हम दुखी क्यों होते हैं? क्योंकि वैसा नहीं होगा जैसा हम चाहते हैं। हम कितने दुखी होते हैं? उतने ही, जितना हम अनुभव करते हैं। हम दुख का अनुभव कितना करते हैं? उतना ही, जितना दुख के कारण से हम सम्बन्ध रखते हैं।
हमें दुख कब होता है? जब हम अपनी मर्ज़ी को महत्व देकर सोचते हैं कि ऐसा नहीं होना चाहिए था जैसा हो रहा है। दुख से बचने का उपाय क्या है ? दुख से बचने का उपाय है जो हो उसे स्वीकार कर लेना, अपनी ओर से कोई चुनाव न करके जो हो रहा हो उससे राज़ी रहना अपनी ओर से प्रयत्न और पुरुषार्थं भले ही चाहे जितना भी किया जाए पर इसके फल की इच्छा और फल का चुनाव न किया जाए तो ही दुख से बचा जा सकता है।
यदि प्रभु की मर्ज़ी को सहजभाव से स्वीकार कर लिया जाए कि हम हैं उसी में राज़ी जिसमें तेरी रज़ा है तो फिर दुख का कोई कारण ही नहीं बचता। हर हाल में जो मस्त रह सकता है वही दुखी होने से बच सकता है क्योंकि ऐसा व्यक्ति जानता है कि जो भी होता है भले के लिए ही होता है।
ऐसा व्यक्ति सिर्फ फूलों से ही नहीं, कांटों से भी प्यार करता है क्योंकि कांटे भी उसी ने बनाये हैं जिसने फूल बनाये हैं कांटा उसी पौधे से निकलता है जिस पौधे से फूल निकलता है। फूल मिलें तो फूल और कांटे मिलें तो कांटे भी सहज भाव से, प्रभु की मर्जी मानकर, स्वीकार कर लिये जाने पर दुख नहीं होता क्योंकि तब हमारी भावना यह होती है कि हे प्रभो! जो तुझे भावे सो ही भला है।
एक राजा को अपने एक सेवक से बहुत स्नेह था क्योंकि वह सेवक बड़ा स्वामी भक्त, परिश्रमी और आज्ञाकारी था। एक बार वन में घूमते हुए दोनों राह भटक गए और भूख से व्याकुल हो उठे।
बड़ी मुश्किल से एक फलदार वृक्ष दिखा तो सेवक ने एक फल तोड़कर पहले राजा को दिया ताकि पहले राजा अपनी भूख मिटा सके। राजा ने फल का एक कली काट कर स्नेहपूर्वक पहले सेवक को दी।
सेवक ने कली खाकर कहा स्वामी, एक कली और दीजिए। राजा ने एक कली और दे दी तो उसे खाकर सेवक फिर बोला स्वामी एक कली और दीजिए।
राजा ने स्नेहवश - यह सोच कर कि सेवक ज्यादा भूखा है, एक कली और दे दी। इस तरह सेवक मांगता गया और राजा कली काट कर देता गया। जब आखिरी कली बची तो राजा बोला क्यों रे! सब तू ही खा जाएगा क्या ? अब नहीं दूंगा ! यह सुनकर सेवक ने झपट कर वह कली राजा से ले लेनी चाही। पर तब तक राजा उस कली को मुंह में रख चुका था।
पर राजा ने चबाते ही उस कली को थूक दिया क्योंकि वह कली इतनी कड़वी थी कि चबाते ही राजा का चेहरा बिगड़ गया था। राजा यह देख कर हैरान रह गया कि इतने कड़वे फल को यह सेवक बार-बार मांगता रहा और मुस्कराते हुए खाता रहा। राजा बोला बाप रे! इतना कड़वा फल - तू मांग मांग कर खाता रहा और मुस्कुराता रहा। बताया क्यों नहीं ?
सेवक बोला मैं नहीं चाहता था कि आपको ऐसा कड़वा फल खाना पड़े। रही बात आपको बताने की तो मालिक! जिन हाथों से हमेशा अच्छे फल मिले, अनेक सुख मिले उन हाथों से यदि कड़वा फल भी मिले या दुख मिले तो शिकायत क्या करना !
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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