यह पुस्तक भारतीय संस्कृति और समाज जीवन तथा परंपरा में गौ माता के प्रति भक्ति भावना और सेवा भावना के दार्शनिक सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक आधारों को स्पष्ट करती है।
यूरोप के कतिपय अंग्रेज तथा अन्य विद्वानों ने जो संस्कृत अधिक नहीं जानते थे और जिन्हें वेद जान पाना तो संभव ही नहीं था क्योंकि अनेक वर्षों के कठिन परिश्रम और गुरु के मार्गदर्शन में ही वेद का ज्ञान संपन्न होता है|
ऐसे लोगों ने गौवध और गोमांस भक्षण की अपनी परंपरा को उचित ठहराने की भावना से कुछ को वैदिक शब्दों का गलत अर्थ प्रस्तुत करते हुए इस झूठ को प्रचारित किया कि वेदों में गोमांस भक्षण का कोई भी संदर्भ है ।
उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए सभी महत्वपूर्ण उद्धरणों और संदर्भों की शास्त्रीय विवेचना करते हुए, उन की आधार हीनता, निरर्थकता और तोड़ मरोड़ को तथा कई जगह जानबूझकर की गई शरारत पूर्ण उलटफेर को इस पुस्तक में स्पष्ट करते हुए व्यवस्थित रूप से क्रमबद्ध ढंग से अंग्रेजों और उनके भारतीय शिष्यों द्वारा इस विषय में फैलाए गए एक एक झूठे प्रतिपादनों और प्रचारों का खंडन किया गया है।
इसके बाद ऐतिहासिक संदर्भ में गोसेवा और गोरक्षा के राष्ट्रीय जीवन में महत्व को स्पष्ट किया गया है, जिसमें ब्रिटिश काल में रेकॉर्ड किए गए दस्तावेजों की जो प्रतियां इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी में हैं, उनमे से 2,000 (दो हज़ार ) पन्ने इतिहासकार श्री धर्मपाल के सौजन्य से इस लेखक को प्राप्त हुए, जिनकी विवेचना करते हुए पुस्तक मे स्पष्ट दिखाया गया है कि अंग्रेज शासन सभालने के 30 वर्षों के भीतर ही, 19 वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में ही, भारत में चले गौरक्षा आंदोलनों और गौरक्षणी सभाओं से कितने अधिक भयभीत थे और कैसे वे सामाजिक स्तर पर पूर्णतया धार्मिक दिखने वाले इस आंदोलन को ब्रिटिश साम्राज्य के लिए बहुत बड़ा खतरा मानते थे ।
ब्रिटिश महारानी और भारत में उनके वायसराय तथा अन्य बड़े अधिकारियों के बीच चले पत्राचार का हमने संदर्भ दिया है और उन दिनों स्वयं भारत में आर्य समाज तथा सनातन धर्म महामंडल सहित अनेक धार्मिक संगठनों के द्वारा जो व्यापक चेतना के साथ गौरक्षणी सभाएं चलाई जा रही थी और समाचार पत्रों में उनके जो संदर्भ थे, उन सब का विस्तार से विश्लेषण किया गया है और यह स्पष्ट दिखाया गया है कि गौरक्षा का भारतीय राष्ट्रीय जीवन में किस प्रकार केंद्रीय महत्व रहा है ।
इसके साथ ही आर्थिक परिदृश्य में इसका महत्व दिखाते हुए भी विवेचना की गई है और पंद्रह अगस्त 1947 के बाद देश में गौरक्षा के लिए चले आंदोलन तथा कांग्रेस शासन द्वारा उसके साथ किए गए व्यवहार का भी विश्लेषणात्मक निरूपण किया गया है ।
पुस्तक भारत की सांस्कृतिक अस्मिता के एक प्रतीक के रूप में गौ माता के महत्व और गौ रक्षिणी सभाओं, गोसेवा तथा गो भक्ति के भारतीय विश्वासों के सामाजिक,ऐतिहासिक और आर्थिक तीनों ही आधारों को प्रस्तुत करती है. इस पुस्तक के प्रकाशक भारत भारती, नयी दिल्ली|
इस पुस्तक में गांधी जी की विश्व दृष्टि को स्वयं संपूर्ण गांधी वाङ्मय के उद्धरणों से प्रस्तुत किया गया है और उसके आधारभूत सूत्र प्रस्तुत किए गए हैं जिनसे वह बात स्पष्ट हो जाती है कि गांधीजी किस प्रकार सनातन धर्म के एक निष्ठावान अनुयायी थे और कैसे उन्होंने सनातन धर्म के आधारभूत लक्षणों में पुनर्जन्म और कर्मफल की दार्शनिक मान्यताओं के साथ ही गोसेवा को महत्वपूर्ण माना है।
गांधीजी की अनेक आधारभूत बातों को किस प्रकार निरंतर गलत रूप में प्रस्तुत किया जाता है, उसे यह पुस्तक गांधी जी के भाषणों और लेखों के प्रामाणिक संदर्भ के साथ स्पष्ट कर देती है ।
पुस्तक में भारतीय शास्त्रीय संदर्भों को प्रमाण सहित प्रस्तुत कर यह दर्शाया गया है कि वेदों, शास्त्रों और योग दर्शन, सांख्य दर्शन, भगवद्गीता आदि में प्रतिपादित तत्व विचार से गांधी जी के विचार कहाँ तक सादृश्य रखते हैं।
गांधीजी की मूलभूत स्थापनाओं को किस प्रकार सर्वथा गलत और अनुचित तथा झूठा स्वरूप दिया गया है, इसे भी पुस्तक भली-भांति दिखलाती है। उदाहरण के लिए गांधी जी ने यह कभी नहीं कहा कि सभी धर्म समान हैं ।
उन्होंने केवल यह कहा कि एक ही सनातन धर्म रूपी वृक्ष है और सभी पंथ, मजहब या रिलिजन जहां तक उसकी शाखाएं हैं, वहीं तक वे धर्म है और जहां वे सनातन और सार्वभौम यम और नियम से, धर्म की आधारभूत स्थापना से अलग हैं, वहां वे धर्म नहीं हैं।
इस प्रकार उन्होंने सत्य, अहिंसा, संयम, अधिक संग्रह नहीं करना और दूसरे के धन के प्रति लोभ नहीं रखना, इन सार्वभौम आधारों पर ही प्रत्येक धर्म को कसे जाने का बारंबार आग्रह किया था और प्रत्येक महत्वपूर्ण धर्म या मजहब के दोषों को भी गिनाया था ।
उदाहरण के लिए, हिन्दू समाज में फैले जाति आधारित भेदभाव को उन्होंने हिंदू समाज पर कलंक कहते हुए स्पष्ट किया था कि उनके आधार सार्वभौम धर्म के आधारभूत प्रतिमानों से अलग होने के कारण वह धर्म नहीं है क्योंकि उसमे आत्मा की एकता का निषेध है ।
इसी प्रकार उन्होंने ईसाइयत का सबसे बड़ा पाप रिलीज्यस हिंसा और युद्ध बताया था तथा नया नियम के गिरि प्रवचन नामक अध्याय में दिए गए ईसा मसीह के प्रवचनों को धर्ममय बताया था और बारंबार यह स्पष्ट किया था कि ईसाइयत का संपूर्ण इतिहास रक्त रंजित युद्ध का इतिहास है तथा ईसाईयों ने अपने संपूर्ण इतिहास में ईसा मसीह के वचनों का पालन नहीं किया।
उन्होने यह भी स्पष्ट कहा कि धर्मांतरण हलाहल विष है और पाप है तथा स्वतंत्र भारत में इसकी अनुमति नहीं होगी। क्योंकि यह धर्म विरोधी है और अधर्ममय है।
इसी प्रकार उन्होंने इस्लाम के विषय में कहा था कि मुसलमान मुस्लिम भाईचारे की बात तो करते हैं परंतु इंसानी भाईचारे की बात नहीं करते और इस्लाम का मजहब केवल भाईचारे या शांति की भावना से नहीं बल्कि तलवार के जोर से फैला है।
इस तरह उन्होंने प्रत्येक महत्वपूर्ण मजहब या धर्म को अपने इतिहास और अपनी मान्यताओं में से अधर्म को हटाने का आग्रह किया और हिंदू समाज से जाति आधारित छुआछूत को हटाने का आग्रह उसी का एक अंग था ।
गांधी जी की इन सब आधारभूत मान्यताओं को तथा जीवन और जगत, आत्मा और परमात्मा तथा कर्म फल संबंधी उनके प्रतिपादन को इस पुस्तक में गांधी जी के कथनो, लेखों और व्याख्यानों के आधार पर दिखाया गया है ।
इस पुस्तक की भूमिका भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने लिखते हुए इसकी बहुत प्रशंसा की थी और गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के अध्यक्ष श्री रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर जी ने इस पुस्तक को सर्वसमावेशी कहा था।
लंदन में रहकर गांधी जी ने ईसाइयत को, उसकी संस्थाओं को, उसके चर्च, उसकी मान्यताओं और संस्थाओं को और उसकी प्रार्थनाओं के आंतरिक स्वरूप को गहराई से समझा था।
इस अर्थ में वह ईसाइयत के इनसाइडर थे । जबकि इस्लाम के वे आउट साइडर थे। इसलिए ईसाइयत के विषय में उनके द्वारा कही गई बातें अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं।
गांधीजी ने ईसाइयत की सभी आधारभूत धारणाओं से गहरी असहमति व्यक्त की है । साथ ही विरोधी से भी शांतिपूर्वक और बौद्धिक दृढ़ता के साथ कैसे निरंतर संवाद किया जाए और कैसे अपने पक्ष का स्पष्ट आग्रह रखा जाए, यह भी उन्होंने ईसाई मिशनरियों से सीखा, जिसका उन्होंने अपना पक्ष रखने में भरपूर उपयोग किया।
गांधी जी ने न्यू टेस्टामेंट के SERMON ON THE MOUNT ( गिरि प्रवचन ) को ही ईसाइयत का एकमात्र तात्विक सार बताया परंतु ईसाइयों की अन्य मान्यताओं का उन्होंने स्पष्ट खंडन किया। उनके अनुसार सर्वप्रथम तो यह मानना गलत है कि गॉड ने आज तक केवल एक ही बेटा पैदा किया है जो जीसस है।
उनका कहना था कि सभी प्राणी गॉड की ही संतान हैं। समस्त मनुष्य और सभी प्राणी ईश्वर की संतान हैं और ईसा मसीह या जीसस मानव जाति के एक महान शिक्षक हैं ।
उन्होने अपने समय के एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय चला रहे महान शिक्षक स्वामी श्रद्धानंद से ईसा मसीह की तुलना की और कहा कि जिस प्रकार एक महान शिक्षक स्वामी श्रद्धानंद जी हैं, उसी प्रकार के महान शिक्षक पैगंबर मोहम्मद और ईसा मसीह भी हैं ।
उन्होंने गॉड और पवित्र प्रेत आत्मा और इकलौते बेटे की त्रिमूर्ति के सिद्धांत को पूरी तरह अस्वीकार कर दिया। साथ ही उन्होंने दूसरों के हृदय की तलाशी लेने और वहां जीसस रूपी सच है या नहीं, इसकी जासूसी करने के ईसाइयों के दावे को अत्यधिक आपत्तिजनक बताया।
अन्यों को कन्वर्ट करने को मानव जाति के लिए हलाहल विष बताया और मिशनरियों से बारंबार आग्रह किया कि वे इस महापाप से विरत हो जाएँ।
स्वयं गांधी जी के लिखे लेख और टिप्पणियां तथा दिए गए भाषणों में से प्रामाणिक संदर्भ देते हुए यह पूरी पुस्तक लिखी गई है ।
तत्कालीन परम पूज्य सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी ने, श्री रामस्वरूप जी और श्री सीताराम गोयल जी ने इसकी अत्यधिक प्रशंसा की और संघ कार्यालयों मे यह रखी गयी। पोप के भारत आगमन के समय इसकी कई हज़ार प्रतियाँ लोगों ने खरीद कर पढ़ी थीं|
गांधी जी ने ईश्वर और मनुष्य के बीच मध्यस्थता करने के अधिकार का चर्च का दावा भी पूर्णत: अस्वीकार कर दिया और कहा कि इस मध्यस्थता की आड़ में कन्वर्जन यांनी धर्मांतरण का जो महापाप ईसाई मिशनरी करते हैं, वह मानवता का विरोधी हैं और मानव जाति पर भयंकर आध्यात्मिक अन्याय हैं इसलिए यह तुरंत बंद होना चाहिए।
प्रार्थना के नाम पर दूसरों के ईसाई बनाने की कामना कोई प्रार्थना नहीं है, अपितु अन्यों के धर्म के नाश की पाप पूर्ण इच्छा है, यह गांधी जी ने कहा- प्रार्थना के नाम पर ये लोग पाप करते हैं ।
इसी प्रकार काम भाव को मूल पाप मानने की ईसाइयत की अवधारणा को गांधी जी ने पाल द्वारा प्रतिपादित पालीन ईसाइयत कहा और इसे जीसस द्वारा दिए गए उपदेशों के नितांत विरुद्ध बताया । काम भाव धर्ममय हो तो श्रेष्ठ पुरुषार्थ है, यह गांधी जी ने कहा।
मनुष्य पाप की संतान हैं ,इस धारणा का तीव्र खंडन करते हुए उन्होंने मनुष्य को सच्चिदानंद परमात्मा की संतान बताया ।
अनेक देशों में ईसाई मिशनरी लोगों ने साम्राज्यवाद का और साम्राज्यवादी युद्ध का परोक्ष रूप से पोषण और समर्थन किया है और अन्य देशों को उनकी राष्ट्रीयता से मुक्त करने का तथा ईसाई साम्राज्यवाद का अंग बनाने का प्रयास किया है, यह तथ्य स्वयं ईसाई मिशनरियों की सभाओं में उन्होंने बारंबार रखा और यह कहा कि अब ईसाइयत को एक परिपक्व पंथ बनना चाहिए और उसे अपनी विशेषता का हर दावा त्याग कर विनम्रता पूर्वक मानव जाति की सेवा करनी चाहिए और उसके एवज में उनके आध्यात्मिक उद्धार के नाम पर उन्हें ईसाई बनाने का महापाप पूरी तरह त्याग देना चाहिए।
सब तथ्यों को संदर्भ सहित इस पुस्तक में रखा गया है और इसलिए इसके अनेक संस्करण अब तक लोकप्रिय हो कर समाज में व्यापक स्तर पर सराहे गए हैं । इस पुस्तक के प्रकाशक प्रभात प्रकाशन, नयी दिल्ली|
यह पुस्तक स्वाधीनता के बाद भारत राष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य के परिपेक्ष में भारतीय राजनीति का ऐतिहासिक विश्लेषण करते हुए समकालीन भारत में राष्ट्र, मानव जीवन, राष्ट्रों के बीच संबंध, विकास, पर्यावरण, प्रकृति तथा समृद्धि और आनंद के मानवीय लक्ष्यों के संदर्भ में भारत राष्ट्र की क्या नीतियां बननी चाहिए और एक तेजस्वी राष्ट्र को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में जाकर कैसे इंग्लैंड से 90 वर्षों में की गई साम्राज्यवादी लूट की क्षतिपूर्ति की मांग करनी चाहिए तथा कैसे भारत की अपनी परंपराओं को सुदृढ़ करते हुए और इष्ट तथा पूर्त कर्मों की भारतीय परंपराओं के अनुसार दान और करुणा के भारतीय दर्शन के अनुसार अपनी संस्थाओं की नए रूप में पुनः प्रतिष्ठा करनी चाहिए|
इस विषय में विस्तार से लिखा गया है। इसकी भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी ने करते हुए इसकी बड़ी प्रशंसा की थी और इस पुस्तक की भी विश्वविद्यालय और पुस्तकालयों में बहुत मांग रही है। इस पुस्तक के प्रकाशक ग्रंथागार, नयी दिल्ली|
यह पुस्तक स्त्रीत्व की भारतीय शास्त्रीय धारणाओं को तथा विवाह और परिवार संबंधी भारतीय प्रतिमान और आदर्शों तथा व्यवहार को सामने रखते हुए स्त्री के विषय में इस्लाम और ईसाइयत की धारणाओं की गहराई से विवेचना करती है और ईसाइयत के द्वारा यूरोप में स्त्रियों का जो भयंकर उत्पीड़न लगातार 700 वर्षों तक किया गया, उसको यूरोपीय लेखकों लेखिकाओं के साक्ष्य के साथ संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए आधुनिक यूरोपीय स्त्री की ऊर्जा और संकल्प तथा संघर्ष को सामने रखती है और उसका समर्थन करती है|
भारतीयों, विशेषकर हिंदू स्त्रियों से यह आग्रह करती है कि सात शताब्दी तक सताई गई उन स्त्रियों के जीवन को जानें तथा विशेष कर उन्हें अपने शरीर पर भी स्वामित्व नहीं देते हुए उनके सामान्य जीवन को बाधित करने के जो भयंकर प्रयास किए गए, उनके विरुद्ध अहिंसक ढंग से यूरोप की स्त्रियों ने जैसे संघर्ष किया और उनके व्यक्तित्व की स्वाधीनता को साकार
किया है, उसे समझने का आग्रह किया है और इस विषय में प्रबुद्ध हिन्दू स्त्रियों की भूमिका को अत्यंत महत्वपूर्ण बताया है । इस पुस्तक के प्रकाशक विश्वविद्यालय प्रकाशन, चौक,वाराणसी|
यह पुस्तक समकालीन विश्व में सभ्यताओं के संघर्ष की विवेचना करते हुए कतिपय मजहबी उन्माद की मीमांसा करते हुए भारतीय दृष्टि के महत्व को प्रतिपादित करती है और उस की विश्वव्यापी स्वीकृति निकट भविष्य में संभव बताती है। इस पुस्तक के प्रकाशक गांधी विद्या संस्थान, राजघाट, वाराणसी|
यह पुस्तक आधुनिक विकास के नाम पर यूरोप के द्वारा संसार की अनेक सभ्यताओं को नष्ट करने और अपने पर्यावरण और प्रकृति के परिवेश का विनाश करने के तथ्यों को यूरोपीय साक्ष्यों के आधार पर विस्तार से प्रस्तुत करती है और इस विषय में उसके दार्शनिकों इतिहासकारों और समाज शास्त्रियों के द्वारा प्रतिपादित विचारों और तथ्यों को सामने रखते हुए|
भारतीय अहिंसक दृष्टि को प्रस्तुत करती है और साथ ही यूरोप एवं अमेरिकी वैज्ञानिक विशेषकर न्यू साइंस के द्वारा जो नई जीवन दृष्टि उभरी है जिसमें गाया सिद्धांत, संपूर्ण ब्रह्मांड को एक चेतन जैविक इकाई मानने का और उसके आधार पर व्यापक सार्वभौम मूल्यों की नवरचना के जो सिद्धांत सामने लाए गए हैं, उनको वैज्ञानिकों की ही पुस्तकों से उद्धृत करते हुए प्रस्तुत करती है और फिर भारत के दर्शन और इतिहास दोनों का तथ्य प्रस्तुत करते हुए यह साबित करती है कि यद्यपि विगत 1000 वर्षों से अधिक का इतिहास बताता है कि केवल हिंसक विनाश और लूट द्वारा ही उनके पास समृद्धि आई है और अन्य समाजों की लूट के द्वारा ही उन समाजों ने समृद्धि प्राप्त की है परंतु समृद्धि का एक अहिंसक मार्ग भी है जो भारतीय दर्शन और भारतीय राज्य व्यवस्था तथा भारतीय समाजशास्त्र एवं धर्म शास्त्र में विस्तार से प्रतिपादित है और उनका पालन करने पर अहिंसक ढंग से भी समृद्धि प्राप्त करना संभव है। इस पुस्तक के प्रकाशक समग्र प्रकाशन, मुंबई।
यह पुस्तक समृद्धि, संपत्ति और सुख संबंधी आधुनिक यूरो अमेरिकी मान्यताओं को तथा इस विषय में भारतीय दर्शन को स्पष्ट करती है और यह प्रतिपादित करती है कि समृद्धि संपत्ति और सुख संबंधी हिंसक दृष्टि ही इतिहास में बहुत समय से प्रभावी रही है परंतु अहिंसक समृद्धि का भी इतिहास भारत में रहा है और यह अहिंसक दृष्टि विश्व कल्याण के लिए, सर्व कल्याणकारी तथा सबका हित करने वाली सिद्ध हो सकती है और इसमें ही सच्ची समृद्धि तथा सच्चा आनंद है जो किसी अन्य के विनाश और शोषण पर आधारित ना होकर सह संवेदना और सह जीवन पर आधारित है तथा प्रकृति के नियमों की गहरी समझ और उससे निकले हुए संयम के सूत्रों पर आधारित जीवन शैली के द्वारा अहिंसक ढंग से समृद्धि और आनंद संभव है। इस पुस्तक के प्रकाशक गांधी विद्या संस्थान, वाराणसी|
यह पुस्तक भारत के विषय में फैलाए गए विकराल और निराधार झूठ को सामने लाती है और दिखाती हैं कि भारत को हजारों वर्षों से पराधीन रहा बताना कितना बड़ा झूठ है और इस विषय में विशेषकर जिसे भारत का मुस्लिम काल कहा जाता है, वह यथार्थ रूप में किस प्रकार है तथा अलग-अलग इलाके में किस प्रकार मुस्लिम जागीरें मात्र रही हैं और दिल्ली से आगरा के बीच फैली मुस्लिम जागीर को मुस्लिम साम्राज्य कहना कितना गलत है, यह दर्शाती है .
उसी समय भारत में विशाल साम्राज्य की अनदेखी करना किस प्रकार ऐतिहासिक है, इसे तथ्यों के साथ सामने रखती है। पुस्तक परिशिष्ट में यह तथ्य सामने लाती है कि समस्त भारतीय क्षेत्र मे 13 वीं शताब्दी तक तो कुल मुस्लिम संख्या लाखों मे ही थी और 17 वीं शताब्दी मे वह कुल आबादी का 9 प्रतिशत हुयी और 18 वीं मे 11 तथा 19 वीं मे 16 प्रतिशत हुयी जबकि ब्रिटिश राज्य मे वह बढ़कर 25 प्रतिशत हो गयी और उसके बाद वर्तमान मे भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान मे कुल मुस्लिम आबादी जनसंख्या का 32 प्रतिशत से भी अधिक हो गयी है अतः मुसलमानों ने युद्ध से जो नहीं प्राप्त किया था, वह अंग्रेजों और कतिपय कांग्रेसियों की कृपा से तथा जनसंख्या वृद्धि से प्राप्त कर लिया है ।
पुस्तक में एक अलग परिशिष्ट में देसी राजाओं को तोपों की सलामी की जो संख्या अंग्रेजों ने संधि में तय की थी, उनका विवरण देते हुए 21, 19, 17, 15, 13 , 11 और 9 तोपों की सलामी वाले 115 राज्यों की सूची देकर दर्शाया है कि कैसे यह वायसराय को दी जा रही 31 तोपों की सलामी से 48 गुनी से अधिक है जिस से स्पष्ट है कि भारतीय राज्य स्वयं अंग्रेजों की दृष्टि में कितने शक्तिशाली थे। साथ ही 1 और 2 तोपों की सलामी वाले 615 अन्य राज्यों की सूची भी अलग दी है । इस पुस्तक के प्रकाशक मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी से प्रकाशित।
यह पुस्तक प्रामाणिक ऐतिहासिक संदर्भ के साथ विगत 1000 वर्षों के भारतीय इतिहास को सामने रखती है और मानचित्र आदि के द्वारा यह स्पष्ट कर देती है कि भारत में मुस्लिम शासन कब-कब कहां-कहां रहा है और परिशिष्ठ में पुस्तक में इनमें से प्रत्येक क्षेत्र का विवरण भी दे दिया है ।
इसके साथ ही पुस्तक इंग्लैंड के इतिहास को संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए याद दिलाती है कि 18वीं शताब्दी ईस्वी तक इंग्लैंड एक nation-state था ही नहीं इसलिए अंग्रेजों द्वारा भारत को गुलाम बनाए जाने की बात हास्यास्पद और झूठ है और स्वयं एक नवंबर 1858 को ब्रिटिश महारानी द्वारा की गई घोषणा प्रमाण है कि कुल 90 वर्ष ही आधे से कुछ अधिक क्षेत्र में अंग्रेजी राज्य रहा है जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा था कि आज से मेरा भतीजा भारत का पहला वायसराय होगा और वह उस क्षेत्र का मालिक होगा, जिस क्षेत्र पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत के राजाओं से संधि करके नियंत्रण किया था।
साथ ही यह भी कहा था कि हम भारत के राज्यों की सीमा में तनिक भी हस्तक्षेप नहीं करेंगे और भारतीय राजाओं से भी यही अपेक्षा करते हैं कि वह हमसे मैत्री संबंध रखते हैं और हमारे सीमाओं में हस्तक्षेप ना करें ।साथ ही हम उत्तराधिकार अधिनियम के भारतीय राजाओं की परंपरा में तनिक भी हस्तक्षेप नहीं करेंगे क्योंकि यही ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा किए गए झगड़ों की जड़ रही है तथा हम भारत के अपने हिस्से की संपूर्ण प्रजा के प्रत्येक धर्म और मजहब का समान रूप से संरक्षण करेंगे अर्थात हम भारत में इंग्लैंड की तरह प्रोटेस्टेंटिज्म नहीं लादेंगे और जिस प्रकार इंग्लैंड में प्रोटेस्टेंट राज धर्म घोषित है ,वैसा हम भारत में न करके यहां सभी धर्मों का संरक्षण करेंगे और भारत के हित के लिए कार्य करेंगे।
इस तरह स्वयं ब्रिटिश महारानी के अनुसार लगभग आधे से कुछ अधिक भारत 90 वर्षों तक अंग्रेजों के आधिपत्य में था और वह भी भारतीय राजाओं आदि से संधि करते हुए।
इन तथ्यों को देखते हुए पुस्तक प्रतिपादित करती है कि भारत कभी भी पराधीन नहीं था। इसके कुछ हिस्से 90 वर्ष तक अंग्रेजों की अधीनता में अवश्य थे परंतु वे सहायक संधियों आदि के द्वारा तथा छल और रोकड़ बही की हेराफेरी के द्वारा अनेक राजाओं को कंपनी का ऋणी दिखाते हुए तथा अन्य बहुत से छल करते हुए प्राप्त किए गए इलाके हैं और कभी भी किसी देश ने भारत को अपने अधीन लाने की घोषणा करते हुए कोई युद्ध नहीं किया है और इसलिए उसे पराधीन नहीं कह सकते अपितु संघर्ष और संधियों के एक जटिल क्रम में भारत के इतिहास को समझा जा सकता है।
परिशिष्टों और मानचित्रों तथा यूरोपीय और ब्रिटिश संदर्भों सहित पुस्तक प्रामाणिक तथ्यों को सामने लाती है। इस पुस्तक के प्रकाशक साहित्य संगम, नया 100, लूकरगंज, प्रयाग से प्रकाशित ।
सभ्यता अध्ययन केंद्र, नई दिल्ली से प्रकाशित |
पुस्तक यह भली-भांति दिखाती है कि भारत में स्वयं को मोमिन कहने वालों में से बहुत बड़ी संख्या मुनाफिक लोगों की है जो बनावटी मुसलमान है, जो कुरान के अनुसार बिल्कुल नहीं चलते क्योंकि कुरान के अनुसार चलने पर आधुनिक जीवन कठिन है,अतः उस पर 1 दिन भी नहीं चलते।
आधुनिक जीवन कुरान के अनुसार संभव नहीं है और जो न तो कुरान में वर्जित अपराधों से अपनों को दूर करते, जैसे:- नशे से अपने को दूर रखना, सिनेमा में एक्टिंग से अपने को दूर करना, मनुष्य और पशु पक्षियों आदि के चित्र वाली पुस्तकों से अपने को दूर रखना, और विविध अपराधों के लिए कुरान में वर्णित सजाएं लेना, जिनमें नंगे खड़े करके पत्थर मारकर मार डालने से लेकर गड्ढा खोदकर गड्ढे में उतारकर पत्थरों से स्त्रियों को मारने तक अनेक प्रकार की सजा है|
100 कोड़ों की सजाहै,यह सजा जो लोग नहीं लेते अपने अपराधों के लिए, पर वे केवल गलत काम करने के लिए कुरान की दुहाई देते हैं और इस प्रकारवे मुनाफिक हैं, बनावटी मुसलमान हैं जिन्हें मस्जिद पर, मदरसे पर, वक्फ पर, कुरान शरीफ के अनुसार कोई भी अधिकार प्राप्त नहीं है।
इन बनावटी मुसलमानों को यानी मुनाफिक लोगों को किसी भी मस्जिद पर दावा करने का कोई अधिकार विधिक रुप से नहीं है कुरान के अनुसार ।
और वक्फ बोर्ड पर अधिकार नहीं है। और मोमिन के रूप में किसी भी प्रकार की मांग करने का अधिकार नहीं है।इसलिए इन मुनाफिक लोगों को अपने को मोमिन बताकर अदालत में जाना या सरकार से प्रदर्शन करना या हिंदुओं पर आक्रमण करना इन सब अपराधों के लिए कठोर दंड दिया जाना चाहिए।। यह भारत शासन का परम कर्तव्य है। यह पुस्तक बताती है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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