प्रसन्न -चित्त मनुष्यों की आयु बढ़ती है, बुद्धि विकसित होती है|
झुर्रियों के बारे में कम चिंता और चमकदार त्वचा पर अधिक ध्यान देना युवावस्था का नया पैमाना है। आत्म-देखभाल के रवैये के साथ अधिक दीर्घकालिक दृष्टिकोण, आहार, तनाव, धूप, जलवायु और प्रदूषण जैसे पर्यावरणीय और जीवनशैली कारकों पर विचार करना। यह परिवर्तन दर्शाता है कि लोग अब अपने स्वास्थ्य और तंदुरुस्ती के प्रति अधिक समग्र दृष्टिकोण अपना रहे हैं - भौतिक रूप-रंग की तुलना में मन, शरीर और आत्मा पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है।
वृद्धावस्था में आने वाली चुनौतियों के बावजूद, जीवन की संतुष्टि और भावनात्मक स्थिरता 55 वर्ष की आयु के आसपास बढ़ने लगती है।
सामान्य मनुष्य का चिंतन रहता है कि, उससे सब खुश रहें तथा प्रसन्न रहें। दूसरों को खुश रखने और उनकी नाराजगी से बचने के लिए उनकी बहुत बड़ी शक्ति नष्ट हो जाती है।
संतों, योगियों और ज्ञानियों की सोच इससे भिन्न है। इनकी दृष्टि में यदि हमारा मन प्रसन्न एवं संतुष्ट है, तो दूसरे हमसे रुष्ट होकर क्या लेंगे ? तथा यदि हमारा मन ताप से परिपूर्ण है, तो दूसरा प्रसन्न होकर भी क्या दे सकता है?
योगी वह होता है, जो न किसी को खुश रखने की चिंता में डूबा रहता है और न किसी की नाराजगी से भयभीत रहता है। वह सदा प्रसन्न रहता है, वह स्वस्थ, आत्मकेंद्रित और उदासीन रहता है। उदासीन का अर्थ है कि ऊंचा आसन अर्थात राग और द्वेष से ऊपर जिसका आसन हो। वीतरागी ही तटस्थ, मध्यस्थ एवं समता भाव रखता है। अपने आप को प्रसन्न रखना ही सबसे बड़ा प्रसाद है, जब यह स्व-प्रसाद मिलने लगता है तो किसी अन्य के प्रसाद और आशीर्वाद कि अपेक्षा ही नहीं रहती।
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है-
"प्रसादे सर्व दुखानाम हानिरस्योपजायते।
प्रसन्न - चेतसो ह्यायुर्बुद्धि: पर्यवतिष्ठते॥"
अर्थात प्रसाद गुण के जागते ही समस्त दुःख क्षीण हो जाते हैं। प्रसन्न चित्त मनुष्यों की आयु बढ़ती है, बुद्धि विकसित होती है। प्रसन्नता वस्तु सापेक्ष नहीं, अपितु वस्तु-निरपेक्ष होती है। राग, द्वेष और मोह - चेतना जितनी- जितनी क्षीण और या मंद होती है, उतनी प्रखर प्रसन्नता की अनुभूति होती है। खिले हुए और मुरझाये हुये फूल में जितना अंतर है, उतना ही अंतर प्रसन्नता और उदासी में है।
प्रसन्नचित्त का विस्तार है और उदासी चित्त की सिकुड़न किसी ने कहा है--- "बहुत से लोग बस अपने दुखों के गीत गाते हैं। दिवाली हो कि होली हो सदा मातम मनाते हैं। मगर दुनिया उन्हीं की रागनी पर झूमती हरदम। कि जो जलती चिता पर बैठकर वीणा बजाते हैं॥" संतुलित मन की पहचान है- मानसिक प्रसन्नता, आकृति पर सहज मुस्कान, धैर्य और प्रशांत चित्त की अवस्था।
मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि प्रसन्न-चित्त मनुष्य को मानसिक विक्षेप नहीं होता, उसकी बुद्धि अप्रकम्प और स्थिर रहती है। विक्षिप्त मनुष्य सही समय पर सही निर्णय नहीं ले सकता। यह स्पष्ट है कि जो मनुष्य प्रसन्न-चित्त और नम्र होते हैं, उन्हें हर काम में सफलता मिलती है।
मुस्कान कभी भी व्यर्थ नहीं जाती। मुस्कुराहट घर को प्रसन्नता से भर देती है। व्यापार में अधिक लाभ होता है। मित्रता के संसार को समृद्ध करती है।
मुस्कान एक कला है, वह अनेक प्रकार की होती है। एक मुस्कान बनावटी होती है। उसमें बनावट और सजावट है, पर बुनावट नहीं है। दूसरी मुस्कान विवेकपूर्ण होती है, इस पर बुद्धि और मस्तिष्क का नियंत्रण होता है।
तीसरी और सबसे ऊंची मुस्कान आध्यात्मिक मुस्कान होती है। यह अंतरात्मा से सहज प्रस्फुटित होती है। हंसमुख चेहरा कभी भी वैर उत्पन्न नहीं करता। प्रसन्नता और मुस्कान स्वस्थ रहने और खोये हुवे स्वास्थ्य को लौटाने का मूल मंत्र है।
हंसने और मुस्कुराने वाले के पास या तो रोग आते ही नहीं, और यदि आते भी हैं तो ठहरते नहीं हैं। मुस्कान स्वास्थ्य के लिए टॉनिक है। मुस्कान एक उच्च कोटि का व्यायाम है। यह एक सफल चिकित्सा पद्धति है। वस्तुत: जिनकी भावनाएं कोमल होती हैं, जिनकी भ्रकुटी कभी तनी नहीं रहती, उनके चेहरे पर उम्र की लकीरें कभी नहीं खींचती।
यदि आप लाइफ में मुस्कराहट और रोशनी लाना चाहते हैं तो सूरज निकलने से पहले उठ जाइये और संकल्प लीजिए कि आज का पूरा दिन प्रसन्नता और ख़ुशी के साथ बीतेगा। सहज और आनंद के साथ ध्यान करने से मन को प्रफुल्ल, आनंदित और प्रसन्न रखा जा सकता है। सदा प्रसन्न रहना ही आनंदित-जीवन का गुरु मंत्र है
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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