Published By:धर्म पुराण डेस्क

अपना दीपक खुद बनो

उज्जैन नगर के पास देवपुर गांव में देवदत्त नाम का एक वैश्य रहता था। उसके दो पुत्र थे गौरांग और कृपरांग। गौरांग बहुत सुंदर और गोरे रंग का था। उसके छोटे भाई कृपरांग को बचपन में चेचक निकली थी, जिसके कारण उसका चेहरा ही दागदार नहीं हो गया था, बल्कि उसकी बायीं आँख भी खराब हो गई थी। काला-कलूटा होने के कारण माँ-बाप भी उसको हमेशा ही दुतकारते रहते थे।

जवान हो जाने पर जब दोनों में से किसी ने भी बाप का काम संभालने में रुचि नहीं ली तो माँ-बाप को चिंता हुई। जंगल में नदी किनारे एक महात्मा रहते थे। जो कोई उनकी शरण जाता उसे सही मार्ग बता देते थे। उनके समझाने का ढंग ऐसा था कि हर कोई उनकी बात मान लेता था। 

देवदत्त अपने दोनों पुत्रों को लेकर उनकी कुटिया पर गया। देवदत्त ने अपना कष्ट बताया, 'जवान हो जाने पर भी, इन दोनों की रुचि काम करने की नहीं है। उन्हें शिक्षा दीजिए। महात्मा दोनों पुत्रों को अपनी कुटिया में भीतर ले गए। वहाँ दो दीपक रखे हुए थे। एक दीपक बहुत चमकदार धातु का बना था और दूसरा मिट्टी का था| मिट्टी वाला तेल से भरा था और उसमें बत्ती पड़ी थी। चमकदार दीपक बड़े वाले पुत्र को और मिट्टी वाला दीपक छोटे पुत्र को देकर महात्मा ने कहा- "आज रात इन दीपकों को जलाना और कल सवेरे दोनों आकर मुझे मिलना।”

गौरांग रास्ते में सोचने लगा, “मेरे दीपक में न तेल है और न बत्ती...इसे कैसे जलाऊँगा?” तभी उसकी नजर रास्ते के किनारे खड़े कपास के खेत पर पड़ी, जिसमें मजदूर औरतें कपास चुन रही थी, वह रुक गया और खेत के मालिक के पास जाकर बोला- "क्या मैं आपके खेत में कपास चुनने की मंजूरी कर सकता हूँ?” किसी ने बताया- "जितनी कपास तुम चुन लोगे उसका दसवां भाग तुम्हें मजदूरी के रूप में मिल जाएगा।" सुनते ही गौरांग पूरे मनोयोग के साथ कपास चुनने में जुट गया। 

शाम तक उसने एक बड़ा ढेर इकट्ठा कर लिया। मजदूरी में दसवां भाग लेकर वह उज्जैन नगर गया। रास्ते में जाते समय उसने कपास के कुछ फूल दीपक की बत्ती बनाने के लिए अपनी जेब में रख लिए बाकी कपास बेचकर उसने तेल खरीदा और दिन छिपने से पहले ही अपने घर आ गया।

जैसे ही अंधेरा हुआ कृपरांग ने अपना मिट्टी का दीपक आँगन में रखा और जला दिया। उस रात हवा तेज थी इसलिए दीपक बुझ गया, कृपरांग उसे बार-बार जलाता था और दीपक बुझ जाता, इसी कोशिश में सारी रात बीत गई। दूसरी और गौरांग ने दीपक को हवा से बचाने के लिए कमरे में जलाया, दीपक जला और सारी रात जलता रहा।

दूसरे दिन दोनों भाई जब महात्मा के पास पहुँचे तो देखा कि उनका पिता पहले से वहाँ पहुँचा हुआ है। दोनों ने अपनी-अपनी बात बताई। महात्मा ने समझाया "गौरांग, तुम्हारा दीपक जल गया है। तुम्हें किसी शिक्षा की जरूरत नहीं है। अब तक तुम दूसरों की ओर देखते थे। औरों को देखकर तुम भी मौज मस्ती में अपनी जिन्दगी गुजार रहे थे। जब तुम्हारे मन में संकल्प जगा कि मुझे हर सूरत में दीपक जलाना है तो तुम्हारी बुद्धि, मन और शरीर तीनों एक लक्ष्य की प्राप्ति में लग गए और तुम्हें सफलता पाते देर न लगी। अगर इसी तरह दृढ़ संकल्पवान बनकर आगे बढ़ोगे तो जो चाहोगे वही प्राप्त हो जाएगा।"

फिर कृपरांग के सिर पर हाथ फेरते हुए महात्मा ने कहा- "बेटे कृपरांग, तुम सारे दिन यही सोचते हो कि मेरा दीपक मिट्टी का है और मेरे भाई का सोने जैसा चमकदार है। इस हीन भावना और ईर्ष्या-द्वेष ने तुम्हारी बुद्धि, शक्ति और अनुभव को निष्क्रिय कर दिया, इसका फल यह हुआ कि तेल से भरा और बत्ती पड़ा हुआ दीपक तुम सारी रात कोशिश करके भी न जला सके। ईश्वर ने जैसी आकृति, शरीर और साधन दिये हैं उन्हीं पर भरोसा करके पूरे उत्साह, लगन और बुद्धिपूर्वक अपने लक्ष्य में जुट जाओगे तो तुम्हारे जीवन का दीपक अवश्य जल उठेगा और संकटों की हवा उसे बुझा नहीं पायेगी।"

 

धर्म जगत

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