Published By:बजरंग लाल शर्मा

साकार - निराकार दोनों, माया के रूप... 

साकार - निराकार दोनों, माया के रूप...            

"जब कभी आत्म साक्षात्कार के द्वारा सगुण साकार स्थूल शरीर और निर्गुण निराकार सूक्ष्म शरीर के प्रति इन जीवों का आत्म भाव समाप्त हो जाता है तब ब्रह्म के स्वरूप का दर्शन होता है क्योंकि यह दोनों ही रूप अज्ञान रूपी माया के द्वारा आत्मा में आरोपित हैं । "                                                                     

" हे परीक्षित ! मैंने तुम्हें भगवान के स्थूल और सूक्ष्म (व्यक्त और अव्यक्त) जिन दो रूपों का वर्णन सुनाया है, ये दोनों ही भगवान की माया के द्वारा रचित हैं । इसलिए विद्वान पुरुष इन दोनों को ही स्वीकार नहीं करते हैं । " 

"जो कोई निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना करता है, वह गहरे अंधकार में प्रवेश  करता है, और जो कोई त्रिगुण अध्यस्त देवों की उपासना करता है वह और भी गहरे अंधकार में प्रवेश करता है ।             

" जस  निर्गुण  तस  सरगुन  माना, निर्गुण  सरगुन  एक समाना ।    

निर्गुण सरगुण दोनों मिट जयहुं, आदि ब्रह्म से परिचय भयहुं ।। "                            

कबीर जी कहते हैं कि निर्गुण तथा सगुण (अर्थात् निराकार और साकार) रूप दोनों ही एक समान है क्योंकि दोनों माया के ही रूप हैं, इन दोनों के मिट जाने पर ही आदि ब्रह्म से परिचय होता है ।

"सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था मेरे अतिरिक्त न सत रूप (सूक्ष्म) था, न असत रूप (स्थूल) था और न इन दोनों का कारण अज्ञान रूपी माया थी । जहां यह सृष्टि नहीं है, वहां मैं ही मैं हूं और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूं और जो कुछ बचा रहेगा वह भी मैं ही हूं ।"        

" सृष्टि से पूर्व न सत था न असत था "             

"वह (ज्ञेय तत्व) अनादि परब्रह्म है । उसको न सत कहा जा सकता है और न असत ही कहा जा सकता है ।"

निष्कर्ष -- साकार स्वरूप  दिखाई  देता है, इसको स्थूल शरीर कहते हैं । यह माया का असत  रूप है । निराकार स्वरूप दिखाई नहीं देता है, इसको माया का सूक्ष्म शरीर कहते हैं । यह माया का सत रूप है ।

माया को त्रिगुणमयी कहा गया है जब माया अपने तीनों गुणों को प्रकट करती है तब वह साकार हो जाती है और जब अपने तीनों गुणों को पुनः अपने अंदर समेट लेती है तब वह निराकार हो जाती है । अतः साकार और निराकार दोनों रूप माया के रूप हैं तथा नष्ट होने वाले हैं । सत-असत दोनों ही विपरीत शब्द होने पर द्वैत की श्रेणी में आते हैं । द्वैत माया का रूप है । द्वैत के मिट जाने पर ही अद्वैत को प्राप्त करना संभव है ।

बजरंग लाल शर्मा

    


 

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