र पिये। बछिया का गो मूत्र ज्यादा अच्छा माना जाता है। उसके अभाव में स्वस्थ गाय जो गर्भवती न हो, उसका मूत्र भी लिया जा सकता है। गोमूत्र सारक (दस्तावर) होता है इसलिए सबको एक तरह से नहीं पचता है। इसे आधी छटांक से शुरू कर 200 ग्राम तक बढ़ाना चाहिए।
दूसरी खुराक 9 बजे दिन में तथा तीसरी तीन बजे शाम को गेहूं के पौधे के रस से लेनी चाहिये। गेहूँ के पौधे का रस भी आधी छटांक से शुरू कर 200-200 ग्राम तक होना चाहिए। देसी खाद डालकर गेहूं का पौधा लगा देना चाहिये।
दूसरे दिन दूसरी जगह लगाना चाहिए। इसी तरह प्रतिदिन 10 दिन तक अलग-अलग स्थानों पर गेहूँ बोना चाहिये। दसवें दिन का पौधा काटकर, धोकर, पीसकर उसका रस लेना चाहिये। काटने के बाद उसी दिन फिर गेहूँ बो देना चाहिये। इस तरह प्रतिदिन काटना-बोना चाहिए।
जब तक गेहूं तैयार न हो और गेहूँ के पौधे का रस न मिले तब तक दूसरी और तीसरी पुड़िया को तीन ग्राम कच्ची हल्दी का रस—लगभग दो चम्मच (कच्ची हल्दी न मिलने पर सूखी हल्दी का चूर्ण 1 चम्मच) और दो चम्मच तुलसी का रस मिलाकर दवा लेनी चाहिये।
हरिद्राखण्ड (हरिद्राखण्ड नाम का चूर्ण प्रत्येक औषध निर्माता बनाते हैं) को मुंह में रखकर बार-बार चूसते रहना चाहिए। चूसने के पहले गरम पानी और नमक से दांतों सेंकना चाहिये।
यदि गले या स्तन आदि में कहीं गांठ हो गयी हो तो उसको गोमूत्र में हल्दी का चूर्ण मिलाकर गर्म कर साफ रूई से सेंकना चाहिए और इसी की पट्टी लगानी चाहिए।
यदि घाव हो गया हो तो नीम के गर्म पानी से सेंक कर मनःशिलादि मलहम लगाना चाहिए।
सावधानी- -यह मलहम जहर होता है, इसलिये मुख वाले (घाव) रोग में इसे न लगायें। अपितु कभी कभी रूई को गोमूत्र में भिगोकर उस स्थान पर रख दें या कच्ची हल्दी का रस या सूखी हल्दी के चूर्ण के रस को रूई द्वारा इस स्थान पर रख दें।
सुबह-शाम दो बार नीम के पानी से सेंकना आवश्यक है। मलहम लगाकर हाथों को राख से खूब साफ करना चाहिये। छः बार तक गरम चाय पियें और हरिद्राखण्ड चूसते ही रहें।
इस रोग में हरी पत्ती की चाय बहुत उपकार करती है। चौबीस घंटे में हरी पत्ती वाली चाय की मात्रा 5 ग्राम ही होनी चाहिये। इसी को दूध मिलाकर चाय बनाकर बार-बार पीते रहना चाहिए। इससे ताकत बनी रहती है और रोग बढ़ने नहीं पाता।
लाल बिहारी मिश्र
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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