ऐसी चिंता होने में तो साधक का अभिमान ही कारण है और 'ये दूर होने चाहिए और जल्दी होने चाहिए'- इसमें भगवान के विश्वास के, भरोसे को, आश्रय की कमी है।
दुर्गुण- दुराचार अच्छे नहीं लगते, सुहाते नहीं, इसमें दोष नहीं है। दोष है चिंता करने में। इसलिए साधक को कभी चिंता नहीं करनी चाहिये।
'मेरे द्वारा मारे हुए को तू मार'- इस कथन से यह शंका होती है कि कालरूप भगवान के द्वारा सब-के-सब मारे हुए हैं तो संसार में कोई किसी को मारता है तो वह भगवान के द्वारा मारे हुए को ही मारता है।
अतः मारने वाले को पाप नहीं लगना चाहिये। इसका समाधान यह है कि किसी को मारने का या दुख देने का अधिकार मनुष्य को नहीं है। उसका तो सबकी सेवा करने का, सबको सुख पहुंचाने का ही अधिकार है।
अगर मारने का अधिकार मनुष्य को होता तो विधि-निषेध अर्थात् शुभ-कर्म करो, कर्म मत करो-ऐसा शास्त्रों का, गुरुजनों और अशुभ संतों का कहना ही व्यर्थ हो जाएगा। वह विधि-निषेध किस पर लागू होगा?
अतः मनुष्य किसी को मारता है या दुःख देता है तो उसको पाप लगेगा ही; क्योंकि यह उसकी राग-द्वेष पूर्वक अनधिकार चेष्टा है। परन्तु क्षत्रिय के लिये शास्त्रविहित युद्ध प्राप्त हो जाये, तो स्वार्थ और अहंकार का त्याग करके कर्तव्य-पालन करने से पाप नहीं लगता, क्योंकि यह क्षत्रिय का स्वधर्म है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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