'वास्तु' शब्द का सीधा सरल अर्थ स्थापत्य है अर्थात् भवन, देवालय, प्रासाद आदि संरचनाओं का निर्माण। इस प्रकार के निर्माण की कला एवं विज्ञान, वास्तु शास्त्र में समाहित होते हैं।
कला पक्ष में आकर्षक सूक्ष्म एवं स्थूल शिल्पकला का समावेश होता है जबकि विज्ञान पक्ष में धरातल, वायुमंडल, दिशाओं, सूर्य की गति एवं ऊष्मा आदि का तथा आसपास के परिकर का विचार कर, वास्तु के अनुकूल एवं प्रतिकूल शुभाशुभ फलों को ध्यान में रखते हुए संरचना का निर्माण किया जाता है।
दिशाओं की स्थिति समझकर उसके अनुरूप निर्मित संरचनाओं में सुपरिणाम निश्चय ही देखने को मिलते हैं। धरातल का ऊंचा नीचापन, ढलान, चढ़ाव, आसपास वृक्ष, कुआं, पंडाड़ी, ऊंची इमारत आदि का प्रभाव भी इस विषय में सम्मिलित किया जाता है।
वर्तमान युग वैज्ञानिक युग कहा जाता है। विज्ञान पर विश्वास करने वाला समुदाय प्राचीन मान्यताओं को तर्क एवं प्रमाण की कसौटी पर परखता है। यदि कोई भी मान्यता व्यावहारिक प्रयोग में तथ्यपरक परिणाम प्रकट नहीं करती है तो विज्ञान उसे कल्पना मानता है।
वास्तु विज्ञान में उल्लेखित सैद्धांतिक मान्यताओं को प्रमाण एवं तर्क की कसौटी पर रखने से उनमें यथार्थता परिलक्षित होती है। दिशाओं का ज्ञान, धरातल का ज्ञान, सूर्य प्रकाश एवं चुम्बकत्व धारा का ज्ञान आदि सभी विज्ञान सम्मत हैं। निश्चय ही इनका प्रभाव प्राणी मात्र के जीवन पर पड़ता है।
जैन दर्शन के अनुसार प्राणी मात्र का शुभाशुभ उनके कर्मों के उदय-विपाक पर आधारित है। उसके कर्म फल के अनुरूप ही उसे जहां एक ओर सांसारिक सुख, वैभव, सम्पदाएं आदि प्राप्त होती हैं। वहीं दूसरी ओर सांसारिक दुख, रोग, कलह, धनक्षय, संततिनाश, वंशनाश, वैधव्य इत्यादि दुःख भी प्राप्त होते हैं।
किसी को पतिव्रता स्त्री की प्राप्ति होती है तो कोई कलहकारिणी, स्वैराचारिणी स्त्री से जीवन पर्यन्त नरक तुल्य दुख भोगता है। किसी को अनुकूल स्वास्थ्य मिलता है तो कोई जन्म से ही पोलियो इत्यादि बीमारियों से विकलांग हो जाता है।
किसी को एक-एक पैसे के लिए तरसते देखा जाता है तो कोई लाखों रुपये भोग-विलास में व्यय करता है। एक ओर विवाहादि आयोजनों में धन एवं भोजन की बर्बादी देखी जाती है तो वहीं दूसरी ओर उनके द्वारा फेंकी गई जूठन के लिए भी लोगों को तरसते देखा जाता है।
कोई महलों में रहता है जिनका रखरखाव, साफ सफाई तक नहीं होती तो कोई लाखों रुपए व्यय करके भी दो कमरों का फ्लैट नहीं ले पाता। तात्पर्य यह है कि संसार में सुख-दुख की दृष्टि से बड़ी विचित्रता देखी जाती है।
जैन शास्त्रों का स्पष्ट कथन है कि सभी प्राणी अपने अर्जित कर्मानुसार ही फल भोगते हैं। अनुकूल अथवा प्रतिकूल आवास गृहों की प्राप्ति भी अपने-अपने कर्मानुसार ही होती है। हमारे द्वारा पूर्वकृत कर्म ही वे पुरुषार्थ हैं, जो हमें पुण्य या पाप का उपार्जन कर तदनुरूप सामग्री प्राप्त कराते हैं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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