Published By:धर्म पुराण डेस्क

शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि तथा मैं-पन भी अपना तथा अपने लिये नहीं है

संसार में अपना कोई नहीं है। शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि तथा मैं-पन भी अपना तथा अपने लिये नहीं है। उन्हें अपना और अपने लिये मानना ही बंधन है। 'मैं' और 'मेरा' ही माया है। 'मैं' और 'मेरा' दोनों ही जगह भगवान हैं। जीव स्वतः निर्मम और निरहंकार है। मैं-मेरापन बदलता है। जो बदलता है, वह सच्चा नहीं होता। सुषुप्ति में मैं-मेरेपन का भान नहीं होता, पर अपनी सत्ता का अनुभव होता है। आपकी सत्ता मैं-मेरेपन के अधीन नहीं है। मैं-मेरापन आपके अधीन है। वास्तव में मैं और मेरा नहीं है, प्रत्युत तू और तेरा है!

भगवान के होकर भगवान को पुकारोगे तो मां की तरह भगवान को आना पड़ेगा। जैसे बालक को माँ की याद आती है, ऐसे भगवान की याद आये। अपने को शरीर सहित भगवान का मान लो। वास्तव में हम सदा से ही भगवान के हैं। अतः भगवान का होना नहीं है, केवल अपनी भूल का सुधार करना है कि मैं संसार का नहीं हूँ। आज ही विचार कर लो कि हम भगवान के सिवाय किसी के नहीं हैं।

अपने को भगवान का मान लेने के बाद परिवार से आदर का, सेवा का, पूजा का बर्ताव होगा। परिवार में ममता होने से बढ़िया बर्ताव नहीं होता।

कन्या पहले पति की न होते हुए भी विवाह के बाद पति की हो जाती है, आप भगवान के होते हुए भगवान के हो जाओ। स्वामी रामसुखदास कहते हैं - संसार में हमारा कोई अपना नहीं होता, यह सोच हमें अपने आत्मसमर्पण की महत्वपूर्णता को समझाती है। शरीर, इंद्रियां, मन, बुद्धि और मै-पन ये सभी हमें सिर्फ साधन होते हैं और उन्हें अपना और अपने लिए मानना ही हमारे बंधन का कारण बनता है। 'मैं' और 'मेरा' ही माया है, और इनको पहचान कर ही हम वास्तविक सत्य की ओर बढ़ सकते हैं।

जीव स्वतंत्र और निर्मम होता है, और इस निर्ममता का अनुभव हमें सुषुप्ति की स्थिति में होता है, जब 'मैं' और 'मेरा' का अभाव होता है लेकिन सत्ता का अनुभव होता है। यहां आपकी सत्ता मैं-मेरेपन के अधीन नहीं है, बल्कि मैं-मेरेपन आपके अधीन है। इस प्रकार, वास्तव में 'मैं' और 'मेरा' नहीं हैं, प्रत्युत तू और तेरा है!

भगवान का होकर उसे पुकारने पर वह जैसे माँ की तरह आता है। इसलिए, अपने को शरीर सहित भगवान का मान लेना चाहिए। यह यह अर्थ है कि हम सदा ही भगवान के हैं और भगवान के सिवाय किसी के नहीं हैं।

अपने को भगवान का मान लेने के बाद, परिवार में आदर, सेवा, और पूजा का बर्ताव होगा। ममता की अवस्था में परिवार के सदस्यों के साथ बेहतर बर्ताव नहीं होता है, लेकिन अपने को भगवान के साथ जोड़ने से यह संभावना बढ़ती है।

कन्या का उदाहरण लेने से पहले पति की भावना न होती हुई भी वह विवाह के बाद पति की हो जाती है, उसी तरह, हमें अपने आत्मसमर्पण के बाद भगवान के हो जाने की क्षमता होनी चाहिए।

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