हमारे ऋषियों या बुजुर्गो ने मन्दिरों का निर्माण इस कारण से कराया था कि हम अपने आराध्य को देखकर उन जैसे बनने का प्रयास करें। जैसे भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम लेकिन उनके भक्त मर्यादा का कितना पालन कर रहे है?
इसी प्रकार श्रीकृष्ण कर्मयोगी थे किन्तु उनके भक्त कर्महीन हो रहे हैं। भगवान शिव इन्हें संपूर्ण जीव जगत का कल्याण कर्ता माना गया है किन्तु शिव भक्त कितना कल्याण कर रहे हैं सर्वविदित है ।
हम अपने देवताओं से यह शिक्षा ग्रहण करें कि उनके कुछ अच्छे अंश हमारे भीतर भी विकसित हो सके। लेकिन हम अपनी औपचारिकताएं पूरी कर रहे हैं और ईश्वर भी औपचारिकता निभा रहा है। यही दुख, दुर्भाग्य और कालसर्प का कारण है।
भावना शिव को वश में करती, प्रीति से ही तो प्रीत है बढ़ती।
यदि ये भाव हम सभी में आ जाए तो कष्ट कहाँ रहेंगे। ईश्वर की प्रसन्नता है प्रेम और पूजा में है। यदि कोई भी मनुष्य प्रेम और कर्म करेगा, तो दुःख बचेगा ही कहाँ; क्योंकि कर्म करते हुए व्यस्त रहने से आपको दुःख का अहसास ही नहीं होगा।
प्रकृति एवं ईश्वरीय विधान के अनुसार जब हम 10 किलो गेहूं बोते हैं, तो निश्चित 200 किलो गेहूं उत्पन्न होता है। लेकिन यदि हम 10 बुराई बोयेंगे अर्थात दस का बुरा करेंगे तो उसके बदले निश्चित ही 200 बुराई आपके खाते में नामे हो जायेगी।
आशय यह है कि हमारे द्वारा किसी की बुराई और आलोचना करने से हमारे पुण्य क्षीण हो जाते हैं। सिख धर्म का पवित्र ग्रंथ गुरु वाणी में श्री गुरुनानक देव जी ने भी ऐसा उल्लेख किया है। धर्म समझने का विषय है, चिंतन का विषय है अध्ययन, मनन और कर्म का विषय है केवल सुनने का नहीं।
अरे जो लोग इतने प्राचीन ग्रन्थों गीता, रामायण, वेद-पुराणों उपनिषद धार्मिक ग्रन्थ आदि को सुनकर नहीं जागे तो इन कथावाचकों से क्या जागेंगे? इसलिए चेतो! उठो जागो।
वेद पुराणों का स्वयं अध्ययन कर सौभाग्यशाली बनो और धर्म अनुसार कर्म करो। निश्चित ही कालसर्प दोष और दुर्भाग्य आपका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा।
रघुवीर
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