Published By:दिनेश मालवीय
रामचरितमानस में प्रयागराज का राजा के रूप में सुंदर वर्णन
सत्य इस राजा का मंत्री और श्रद्धा पत्नी है
-दिनेश मालवीय
सनातन धर्म-संस्कृति में प्रयाग को तीर्थों का राजा माना गया है. इसीलिए इसे प्रयागराज कहा जाता है. मुगलकाल में इस परम पवित्र नगर का नाम बदलकर इलाहाबाद रख दिया गया था. लेकिन कुछ समय पहले इसका मूल नाम “प्रयागराज” वापस रख दिया गया है.
श्रीरामचरितमानस में महाकवि तुलसीदास ने अनेक सुंदर रूपक बांधे हैं. इनमें प्रयागराज का भी बहुत अद्भुत सुंदर वर्णन किया गया है. प्रयाग को तीर्थों का राजा कहा गया है. जब राजा है, तो उसके अंग भी होने चाहिए. राजा के सात अंग होते हैं- स्वामी, अमात्य या मंत्री, सुहृत यानी मित्र, कोश यानी खजाना, राष्ट्र यानी राज्यमंडल देश, दुर्ग अर्थात किला और बल यानी सेना. इसके अलावा, रानी, दो चँवर, छत्र, सिंहासन और भाट आदि अंग भी कहे गये हैं.
इन सभी अंगों के साथ राजा सुखपूर्वक राज्य करता है. राजा के रूप में इतना सुंदर रूपक कहीं और देखने को नहीं मिलता. अयोध्या काण्ड में भगवान् श्रीराम जब अपनी अर्धांगनी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ प्रयाग जाते हैं. वे प्रात:काल नित्य कर्मों से निवृत होकर तीर्थराज प्रयाग के दर्शन करते हैं. तुलसी लिखते है,कि प्रयाग एक राजा हैं. “सत्य” उनका मंत्री और “श्रद्धा” प्रिय पत्नी है. वेणीमाधव जैसा भलाई करने वाला मित्र है. अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष, इन चारों पदाथों का यहाँ भरपूर भण्डार है.
प्रयाग का पुण्य-स्थल ही बहुत सुंदर देश अर्थात राजधानी है. वहाँ की पुण्य-भूमि ही सुन्दर मजबूत और दुर्गम किला है, जिसे शत्रु स्वप्न में भी नहीं भेद सकते. यहाँ शत्रु से आशय पाप से है. यानी प्रयागराज में पाप कभी प्रवेश नहीं कर सकते. सारे तीर्थ इस राजा की श्रेष्ठ वीरों की सेना है, जो पाप की सेना के दलन वाले शूरवीर हैं. गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम ही उसका अत्यंत शोभायमान चँवर है, जिन्हें देखकर दुःख-दारिद्रय नष्ट हो जाते हैं. पुण्यात्मा और पवित्र साधु उसकी सेवा करते और सभी मनोरथ पाते हैं. सभी वेद-पुराण ही भाट लोग हैं, जो इस राजा के निर्मल यश का गान करते हैं.
इस राजा का मंत्री सत्य है. इसके सेवन से लोक-परलोक दोनों की सिद्धि होती है. मंत्री राजा का प्रधान अंग होता है. अगर शेष सभी अंग नष्ट भी हो जाएँ, तो शेष अंग फिर से पाए जा सकते हैं. इसका आशय यह भी है,कि सबकुछ नष्ट होने पर भी यदि सत्य साथ रहे, तो सबकुछ फिर से पाया जा सकता है. सत्य ही सभी सुकृतों का मूल है. इसका आशय यह है, कि तीर्थसेवन के दौरान मनुष्य को सदा सत्य बोलना चाहिए और इसी संस्कार को लेकर वापस जाना चाहिए. तीर्थ से लौटकर जीवनभर सत्य बोलने का नियम पालन करने की कोशिश करनी चाहिए.
श्रद्धा को प्रयाग रूपी राजा की प्रिय पत्नी कहा गया है. श्रद्धा तो धर्म का मूल ही है. श्रद्धा के बिना धर्म के क्षेत्र में कुछ भी सार्थक प्राप्त नहीं किया जा सकता. गुरुवाक्य, वेदवाक्य और संत-वाक्य में विश्वास को ही श्रद्धा कहा जाता है. व्यक्ति को मन,वचन और कर्म से वेद वचनों का पालन करना चाहिए.
माधव को मित्र कहा गया है. मा (लक्ष्मी) और धव (पति) अर्थात लक्ष्मीपति श्रीविष्णु मित्र हैं, जो हर संकट में काम आते हैं. किष्किन्धा काण्ड में मित्र के लक्षण बहुत विस्तार से बताये गये हैं. प्रयाग में वेणीमाधव के दर्शन का बहुत महत्त्व बताया गया है. भगवान की उनके दर्शन करते हैं.
प्रयाग को चारों पदार्थों का भण्डार कहा गया है. ये हैं- अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष. प्रयागराज के सेवन से इन चारों की प्राप्त होती हैं. धर्म के अंग हैं- दया, शौच, सत्य आदि. इस सभी से यह भरा-पूरा है.
सभी तीर्थों को प्रयाग रूपी राजा की अजेय सेना बताया गया है. ये सैनिक बहुत वीर हैं. मथुरा, द्वारकाम हरिद्वार, काशी, पुष्कर आदि सब तीर्थसेना हैं. यह सेना पाप रूपी सेना को कभी जीतने नहीं देती.
प्रयागराज में सनातन काल से अक्षयवट स्थित है. इसे प्रयाग रुपी राजा का छत्र कहा गया है. यह वटवृक्ष प्रलयकाल में भी नष्ट नहीं होता. कितना भी जल भर जाये, लेकिन यह नहीं डूबता. इसी तरह राजा का छत्र कभी भंग नहीं होता. इसकी पूजा की जाती है.
संगम को राजा का सिंहासन का रूप दिया गया है. यहाँ स्नान करने से सभी पापों का नाश हो जाता है. गंगा-यमुना चँवर डुलाती हैं. इनकी तरंगें चँवर हैं. गंगा का जल श्वेत और यमुना का जल शायम है. इनकी तरंगें श्वेत-श्याम चँवर हैं. इसकी महिमा और यश का गान वेद-पुराण करते हैं, जिन्हें भाट कहा गया है. इसके अलावा जो लोग इस तीर्थ की स्तुति करते हैं, वे भी इसी श्रेणी में आते हैं.