इसी प्रकार अन्य प्रमुख मन्दिर के अपने-अपने तालाब हैं- यमेश्वर ताल, रामेश्वर ताल, गौरीकुण्ड, केदारेश्वर ताल, चल-धुआ कुंड, मुक्तेश्वर और ब्रह्मेश्वर, जिसके दक्षिण में मरीचि कुंड है। मरीचि कुंड का जल चैत्र के महीने में अच्छे दामों में बिकता है, क्योंकि अत्यंत पवित्र और शुद्ध होने के कारण लोग इसे खूब खरीदते हैं।
भुवनेश्वर के ये मन्दिर ब्राह्मण-सम्प्रदाय की शिल्प कला के अनूठे उदाहरण हैं। इनका प्रभाव ऐहोली स्थान के दुर्गा और हच्छीमल्लिगुडी के मन्दिरों पर विशेषकर तथा अन्य मंदिरों पर भी पड़ा है। वैसे तो इन मंदिरों का काल एकदम ठीक नहीं आँका जा सकता; किंतु कहा जा सकता है कि यहां के प्रमुख मन्दिर 10वीं शताब्दी ई० से लेकर 12वीं शताब्दी ई० तक के बीच निर्मित हुए हैं।
भुवनेश्वर में और उसके आसपास लगभग 500 मंदिर हैं, जिनमें से उल्लेखनीय ये हैं- मुक्तेश्वर, केदारेश्वर, सिद्धेश्वर, परशुरामेश्वर, गौरी, उत्तरेश्वर, भास्करेश्वर, राजा-रानी, नायकेश्वर, ब्रह्मेश्वर, मेघेश्वर, अनन्त वासुदेव, गोपालिनी, सावित्री, लिंगराज सरिदेवल, सोमेश्वर, यमेश्वर, कोहितीर्थेश्वर, हहकेश्वर, कपालमोचनी, रामेश्वर, गोसहस्रेश्वर, शिशिरेश्वर, कपिलेश्वर, वरुणेश्वर, चक्रेश्वर आदि ।
मुक्तेश्वर को फर्गुसन ने उड़ीसा वास्तुशिल्प का हीरा कहा है। इसकी स्थिति वन-उपवन के बीच ऐसी बन पड़ी है कि देखते ही बनता है। प्रकृति का ऐसा निखरा सौंदर्य कश्मीर को छोड़कर भारत में अन्यत्र शायद ही हो।
यह मन्दिर ब्राह्मण स्थापत्य कला का सर्वोत्तम नमूना है।
“It may appropriately be called a dream in sand-stone adapting the immortal phraseology of Colonel Sleeman regarding Taj Mahal, It seems that the artist must have be stowed all his care and skill to make it a perfect, well-proportioned model of Orissan architecture.”
अर्थात 'ताजमहल की भव्यता पर कहे गये कर्नल स्लीमन के अमर वाक्यों को यह मंदिर भलीभाँति चरितार्थ करता है। लगता है कि कलाकार ने इसे सुन्दर अनुपातयुक्त और सर्वांग-सम्पूर्ण बनाने में अपना पूरा कौशल व्यक्त किया है।
पांच भूमियों वाला यह पंचरथ देवल राजारणिया नामक मोमिया पीतवर्ण पत्थर से बना है। बाहर से इसके विमान और जगमोहन का माप 2615 वर्ग फुट है, और उपपीठ 1 फुट 1 इंच ऊंचा है। जगमोहन के झरोखे चटाईदार मोहरों के हैं और अलंकृत हैं।
गंगा यमुना, नन्दी और महाकाल तथा उड़ते हुए गन्धर्व गण इसके विमान और जगमोहन की शोभा बढ़ाते हैं। हाथी को रौंदते हुए शार्दुल देखते ही बनते हैं। विमान की शोभा नाग-मूर्तियाँ हैं। बंदरों के फुदकते-उछलते हुए दृश्य मन को मोह लेते हैं।
पार्श्वों में कोनकपागों में तपस्वीगण समाधिरत अथवा उपदेश देते दिखाई देते हैं। दक्षिणी रहपग में अंकित मृगया का अद्भुत दृश्य बड़ा ही आकर्षण पूर्ण है। कुछ को मृग पीछे घूम-घूमकर देखते जाते हैं कि व्याध नजदीक आ पहुँचा क्या।
दूसरा उल्लेखनीय मन्दिर परशुरामेश्वर का है। यह पाँचवीं-छठी शताब्दी ई० का है और भुवनेश्वर के सबसे प्राचीन मंदिरों में से है। सामान्य उड़ीसा-मन्दिर पद्धति से यह मन्दिर कुछ भिन्न है और पश्चिमाभिमुख है।
यह मंदिर पीठ (plinth) पर स्थित नहीं है। इसका विमान त्रिरथ देवल कहा जाता है और चौड़ाई अधिक होने और ऊंचाई कम होने के कारण स्थूलकाय लगता है। इसके जगमोहन का आकार-प्रकार अन्य मन्दिरों से अच्छा है। कला की दृष्टि से यह मंदिर भी दर्शनीय है। टप्पादार नकाशी, सूर्याकृति के आले और कोनकपागों में आमल की पद्धति अत्यन्त शोभनीय है।
हरे-हरे, लहलहाते हुए खेतों से परिवेष्टित राजारानी मन्दिर की अपनी एक निजी छटा है। विमान में चारों दिशाओं के दिक्पालों का सुन्दर दिग्दर्शन है। आलम पार्श्व-देवताओं की प्रसन्नमुख मूर्तियाँ अवस्थित हैं। इसमें प्रतिमा स्थापन नहीं हुआ। इसके बारे में यही कहा जा सकता है कि इसके मनोहर जगमोहन के तोरण द्वार पर लक्ष्मी और नवग्रहों की स्थापना इस बात का प्रमाण है कि यह मंदिर पूजा-अर्चना में भी प्रयुक्त होता रहा होगा।
मन्दिर वैष्णव सम्प्रदाय का है और इसका निर्माण राजारणिया पत्थर से हुआ है। विमान और जगमोहन दोनों ही अत्यन्त अलंकृत हैं। विमान रेखा देवल की पद्धति का है और दो मंजिला है। जगमोहन के स्तम्भों पर नागिनियों की आकृतियां खुदी हैं और इसके तोरण द्वारों की रक्षा द्वारपालगण करते हैं। इस पर पद्म पंखुड़ी, दली, जलबाई आदि अनेक प्रकार की बेलें उत्कीर्ण हैं।
मन्दिर के कोने के खम्भे या पाग अत्यन्त सुन्दर हैं और उनकी बनावट अद्भुत है। इन पागों पर चित्रित मूर्तियां भारतीय कला के इतिहास में बेजोड़ हैं। पद्म पंखुड़ियों पर बैठे वाहनारूढ़ अग्नि और नन्दीश्वर शिव गदा लिये बड़े शोभायमान हैं।
यहाँ की युवतियों को मूर्तियाँ अपनी उपमा नहीं रखतीं। राष्ट्रीय म्यूजियम, नई दिल्ली में इसी मन्दिर की तीन स्त्री-मूर्तियाँ प्रदर्शनार्थ रखी हैं। उनमें से एक स्त्री दर्पण में मुख देखती हुई शृंगार कर रही है। उसके पृष्ठभाग में एक तरु है, जिस पर फल लदे हैं और बंदर तथा तोता उन्हें आनन्द से चख रहे हैं।
दूसरी मूर्ति में माता अपने पुत्र को लहरा रही है और तीसरी मूर्ति की युवती बड़ी भाव-भंगी से अपने प्रियतम को पाती लिख रही है। तीनों स्त्रियाँ साड़ियाँ पहने हैं। साड़ियों के किनारे चौड़े और बेलदार हैं। उत्तरीय-पट को भी तीनों ने बड़े कलात्मक ढंग से ओढ़ रखा है। इन्हें देखने में दर्शक कभी नहीं थकता। उसे आज फिर अपने कुशल शिल्पी पूर्वजों की याद हो आती है।
भास्करेश्वर मन्दिर शैव-सम्प्रदाय का है। उसमें शिवलिंग की ऊँचाई यहाँ 9 फुट है, जिसका आयास 12 फुट 1 इंच है। इसकी बनावट अलंकृत है और यह पश्चिमाभिमुख है।
लिंगराज मन्दिर अन्य मंदिरों से बड़ा है और मुक्तेश्वर मन्दिर की भाँति ब्राह्मण-कला-पद्धति का सर्वोत्तम प्रमाण है। इसके स्थान का परिमाण 520x465 वर्ग फुट है और 7 फीट 6 इंच मोटी दीवार से घिरा है। दीवार में तीन तोरण द्वार हैं, जिनमें से एक का नाम सिंहद्वार है।
यह मंदिर पीड़ देवल-पद्धति का है। इसके चार प्रमुख भाग हैं- विमान, जगमोहन, नट मंदिर और भोग मंडप। विमान की शुरुआत बिना जगती पीठ के ही होती है। यह दशभूमि का मंदिर है। इसकी सुंदरता पार्श्व देवता, दिक्पति और लक्ष्मी बढ़ाते हैं।
विमान में रामायण और महाभारत कालीन दृश्य प्रदर्शित हैं। पाण्डवों का स्वर्गारोहण अत्यन्त भव्य बन पड़ा है। कलश तक इस मंदिर की ऊंचाई 143.०3 फुट है और इसके जगमोहन की ऊँचाई लगभग 90 फुट है। यह मंदिर नवीं शताब्दी में निर्मित हुआ था।
शेष मंदिरों में वैताल-मंदिर उल्लेखनीय है। यह खड़ियाकण्डा नामक पत्थर से बना है और एक रथ देवल कहा जाता है। उसके भाग हैं- वैताल-पाद (रेखा, बरण्डी और जंघा) और वैताल-मस्तक । वैताल-पाद पर गजारोहियों का चित्रांकन है। वैताल-पाद और वैताल-मस्तक के बीच में अद्भुत जाली पञ्जर का काम है।
वैताल-मस्तक पर तीन अमलक हैं, जिनके नुकीले त्रिशूल-शिखर दर्शनीय हैं। मस्तक पर प्लास्टर किया हुआ है। मंदिर के जगमोहन और विमान के बीच में एक अलंकृत आला मुकुटाकार स्थित है। इसके ऊपर भाग में नटराज शिव की और निचले भाग में नारायण की मूर्ति है। मंदिर में कपालिनी की प्रतिमा स्थापित है। परशुरामेश्वर मन्दिर की तरह यह मंदिर भी 5वीं 6ठी शताब्दी का है और बौद्ध शिल्पकला से प्रभावित है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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