 Published By:दिनेश मालवीय
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चित्रकूट का नाम सुनते ही, रामभक्तों के ह्रदय के सुंदर सात्त्विक भावों की गंगा हिलोरे मारने लगती है. भगवान् अपने चौदह वर्ष के वनवास काल में से लगभग बारह वर्ष चित्रकूट में रहे. इसलिए स्वाभाविक रूप से यह स्थान परम पावन है. उनकी अनेक सुंदर स्मृतियाँ इस स्थान से जुड़ी हैं. इस महान तीर्थस्थल का एक और सबसे महत्त्व यह है, कि यहाँ परम पावनी मंदाकिनी नदी बहती है. इस नदी के “रामघाट” पर शाम को आरती का नज़ारा देखकर ऐसा लगता है, कि हम त्रेतायुग में पहुँच गये हैं.
मंदाकिनी नदी के बारे में संत तुलसीदास ने कहा है, कि “सुरसरि सरित नाम मंदाकिनी. सो सब पातक पोतक डाकिनी”. अर्थात गंगा मंदाकिनी एक ऐसी डाकिनी के समान है, जो सभी पापों की संतानों को खा डालती है. यानी इसमें स्नान कर पापों का मूल ही नष्ट हो जाता है. मन्दाकिनी नदी के तट पर सैकड़ों मंदिर, आश्रम और अन्य पवित्र स्थल हैं. जानकी घाट का भी अपना महत्त्व है, क्योंकि माता जानकी वहाँ स्नान करती थीं. इसके पास ही के तट पर बहुत रमणीक परिवेश में परमात्म तत्व को जानने वाले महर्षि अत्रि का आश्रम आज भी स्थित है. उनकी पत्नी सतियों में सर्वोच्च स्थान रखती हैं. ऐसी पावन मंदाकिनी नदी चित्रकूट कैसे आयी, इसकी बहुत सुंदर कथा है. सती अनसूया के तपोबल से गंगा नदी ही मन्दाकिनी के रूप में यहाँ अवतरित हुयी.
शिवपुराण के अनुसार अनसूयाजी द्वारा चित्रकूट में गंगा नदी लाने की कथा मिलती है. एक समय चित्रकूट के कामदवन में में महर्षि अत्रि अपने आश्रम में तपस्या कर रहे थे. वहां सौ वर्ष तक बारिश नहीं होने के कारण हर तरफ हाहाकार मच गया. लोगों का दुःख सहन नहीं कर पाने पर ऋषि ने समाधि लगा ली. उनके शिष्य आदि उन्हें छोड़कर चले गये. लेकिन अनसूया सारे कष्ट सहकर उनकी सेवा में वहीं उपस्थित रहीं. वह नित्य मानसी पार्थिव की पूजा करती थीं. उनका तेज अग्नि से इतना बढ़ गया, कि देवता, दैत्य आड़ भी उनके सामने नहीं आ सकते थे. महर्षि और उनकी पत्नी का तप देखकर देवता दर्शन को आये और चले गये, लेकिन गंगाजी और शिवजी वहीं रह गये.
गंगाजी ने सोचा, कि ऎसी महान सती का कुछ-न कुछ उपकार करना उचित होगा. इस प्रकार अकाल के चौवन वर्ष बीत गये. अनसूयाजी का भी यही संकल्प था, कि जब तक स्वामी समाधि में रहेंगे, तब तक वह अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगी. चौवन वर्ष बीतने पर महर्षि समाधि से उठे. उन्होंने अनसूया से जल माँगा. अनसूयाजी सोचने लगीं, कि कहाँ से जल लाकर पति की प्यास को संतुष्ट करूँ. उसी समय मूर्तिमान गंगा ने उनको दर्शन देकर पूछा, कि देवी! तुम कौन होआ और क्या चाहती हो ? जो चाहो वह मुझसे माँग सकती हो. अनसूयाजी ने अपना परिचय देकर गंगा से पूछा, कि इस घने वन में कोई आता-जता नहीं है. आप कौन हो? परिचय पाने पर अनसूयाजी ने गंगाजी को प्रणाम किया और जल की माँग की.
गंगाजी ने अनसूया से एक गड्ढ़ा खोदने को कहा. गंगाजी उसमें उतारकर जल रूप हो गयीं. अनसूयाजी जल लेकर जाने लगीं और गंगाजी से बोलीं, कि जब तक मैं पति को जल देकर नहीं लौटूँ, तब तक आप यहीं रहें. अत्रि मुनि बोले, कि इतना स्वादिष्ट जल तो मैंने पहले कभी पीया ही नहीं. अनसूयाजी ने कहा,कि आपके तप के प्रभाव से स्वयं गंगाजी यहाँ पधारी हैं. यह उन्हीं का जल है. अत्रिजी ने कहा, कि मैं तुम्हारे साथ उनके दर्शन के लिए चलता हूँ. उन्होंने दंडवत प्रणाम कर कुंड में स्नान किया. इसके बाद गंगाजी ने बोला, कि अब मैं जाती हूँ. अनसूयाजी और अत्रिजी ने उनसे प्रार्थना, कि जब आप यहाँ आ गयी हैं, तो यहीं रह जाइए. हमें छोड़कर नहीं जाइये. गंगाजी ने कहा, कि यदि तुम शिवजी की सेवा से प्राप्त एक वर्ष का पुण्य-फल मुझे दे दो तो तुम्हारी कामना पूरी हो सकती है. अनसूयाजी ने ऐसा ही किया. उसी दिन से गंगाजी वहां रह गयीं और उनका नाम मंदाकिनी हुआ.
 
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