 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि के दिन बसंत पंचमी मनाई जाती है। यह दिन ज्ञान की देवी मां सरस्वती के पूजन का दिवस भी है। बच्चों का विद्यारंभ संस्कार इसी दिन किया जाता है। इस दिन स्वयंसिद्ध मुहूर्त होता है इसलिए बिना मुहूर्त के विवाह संपन्न किए जाते हैं। इस बार बसंत पंचमी 26 जनवरी 2023 को आ रही है। इस दिन शिव योग रहने से पंचमी का महत्व और बढ़ गया है।
बसंत पंचमी ऋतुओं का सबसे लोकप्रिय पर्व ..
शुक्ल पक्ष के पांचवे दिन यानी पंचमी तिथि-
बसंत पंचमी का पर्व हर साल माघ मास में मनाया जाता है। इस दिन मां देवी सरस्वती की आराधना की जाती है। पर्व भारत के आलावा बांग्लादेश और नेपाल में बड़े उल्लास से मनाया जाता है। इस दिन महिलाएं पीले रंग का वस्त्र धारण करती हैं।
भारत समेत नेपाल में छह ऋतुओं में सबसे लोकप्रिय ऋतु बसंत है। इस ऋतु में प्रकृति का सौंदर्य मन को मोहित करता है। इस ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पांचवे दिन भगवान विष्णु और कामदेव की पूजा की जाती है, जिससे यह बसंत पंचमी का पर्व कहलाता है।
शास्त्रों में बसंत पंचमी को ऋषि पंचमी से उल्लेखित किया गया है। बसंत पंचमी को श्रीपंचमी और सरस्वती पंचमी के नाम से भी जाना जाता है। बसंत पंचमी के दिन को देवी सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं।
ऋग्वेद में माता सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है- प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु। अर्थात मां आप परम चेतना हो। देवी सरस्वती के रूप में आप हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हो। हम में जो आचार और मेधा है उसका आधार मां आप ही हो। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है।
बसंत पंचमी कथा-
सृष्टि रचना के दौरान भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों, खासतौर पर मनुष्य योनि की रचना की। ब्रह्माजी अपने सृजन से संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगा कि कुछ कमी है जिसके कारण चारों ओर मौन छाया है। विष्णु से अनुमति लेकर ब्रह्मा ने अपने कमंडल से जल का छिड़काव किया, पृथ्वी पर जलकण बिखरते ही कंपन होने लगा।
इसके बाद वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति प्रकट हुई। यह शक्ति एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री थी। जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरे हाथ में वर मुद्रा थी। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्माजी ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया, जैसे ही देवी ने वीणा का मधुर नाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हुई।
जलधारा में कोलाहल व्याप्त हुआ। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब ब्रह्माजी ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा। सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणा वादिनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है।
बसंत पंचमी का महत्व-
पंचमी बसंत का पौराणिक महत्त्व रामायण काल से जुड़ा हुआ है। जब मां सीता को रावण हर कर लंका ले जाता है। तो भगवान श्रीराम उन्हें खोजते हुए जिन स्थानों पर गए थे, उनमें दंडकारण्य भी था ।
यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और प्रेमवश चख चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी।
कहते हैं कि गुजरात के डांग जिले में वह स्थान आज भी है जहां शबरी मां का आश्रम था। बसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां पधारे थे। आज भी उस क्षेत्र के वनवासी एक शिला को पूजते हैं, जिसमें उनकी श्रद्धा है कि भगवान श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। यहां शबरी माता का मंदिर भी है।
बसंत पंचमी का दिन हमें पृथ्वीराज चौहान की भी याद दिलाता है। उन्होंने मोहम्मद गोरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गोरी ने उन्हें नहीं छोड़ा।
वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया। जहां उसने उनकी आंखें फोड़ दीं। इसके बाद की घटना तो जगजाहिर है। मोहम्मद गोरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व चौहान के शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। इस अवसर का लाभ उठाकर कवि चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया।
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान॥
पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। उन्होंने चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह मोहम्मद गोरी के सीने में जा धंसा । इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने एक दूसरे के पेट में छुरा भोंककर आत्मबलिदान दे दिया। 1192 ई. की यह घटना बसंत पंचमी के दिन ही घटी थी।
बसंत पंचमी पर सरस्वती पूजा-
बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की पूजा भी की जाती है। मां सरस्वती ज्ञान की देवी है। गुरु शिष्य परंपरा के तहत माता-पिता इसी दिन अपने बच्चे को गुरुकुल में गुरु को सौंपते थे। यानी बच्चों की औपचारिक शिक्षा के लिये यह दिन बहुत ही शुभ माना जाता है। विद्या व कला की देवी सरस्वती इस दिन मेहरबान होती हैं, इसलिए उनकी पूजा की जाती है। इसलिए कला जगत से जुड़े लोग भी इस दिन को अपने लिए बहुत खास मानते हैं।
जिस तरह सैनिकों के लिए उनके शस्त्र और विजयादशमी का पर्व, उसी तरह और उतना ही महत्व कलाकारों के लिए बसंत पंचमी का है। चाहे वह कवि, लेखक, गायक, वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब इस दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं।
मां सरस्वती की आरती-
जय सरस्वती माता. मैया जय सरस्वती माता।
सदगुण वैभव शालिनी, त्रिभुवन विख्याता॥ जय सरस्वती माता॥
चन्द्रबदनी पद्मासिनि, धुति मंगलकारी। सोहे शुभ हंस सवारी, अतुल तेजधारी॥ जय सरस्वती माता॥
बाएं कर में वीणा, दाएं कर माला। शीरा मुकुट मणि सोहे, गल मोतियन माला॥ जय सरस्वती माता॥
देवी शरण जो आए, उनका उद्धार किया। पैठी मंथरा दासी, रावण संहार किया ।। जय सरस्वती माता ॥
विद्या ज्ञान प्रदायिनी, ज्ञान प्रकाश भरो। मोह अज्ञान और तिमिर का. जग से नारा करो।। जय सरस्वती माता॥
धूप दीप फल मेवा, मां स्वीकार करो। ज्ञानचक्षु दे माता जग निस्तार करो॥ जय सरस्वती माता॥
माँ सरस्वती की आरती, जो कोई जन गावे। हितकारी सुखकारी ज्ञान भक्ति पावें॥ जय सरस्वती माता॥
जय सरस्वती माता, जय जय सरस्वती माता। सदगुण वैभव शालिनी त्रिभुवन विख्याता॥ जय सरस्वती माता॥
प्राचीनकाल से ही कवियों और बसंत के संबंधों में मधुरता रही है, कालिदास, माघ, भारवि आदि महाकवियों ने वसंत के गीत गाये, लेकिन वसंत का जो भी सजीव वर्णन श्री हर्ष ने सातवीं शताब्दी के आरंभ में लिखी 'रत्नावली नाटिका' में किया है, वह सचमुच अनोखा है।
संपूर्ण प्रथम अंक कौशांबी नगर में संपन्न वसंतोत्सव के वर्णन से भरा हुआ है। कहते हैं यह नाटक भी वसंतोत्सव पर खेला गया था और उसके विदूषक का नाम भी बसंत ही रखा गया। इस नाटिका में बसंत पर्व को मदन महोत्सव भी कहा गया है।
बसंत पंचमी के दिन मदन और रति की पूजा करने की प्रथा है। कहा जाता है भगवान कामदेव का जन्म इसी तिथि को हुआ था। कामदेव की पूजा केसरिया वस्त्र धारण करके की जाती थी। शिव की तपस्या भंग करने के लिए कामदेव जब चले तो सखा बसंत को उन्होंने साथ ले लिया था सुखमय वैवाहिक जीवन के लिए ही इस दिन कामदेव की पूजा की जाती है।
संस्कृत के कवियों ने बसंत ऋतु के श्रृंगार में आम के बौरो को विशेष महत्व दिया है। बसंत के प्राकृतिक सौंदर्य में पलाश पुष्पों का भी बड़ा महत्व है। रघुवंश और अभिज्ञान शकुंतलम में कालिदास द्वारा रचित वसंतोत्सव में बसंत का समस्त सौंदर्य सिमट आया है।
सुमित्रानंदन पंत ने बसंत का बड़ा ही मोहक चित्रण किया है :-
अब रजत स्वर्ण मंजरियों से।
लद गयी आम्र तक की डाली।।
झर रहे ढाक, पीपल के दल।
होउठी कोकिल मतवाली।।
 
 
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