राज भोज तथा उनके सभी दरबारियों ने पत्थर की उन मूर्तियों को गौर से देखा, वे शिल्पकला की उत्कृष्ट कलाकृति थीं। तीनों हू-ब-हू एक जैसी! रत्ती भर भी कहीं कोई फर्क नहीं। लाख कोशिश करने पर भी वे उन मूर्तियों में किसी प्रकार का कोई अन्तर न निकाल पाये।
राजा भोज विचार करने लगे कि काश! इस समय यहाँ पर कालिदास मौजूद होते। वे जरूर इन मूर्तियों में फर्क ढूँढ लेते। उसी समय कालिदास वहाँ पधारे। राजा ने मूर्तियाँ उनके हाथों में दे दीं। पहले तो कालिदास को भी उन मूर्तियों में किसी प्रकार का अन्तर नजर नहीं आया किन्तु बहुत गौर से देखने पर उन्हें उन मूर्तियों के कानों में छेद दिखाई पड़ा। वे सोचने लगे कि फर्क अवश्य ही कान के इन छेदों के कारण ही होगा।
कालिदास ने सोने का बहुत पतला तार मँगवाया और एक मूर्ति के कान में उस तार को डाला। तार अन्दर घुसते चला गया और अन्त में तार का सिरा दूसरे कान से बाहर निकल आया। दूसरी मूर्ति के कान में तार डालने पर उसका सिरा मुँह से बाहर निकला। पर तीसरे मूर्ति के कान में तार डालने पर तार घुसता ही चला गया, कहीं से भी बाहर नहीं निकला।
यह देखकर कालिदास के मुख पर सन्तुष्टि की मुस्कान आ गई। वे राजा भोज से बोले, "महाराज जिस मूर्ति के दूसरे कान से तार का सिरा निकला उसकी कीमत दो कौड़ी भी नहीं है क्योंकि वह उन लोगों का प्रतीक है जो ज्ञान की बातों को एक कान से सुनते हैं और दूसरे कान से बाहर निकाल देते हैं। दूसरी मूर्ति जिसके मुँह से तार का सिरा निकला वह अवश्य कुछ मूल्यवान है क्योंकि वह ऐसे लोगों को इंगित करती है जो ज्ञान की बातों को सुनते हैं और सुनकर दूसरों को भी बताते हैं, उन बातों को आत्मसात करते हैं या नहीं यह कहा नहीं जा सकता किन्तु ज्ञान की बातों को सुनकर दूसरों को भी बताने का अवश्य कुछ न कुछ मूल्य होता है। और तीसरी मूर्ति जिसके भीतर तार घुसता ही चला गया, कहीं से बाहर नहीं निकला उन लोगों का प्रतीक है जो ज्ञान की बातों को सुनकर आत्मसात कर लेते हैं। इस तीसरी मूर्ति का मूल्य कोई भी नहीं दे सकता, यह अनमोल है।"
कथा का सार यही है कि ज्ञान की बातों को आत्मसात कर लेना और उनका जगत तथा स्वयं के हित में सदुपयोग करना ही श्रेयस्कर है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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