जिन मनुष्यों के पाप नष्ट हो गये हैं अर्थात् जो संसार से विमुख होकर भगवान के सम्मुख हो गये हैं, वे राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुख आदि द्वन्द्वों से रहित होकर भगवान का भजन करते हैं।
भजन करने वालों के प्रकार का वर्णन भगवान सोलहवें श्लोक में 'चतुर्विधा भजन्ते माम्' पदों से कर चुके हैं।
राग-द्वेष मनुष्य को संसार की तरफ खींचते रहते हैं। जब तक एक वस्तु में राग रहता है, तब तक दूसरी वस्तु में द्वेष रहता ही है; क्योंकि मनुष्य किसी वस्तु के सम्मुख होगा तो किसी वस्तु से विमुख होगा ही।
जब तक मनुष्य के भीतर राग-द्वेष रहते हैं; तब तक वह भगवान के सर्वथा सम्मुख नहीं हो सकता; क्योंकि उसका सम्बन्ध संसार से जुड़ा रहता है। उसका जितने अंश में संसार से राग रहता है, उतने अंश में भगवान से द्वेष अर्थात विमुखता रहता है।
'दृढव्रताः' – ढीली प्रकृति वाला अर्थात शिथिल स्वभाव वाला मनुष्य असत्य का जल्दी त्याग नहीं कर सकता। एक विचार किया और उसको छोड़ दिया, फिर दूसरा विचार किया और उसको छोड़ दिया- इस प्रकार बार-बार विचार करने और उसको छोड़ते रहने से आदत बिगड़ जाती है।
इस बिगड़ी हुई आदत के कारण ही वह असत्य का त्याग की बातें तो सीख जाता है, पर असत्य का त्याग नहीं कर पाता। अगर वह असत्य का त्याग कर भी देता है तो स्वभाव की ढिलाई के कारण फिर उसको सत्ता दे देता है। स्वभाव की यह शिथिलता स्वयं साधक की बनाई हुई है।
अतः साधक के लिये यह बहुत आवश्यक है कि वह अपना स्वभाव दृढ़ रहने का बना ले। एक बार वह जो विचार कर ले, उस पर वह दृढ़ रहे। छोटी-से-छोटी बात में भी वह दृढ़ (पक्का) रहे तो ऐसा स्वभाव बनने से उसमें असत्य का त्याग करने की, संसार से विमुख होने की शक्ति आ जाएगी।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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